समाज को चलाने वाले दो पहिए की जरूरत होती है वह है स्त्री और पुरूष…….कहने को तो बड़ी बड़ी बातें….दोनों को बराबर हक है, समाज के विकास में दोनों का अहम हिस्सा है….दोनों अपने आप में बेहद महत्तवपूर्ण घटक हैं….लेकिन वास्तविकता इससे परे है……ये बात आज मुझे बताने की नहीं कि इस समाज को क्या कहा जाता है…. दोनों महत्तवपूर्ण पहिओं से बना समाज कब पुरूष प्रधान समाज बन गया……पता नहीं…….मैं बताऊं ये शुरू से ही पुरूष प्रधान ही रहा…..सवाल उठता है कि इसे पुरूष प्रधान होने की उपाधि किसने दी…..जाहिर सी बात है किसी स्त्री ने तो दी नहीं होगी…तो ये उपाधि खुद पुरूष वर्ग ने ही दे डाली…… सदियों से ये बाते चली आ रही है…स्त्री अबला है……वो कमजोर है..उसे मदद चाहिए…….उसे सुरक्षा चाहिए……पर सवाल उठता है स्त्री को सुरक्षा किससे चाहिए…….उसे मदद किसके लिए चाहिए……सोचेगें तो जवाब में उन्हीं का नाम होगा जो इस तरह के सुरक्षा मुहैया कराने की बातें करते हैं….जी हां महिलाओं को सुरक्षा इस तथाकथित पुरूष वर्ग से ही चाहिए………वो पुरूष जो अपने आप को सशक्त और स्त्री का सुरक्षा कवच बनने के बदले प्रधान की उपाधि तो पा लेता है…पर वो भूल जाता है कि स्त्री को नोंचने वाला भी वही है……..वरना भला किसी महिला को सुरक्षा की क्या जरूरत….. आधी आबादी का सच..!
आज भी पुरुषों के लिए कही जानेवाली कहावत- हर पुरुष की कामयाबी के पीछे महिला का हाथ होता है, काफ़ी हद तक अब भारतीय महिलाओं पर भी लागू होने लगी है. हमारे देश में यदि महिलाओं को प्रताड़ित करने वाले पुरुषों की कमी नहीं है, तो ऐसे पुरुषों की तादाद भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो महिलाओं की कामयाबी में अपना विशेष योगदान दे रहे हैं. आज ऐसी कई महिलाएं हैं, जिनकी सफलता में उनके पिता, पति, भाई, दोस्त आदि का विशेष योगदान रहा है. आइए, आपको मिलाते हैं कुछ ऐसी महिलाओं से, जिनकी कामयाबी में पुरुषों का विशेष योगदान रहा है. बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपनी संपत्ति में बेटी श्वेता नंदा को भी उतना ही हक़ दिया है, जितना अपने बेटे अभिषेक बच्चन को. ऐसा करके उन्होंने बेटा-बेटी में भेद मिटाने का सार्थक प्रयास किया है. बॉक्सर मैरी कॉम के करियर को आगे बढ़ाने में उनके पति का विशेष योगदान रहा है. मैरी कॉम जब नेशनल या इंटरनेशनल लेवल पर बॉक्सिंग करने जाती थीं, तो उनके पति बच्चों की देखभाल करते थे. भारत के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक की सबसे युवा और पहली महिला अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक अरुंधति भट्टाचार्य और उनके पति प्रीतिमोय भट्टाचार्य को करियर में बिज़ी रहने के कारण जब बेटी सुक्रिता की परवरिश में दिक़्क़त होने लगी, तो प्रीतिमोय ने आईआईटी, खड़गपुर में प्रोफेसरशिप की अपनी नौकरी छोड़ दी. यही वजह है कि अरुंधति अपनी कामयाबी का श्रेय अपने परिवार, ख़ासकर पति और बेटी को देती हैं.हरियाणा की पहलवान गीता और बबिता फोगट को कुश्ती के लिए उनके पिताजी महावीर फोगट ने हौसला दिया और क़दम-क़दम पर अपनी बेटियों का साथ दिया. एसिड अटैक पीड़िता लक्ष्मी पर यदि एक पुरुष ने एसिड फेंककर इतना अमानवीय काम किया, तो आलोक दीक्षित जैसे ज़हीन इंसान ने उसे अपना जीवनसाथी बनाया. निर्भया के साथ यदि चार दरिंदों ने हैवानियत की हद पार कर दी, तो रेप के व़क्त उसके साथ मौजूद उसके दोस्त अवनींद्र पांडेय ने न स़िर्फ उसके ज़िंदा रहते, बल्कि उसकी दर्दनाक मौत के बाद भी उसका साथ दिया.