भारत में एक नई संकल्पना उभरती है। आज भारत में स्त्री जागरण पूरी तरह पश्चिम के नारीवाद से प्रभावित नजर आता है। जबकि भारत और पश्चिम के जनमानस में भारी अंतर है। जब हम भारत में नारी सशक्तीकरण के पश्चिमी मॉडल की बात करते हैं तो उसमें बुनियादी सुधारों का अभाव दिखता है। भारत का वर्तमान स्त्री विमर्श शहरी मध्यम वर्गीय और अभिजात्य वर्ग तक सीमित है। ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न आय वर्ग में महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा और शोषण की समस्या आम है। वे अभी इनको लेकर मुखर भी नहीं हैं और सहती रहती हैं। शहरों और उच्च वर्ग में इस तरह की घटनाओं को लेकर महिलाएं रिपोर्ट कर रही हैं। बुनियादी सुधार कब होंगे?
भारतीय जनमानस में एकाएक महिलाओं का नेतृत्व स्वीकार्य होना आसान नहीं है। पिता,भाई और पति के संरक्षण में पलने, बढ़ने के बाद उनके अधिकारों से परे जाने में अभी वे सक्षम नहीं हुई हैं, जबकि यूरोपीय देशों के नारी सशक्तीकरण का मॉडल एक अलग दृष्टि को दर्शाता है। भारतीय समाज अब भी स्त्रियों को मान्य रूप से बराबरी का दर्जा नहीं दे पाया है। बड़ा वर्ग अब भी स्त्री को अबला और भोग का माध्यम ही मानता है। स्त्री उत्थान के विमर्श के लिए यह समझना जरूरी है कि हर समाज की अपनी वैचारिक विशेषता, संस्कृति और सीमाएं होती हैं। नारी सशक्तीकरण के लिए जो भी नियम, कानून बने हैं, वे सब पश्चिम से प्रभावित हैं। ऐसे में भारतीय दलित स्त्री की वैचारिकी क्या हो सकती है। इसकी संकल्पना भारतीय नारी ही कर सकती है। भारत की नई स्त्री वह होगी, जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो और स्वतंत्र विचारों के अधिकार से अच्छी तरह वाकिफ हो।। जल संरक्षण के मुद्दे पर अब जागरूकता से आगे बढ़ने का समय आ चुका है। हमारे पुरखे जल आपूर्ति के लिए जल विभाग या जल मंत्रालयों पर निर्भर नहीं थे।
पूर्वजों द्वारा पेयजल संग्रहण की सदियों पुरानी उत्तम पद्धति बावड़ियां और कुएं आज भी मौजूद हैं। इन पारंपरिक जल स्रोतों के गुणवत्तायुक्त शुद्ध पेयजल का आज भी कोई विकल्प नहीं है। इनके जरिये हर गांव में जलतंत्र विकसित करके पूर्वजों ने अनूठी मिसाल कायम की थी। इन्सानों के अलावा जीव-जंतु और पशु-पक्षी की प्यास भी इन्हीं जल संसाधनों पर आकर मिटती थी। ग्रामीण संस्कृति से गहरा नाता रखने वाले पारंपरिक जल स्रोतों की कृषि अर्थ तंत्र को समृद्ध करने में भी मुख्य भूमिका रही है। कई धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन भी जलाशयों के तटों पर होता आया है। मगर विडंबना है कि आज खनन माफिया, उद्योगों और आग उगल रही फैक्टरियों से उत्पन्न जहरनुमा प्रदूषण से नदियों तथा प्राकृतिक जल स्रोतों का पानी दूषित हो चुका है। सरकारी हैंडपंप और पेयजल परियोजनाएं दम तोड़ रही हैं। इसलिए जल प्रबंधन की परिपाटी के उच्च स्तर, धार्मिक गौरव और आध्यात्मिक महत्व को समेटे इन जल स्रोतों का अस्तित्व बचाना होगा। इसके लिए हमें भी जिम्मेदारी निभानी होगी। सरकारें जल बचाने के लिए कोई पहल करती हैं तो हमें उसमें सहभागित करने की जरूरत है। यह हमारी व्यक्तिगत जरूरत भी है।
महाशक्ति बनने की ओर बढ़ते भारत को प्रतिभा के पलायन को लेकर गंभीरता से सोचने और काम करने की जरूरत है। यह बेहद चिंता का विषय है। भारत से लगातार बौद्धिक वर्ग का पालयन पश्चिमी देशों की तरफ हो रहा है। वह वहां के विकास में सहायक बनकर देश का नाम ऊंचा कर रहा है, लेकिन हमें तकनीकी और आर्थिक मोर्च पर आगे बढ़ना है तो गंभीरता से विचार करना होगा। इसमें जाने वालों का बिल्कुल भी दोष नहीं है। हम अपने सुशिक्षित वर्ग को आगे बढ़ाने में सहायक होने के बजाय अलग-अलग तरह की बाधाएं पैदा कर उनकी मेहनत पर पानी फेर देते हैं। उस स्थिति में यह वर्ग देश से पलायन का रास्ता अपनाता है और यह सिलसिला लगातार जारी है। इस वर्ग को कोई संरक्षण नहीं मिल रहा है। इससे योग्यता के मापदंड पीछे छूट जाते हैं। नौकरी के साथ भारत में अब उच्च शिक्षा के लिए भी पलायन बढ़ रहा है। यह और भी चिंताजनक है। जो बच्चे विदेशों में पढ़ाई करेंगे, जाहिर सी बात है कि उनमें से ज्यादातर नौकरी भी वहीं पर करेंगे। इसके अलावा हमारे देश में हर स्तर पर राजनीतिक दखलअंदाजी भी इसका बड़ा कारण है। देश में बड़ा मुकाम पाने के लिए आपको राजनीतिक शह की जरूरत होती है। इसके बिना आपका बहुत आगे बढ़ पाना आसान नहीं है, चाहे बात प्रशासन की हो या उच्च शिक्षा की। ऐसे में प्रतिभावान युवा कार्य संस्कृति के मामले में हमसे बेहतर पश्चिमी देशों का रुख कर रहा है। बुनियादी सुधार कब होंगे?