मनुष्य कि अनन्त अभिलाषा

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मनुष्य कि अनन्त अभिलाषा
मनुष्य कि अनन्त अभिलाषा

अजीत सिंह

वैसे तो मनुष्य की कामना अनन्त काल तक जीवित रहने की रहती है. परन्तु देह के साथ प्राणी मात्र के जीवन की भी एक सीमा है. आयु बढ़ती है और देह क्षीण होती जाती है और एक समय ऐसा आता है जब आध्यात्मिक शास्त्रोक्तानुसार कि शरीर के भीतर रहने वाली और संसार में विभिन्न नामों से जानी जाने वाली चेतना निकल जाती है. मनुष्य को मृत मान कर इसकी देह को भिन्न-भिन्न रस्मों अनुसार पंचतत्व में विलीन कर दिया जाता हैै. इस अल्पकालीन जीवन को सार्थक बनाने के लिए मानवता के कल्याण में लग जाए मानव को ‘मानवता’ का त्याग नहीं करना चाहिए. जैसे हम औरों से अपने प्रति व्यवहार चाहते हैं, वैसे ही दूसरों के साथ व्यवहार करना मानवता का धर्म है. अपने को प्रदत्त कष्ट में जैसी पीड़ा का अनुभव स्वयं को होता है. वैसी ही पीड़ा दूसरों को देने में होती है. एकात्मकता जानकर किसी को पीङा नहीं पहुँचाने का संकल्प लेना ही मानव धर्म है. मनुष्य कि अनन्त अभिलाषा

मानव धर्म ‘वसुधैव कुटुंबकम‍्’ की स्थापना करके प्रेमपूर्वक जीने की पद्धति सिखाता है. मनुष्य का मौलिक और सबसे बड़ा धर्म मानवता ही है जो धर्म वैर सिखाता है. उसे बुद्धिमान लोग धर्म नहीं कहेंगे, वह धर्म होने का कोरा दंभ मात्र हो सकता है. जीवन में ऐसा खोखला जीवन न जी कर मानव को मानवता के कल्याणार्थ ऐसे कर्म करने चाहिए. जिससे चांद-सितारों से जगमग-जगमग नभ की भांति वसुन्धरा भी जगमगा उठे उसी स्थिति में हम मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध कर सकेंगे.

हम मनुष्य हैं तथा हमारे पास परमात्मा का दिया हुआ शरीर व इसमें एक महत्वपूर्ण अंग बुद्धि भी है. बुद्धि से हम सोच विचार कर सत्य व असत्य का निर्णय कर सकते हैं. परमात्मा का सृष्टि के आदि काल में दिया गया वेद ज्ञान भी हमारे पास है. चार वेद ईश्वर ज्ञान होने के कारण सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं. वेद से ईश्वर और आत्मा का सत्य स्वरूप प्राप्त होता है. वेदों के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवात्माओं के लिये सृष्टि की रचना व पालन करने वाला, सृष्टि की प्रलय करने वाला, जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य आदि विभिन्न योनियों में जन्म देने वाला तथा उन्हें कर्मानुसार सुख व दुःख प्रदान करने वाला है.

  सभी प्राणियों में विद्यमान आत्मा अमर व अविनाशी है. यह अनन्त काल तक अपने सत्यस्वरूप में बना रहेगा. अनन्त काल तक इसके जन्म व मरण होते रहेंगे. पुनर्जन्म के अनेक प्रमाण हैं.वेद एवं सभी ऋषि-मुनि पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानते हैं. ऋषि दयानन्द जी ने भी पुनर्जन्म के अनेक प्रमाण अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में बताये हैं.

मनुष्य का आत्मा अनादि होने से अविनाशी है. यह सदा इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व में बना रहेगा. इसी कारण परमात्मा द्वारा इसके कर्मों के आधार पर आत्मा का जन्म-मरण होता रहेगा. अतः इसे दुःख के कारण जन्म व मृत्यु से बचने के लिये मुक्ति प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने चाहिये. हम देख रहे हैं कि संसार में मनुष्य जन्म लेकर अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के भ्रम में फंस कर मनुष्य अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं. वह न तो ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्राप्त हो पाते हैं और न ही उन्हें सत्य उपासना का ज्ञान होता है. इससे मनुष्य जन्म लेकर ईश्वर के ज्ञानस्वरूप, प्रकाशस्वरूप व सर्वशक्तिमानस्वरूप का साक्षात्कार करने से वंचित हो जाते हैं. मनुष्य कि अनन्त अभिलाषा