अवनींद्र ने निर्भया केस के मुजरिमों को सज़ा दिलाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की. स्कीइंग करते हुए अंटार्टिका साउथ पोल पहुंचनेवाली पहली भारतीय महिला रीना धर्मशक्तू को ये उपलब्धि शादी के बाद मिली और उनकी कामयाबी में उनके पति लवराज का विशेष योगदान है. रीना के अंटार्टिका जाने के फैसले और तैयारी में उनके पति लवराज का काफ़ी सहयोग रहा है और जब रीना अंटार्टिका के मिशन से लौटी, तो लवराज दिल्ली एअरपोर्ट पर बैंड-बाजा के साथ उनके स्वागत में खड़े थे. एक साल में दो बार एवरेस्ट पर चढ़ाई करनेवाली पहली भारतीय महिला संतोष यादव जब अपनी मां के गर्भ में थीं, तो उनकी दादी चाहती थीं कि उनके घर में बेटी का जन्म हो. हरियाणा के छोटे से गांव जौनियाबाद, रेवाड़ी की रहनेवाली संतोष यादव अपनी कामयाबी का क्रेडिट अपनी दादी और अपने पैरेंट्स को देती हैं.
महिलाएं भले ही आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन उनको लेकर आम नज़रिया अभी भी नहीं बदला है. आज भी अधिकतर माता-पिता को बेटी की पढ़ाई की बजाय अच्छे घर में उसकी शादी हो जाए, इस बात की चिंता ज़्यादा रहती है. बेटी की पढ़ाई से ज़्यादा उसकी शादी पर ख़र्च किया जाता है. बेटियों की पढ़ाई को आज भी बेटे जितना ज़रूरी नहीं समझा जाता. जारी है दहेज प्रथा का सिलसिला. विधवाओं और मां न बन पानेवाली महिलाओं को अभी भी अपशगुन माना जाता है. बाल विवाह अभी भी हो रहे हैं. लड़की की सुंदरता उसकी काबिलीयत से ज़्यादा ज़रूरी समझी जाती है. घरेलू हिंसा आज भी पढ़ी-लिखी महिलाएं तक झेल रही हैं.
यदि हम भारतीय महिलाओं के जीवन में आए सुधार की बात करें, तो इसमें भी काफ़ी सुधार आया है. राष्ट्रीय परिवार के स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार, घरेलू हिंसा के मामले 37% से घटकर 29% हो गए हैं. हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले एक दशक में बाल विवाह में 20% की कमी आई है.घरेलू निर्णय लेने के मामलों में महिलाओं की भागीदीरी में वृद्धि हुई है. हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में काफ़ी सुधार तो आया है, लेकिन अभी भी कई मोर्चों पर उनका संघर्ष जारी है. सर्वेक्षण के अनुसार भारत में, प्रति 1,000 लड़कों पर 943 लड़कियां हैं. विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 27% महिलाएं ही कामकाजी हैं. इसमें भी ताज्जुब की बात ये है कि शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाएं अधिक कामकाजी हैं. पढ़ी-लिखी महिलाओं में से 50% महिलाएं आज भी चौके-चूल्हे तक ही सीमित हैं. यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 15 साल से 19 साल की उम्र वाली 34% विवाहित महिलाएं अपने पति या साथी के हाथों शारीरिक या यौन हिंसा झेलती हैं. भारत में हर एक घंटे में लगभग 22 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं. ये वे आंकड़े हैं, जो पुलिस द्वारा दर्ज किए जाते हैं. अधिकांश मामले में तो पुलिस रिपोर्ट दर्ज ही नहीं करती और लोकलाज के कारण भी पीड़िता के परिवारवाले ऐसी घटनाओं को दबा देते हैं.
भारत को पुरुष प्रधान और महिलाओं के लिए असुरक्षित देश कहा जाता है और भारतीय महिलाओं को अबला-असहाय, लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? क्या हमारा देश आज भी महिलाओं के लिए नहीं बदला है? क्या भारतीय महिलाओं की स्थिति आज भी दयनीय है…? आधी आबादी का सच..!
