छठ: वह पर्व जहाँ राजा और रंक एक घाट पर

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छठ: वह पर्व जहाँ राजा और रंक एक घाट पर माथा टेकते हैं।

छठ वह प्राचीन पर्व है जिसमें राजा और रंक एक घाट पर खड़े होकर एक समान आशीर्वाद पाते हैं। यह वह क्षण होता है जब समाज की हर दीवार टूट जाती है, और केवल आस्था का प्रवाह दिखाई देता है।

जब संस्कृति समय को चुनौती देती है

जब विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता की स्त्रियाँ अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ सजधज कर, आँचल में फल लिए घाट की ओर बढ़ती हैं,
तो लगता है मानो संस्कृति स्वयं समय को ललकार रही हो —

“देखो, तुम्हारे असंख्य झंझावातों को झेलकर भी हमारा वैभव कम नहीं हुआ है।
हम सनातन हैं, हम भारत हैं।
जबसे तुम हो, तबसे हम हैं — और जब तक तुम रहोगे, तब तक हम भी रहेंगे।”

स्त्री का दिव्य स्वरूप – श्रद्धा, न कि मोह

जब घुटने भर जल में खड़ी व्रती की सिपुलि में सूर्य की किरणें उतरती हैं, तो लगता है मानो स्वयं सूर्य बालक बनकर उसकी गोद में खेलने उतर आया हो। वह क्षण स्त्री के भव्यतम स्वरूप का दर्शन कराता है — एक अन्नपूर्णा, एक सृजन शक्ति, एक भारत माता के रूप में।

छठ के दिन घाट पर बैठी सिंदूर से सजी स्त्री केवल पूजा नहीं करती,
वह अपने भीतर हजारों पीढ़ियों की स्मृति, शक्ति और श्रद्धा को पुनर्जीवित करती है। उसके दउरे में केवल फल नहीं होते — उसमें पूरी प्रकृति, परंपरा और पीढ़ियों की निरंतरता होती है।

हर स्त्री में दिखती है भारत की कथा

ध्यान से देखिए तो उस स्त्री में आपको कौशल्या, सीता, सावित्री, मैत्रेयी, अनुसुइया, पद्मावती और लक्ष्मीबाई सब मिल जाएँगी।
वह सिर्फ पूजा नहीं करती — वह हमारी सभ्यता को अपने आँचल में बाँध कर अगले हजारों वर्षों की यात्रा के लिए तैयार करती है।

डूबते और उगते सूर्य का दर्शन

छठ डूबते सूर्य की आराधना का पर्व है — डूबता सूर्य इतिहास होता है। कोई भी सभ्यता तभी दीर्घजीवी होती है जब वह अपने इतिहास और योद्धाओं का सम्मान करती है, अपने ऊपर हुए आक्रमणों और षड्यंत्रों को याद रखती है।

छठ उगते सूर्य की आराधना का भी पर्व है — उगता सूर्य भविष्य है। और कोई भी सभ्यता तभी यशस्वी होती है जब वह अपने भविष्य को श्रद्धा और निष्ठा से सँवारे। यही छठ व्रत का मूल भाव है।

हमारी सभ्यता की खुशी

घाट पर जाती स्त्रियाँ, उनके लिए रास्ता बनाते पुरुष,
उत्साह से लबरेज़ बच्चे —
यह दृश्य केवल हर्ष का नहीं,
बल्कि हमारी मिट्टी, हमारी संस्कृति और हमारे देश की खुशी है।

उगs हो सुरुज देव…

कल जब आदित्य आपकी सिपुलि में उतरें,
तो उनसे कहिएगा —

“इस देश, इस संस्कृति पर अपनी कृपा बनाए रखें,
ताकि हजारों वर्षों बाद भी हमारी पुत्रवधुएँ
यूँ ही सज-धज कर गंगा के जल में खड़ी हों
और कहें — ‘उगs हो सुरुज देव, भइले अरघ के बेर…’।”

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