आज भी सच्चाई यही है कि महिलाओं का संघर्ष तो मां की कोख से ही शुरू हो जाता है. जब एक महिला की कोख में दूसरी महिला के जीवन का अंकुर फूटता है तो दो महिलाओं के संघर्ष की शुरुआत होती है. एक संघर्ष उस नये जीवन का जिसे धरती पर आने से पहले ही रौंदने की कोशिश शुरू हो जाती है और दूसरा संघर्ष उस मां का जो जीवन को धरती पर लाने का जरिया है. इस सामाजिक संघर्ष के अलावा एक संघर्ष और जो उसका शरीर करता है. कुपोषण में 9 महीने तक पल-पल अपने खून अपनी आत्मा से अपने भीतर पलती जिंदगी का, उसकी मानसिक स्थिति को कौन समझ पाता है यह सब कुछ समय घट रहा है. यह सब उसे समय घट रहा है जबकि हमारे यहां लड़कियों, महिलाओं की पूजा होती और नदियों को भी मां कहा जाता है. आधी आबादी का सच..!
वर्तमान समय में लोकसभा की 543 सीटों में 74 पर महिला चुनाव जीती है.जिनमें से 43 महिलाएं पहली बार चुनाव जीतकर आई है.वहीं राज्यसभा में 245 सीटों में 27 सीटों पर महिलाओं का कब्जा है.पुरुष प्रधान समाज अगर महिलाओं को बराबर भागीदारी देना चाहे तो उनकी संख्या भी बढ़ सकती है.जिस प्रकार से 18वीं लोकसभा में 43 महिलाएं पहली बार चुनाव जीतकर आई हैं उससे आभास होता है कि महिलाओं को मौका ही नहीं मिलता है तो प्रदर्शन कैसे करें. उत्तर प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों में 47 पर महिलाओं का कब्ज़ा है जो अबतक का इतिहास है.
भारत का संविधान हर व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष एक ही नज़र से देखता है. भारत के संविधान में सभी एक बराबर हैं.मगर समाज ने जिस तरह से महिलाओं के प्रति हीन भावना रखी है उस ने एक लंबे वक्त तक महिलाओ को असहज रखा हुआ है.विगत 100 वर्षों से अधिक समय से महिला दिवस प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है और उन्हें सम्मानित भी किया जाता है. जीवन और समानता का अधिकार देने का संकल्प भी लिया जाता है. उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए नए-नए नियम और नीतियां भी बनाई जाती हैं लेकिन विचारणीय यह है कि महिलाओं की स्थिति में बुनियादी तौर पर आज कितना सुधार आया है. हमारे देश को आजाद हुए 75 साल का समय हो गया है. आज हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं.हमारा देश भी दुनिया के साथ-साथ महिलाओं के अच्छे जीवन के लिए प्रयासरत है.यह भी गर्भ की बात है कि महिलाएं आज हर क्षेत्र में अपनी पूरी क्षमता और उत्कृष्टता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करने में पीछे नहीं है. महिलाएं अपनी प्रतिभा का लोहा भी बनवा चुकी हैं. फिर भी पुरुष प्रधान समाज आज भी उनके साथ समानता का व्यवहार करने में बहुत उत्साहित नजर नहीं आता है. महिलाओं के स्वतंत्रता, समानता, इज्जत और सम्मान की जिंदगी जीने के साथ-साथ आर्थिक आत्मनिर्भरता का उनका सपना आज भी कठिनाइयां से भरा होता है. आखिर कब भारत में पुरुषों के समान महिलाओं को भी बराबरी का हक मिलेगा.आज भी ज्यादातर महिलाएं ग्रहणी बनकर ही अपना जीवन यापन कर रही हैं.आप चाहे विधानसभा देखें, लोकसभा देखें,विधान परिषद देखें, राज्यसभा देखें महिलाओं की भागीदारी उनके अनुपात के अनुसार कहीं नहीं हो पाती है. पुरुष प्रधान हमेशा उन्हें दबाकर ही रखना चाहता है.यह अपवाद है कि भारत का राष्ट्रपति वर्तमान समय में एक महिला हीहै. लेकिन उसकी भागीदारी कितना है यह विचारणीय है. आधी आबादी का सच..!