

भारतीय संस्कृति में नारी को “शक्ति” और “मातृभूमि” का प्रतीक माना गया है। संघ परिवार ने इस भाव को राष्ट्र सेविका समिति और अन्य गतिविधियों के माध्यम से मूर्त रूप दिया है। अब जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में स्त्री-शक्ति की अनिवार्यता को स्वीकार कर रहा है, तो यह न केवल संगठनात्मक दृष्टि से, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और समाज की प्रगति के लिए भी महत्वपूर्ण संकेत है।मोहन भागवत का यह कथन-“मातृशक्ति के बिना राष्ट्र अधूरा है”-दरअसल आने वाले भारत की दिशा तय करता है। यह वह भारत होगा जहाँ स्त्रियाँ केवल सहयोगी नहीं, बल्कि समान अधिकारों और अवसरों के साथ राष्ट्रनिर्माण की सहनिर्मात्री होंगी। संघ का शताब्दी वर्ष: आपातकाल की ज्वाला से सेवा की ज्योति तक
भारतीय लोकतंत्र का इतिहास स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज तक कई कठिन दौरों से गुज़रा है। इन संघर्षों ने न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था को परखा, बल्कि संगठनों और सामाजिक शक्तियों की भूमिका को भी रेखांकित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जिसकी स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार ने की थी, ने इस यात्रा में विशेष स्थान बनाया। संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, सामाजिक समरसता और सेवा के क्षेत्र में अपने कार्यों के माध्यम से राष्ट्रनिर्माण में योगदान दिया। लेकिन 1975-77 का आपातकाल उस दौर का सबसे अंधकारमय अध्याय था, जब नागरिक स्वतंत्रताएँ छीन ली गईं, प्रेस पर ताले जड़ दिए गए और लाखों लोगों को जेलों में ठूँस दिया गया। किंतु 1975-77 का आपातकाल इसकी सबसे बड़ी परीक्षा सिद्ध हुआ। लोकतंत्र को कुचलने का यह प्रयास दरअसल भारतीय जनता की सहनशीलता और संगठनों की शक्ति की परीक्षा भी था।
जनता पार्टी की विजय और इंदिरा गांधी की हार ने यह स्पष्ट कर दिया कि लोकतंत्र किसी एक व्यक्ति या दल की संपत्ति नहीं, बल्कि जनता की सामूहिक चेतना का परिणाम है। आपातकाल का संघर्ष संघ की संगठनात्मक क्षमता और राष्ट्रनिष्ठा का प्रतीक बन गया। आज जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो यह केवल अतीत की स्मृति नहीं बल्कि भविष्य की दिशा का भी निर्धारण है। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास, पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक समरसता के क्षेत्र में संघ की पहल यह दर्शाती है कि संगठन की शक्ति सेवा और राष्ट्रनिर्माण में कितनी उपयोगी हो सकती है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। 1975 के आपातकाल के दौरान लाखों स्वयंसेवकों ने जेल यातनाएँ सही और भूमिगत रहकर लोकतंत्र की रक्षा की। यह संघर्ष केवल संगठन की शक्ति का प्रमाण नहीं था, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को गहराई से सींचने वाला अध्याय भी था। संघ ने आपातकाल की ज्वाला से निकलकर समाज सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास और राष्ट्रीय एकता के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए। शताब्दी वर्ष का उत्सव अतीत की गौरवगाथा और भविष्य के भारत निर्माण का संकल्प है। – डॉ. सत्यवान सौरभ भारत का आधुनिक इतिहास अनेक उतार-चढ़ावों और संघर्षों से भरा हुआ है। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर आज़ादी के बाद लोकतंत्र की रक्षा तक, कई संगठन और व्यक्तित्व देश की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) एक ऐसा संगठन है जिसने न केवल राष्ट्र निर्माण के सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र में योगदान दिया, बल्कि कठिनतम परिस्थितियों में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए भी अग्रणी भूमिका निभाई।
विशेष रूप से 1975-77 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी परीक्षा थी। इस कालखंड ने संघ की संगठनात्मक क्षमता, साहस और राष्ट्रनिष्ठा को परखने का अवसर दिया। आज जबकि संघ अपने शताब्दी वर्ष (2025-26) की ओर बढ़ रहा है, यह स्मरण करना स्वाभाविक है कि आपातकाल के समय किए गए संघर्ष ने भारतीय राजनीति और समाज को किस प्रकार नई दिशा दी। आपातकाल की पृष्ठभूमि 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा की। आधिकारिक रूप से इसका कारण आंतरिक अशांति बताया गया, परंतु वास्तविक कारण राजनीतिक था। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया था, जिससे उनके प्रधानमंत्री पद पर संकट आ गया था। सत्ता बचाने के लिए उन्होंने संविधान की मूल भावना को ही दरकिनार करते हुए आपातकाल लागू कर दिया। इस दौरान नागरिक स्वतंत्रताएँ समाप्त कर दी गईं।
प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई, विरोध करने वाले लाखों लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया। विपक्षी दलों के नेताओं के साथ-साथ सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक अंधकारमय काल था। संघ की परीक्षा और संघर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उस समय एक विशाल संगठन था। लाखों स्वयंसेवक गाँव-गाँव, शहर-शहर सामाजिक सेवा और राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने में लगे हुए थे। आपातकाल लागू होते ही सरकार ने संघ को भी प्रतिबंधित कर दिया। हजारों स्वयंसेवक जेलों में डाल दिए गए। अनुमान है कि 1,00,000 से अधिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया और लगभग 30,000 से अधिक स्वयंसेवक भूमिगत होकर गुप्त रूप से आंदोलन चलाते रहे।
संघ की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि उसने भयभीत हुए बिना लोकतंत्र की रक्षा का बीड़ा उठाया। जहां विपक्षी दलों के कई नेता जेलों में बंद थे, वहीं संघ के स्वयंसेवक भूमिगत होकर जनता को जागरूक कर रहे थे। वे गुप्त पत्रक निकालते, संदेश पहुँचाते और सत्याग्रह के माध्यम से जनता में प्रतिरोध की भावना जगाते। यह संगठनात्मक अनुशासन और साहस ही था कि पूरे देश में लोकतंत्र बचाने का अभियान जीवित रहा। भूमिगत आंदोलन और संगठनात्मक क्षमता आपातकाल के दौरान संघ ने अपनी मजबूत शाखा व्यवस्था और अनुशासित संगठन का उपयोग किया। हजारों कार्यकर्ताओं ने भूमिगत रहते हुए आंदोलन की मशाल जलाए रखी। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, नागपुर, कोलकाता, चेन्नई और लखनऊ जैसे बड़े शहरों से लेकर गाँव-गाँव तक संदेश पहुँचाए जाते रहे। केंद्र सरकार ने बार-बार यह दावा किया कि विरोध समाप्त हो चुका है, लेकिन संघ की गुप्त गतिविधियों ने सरकार की नींद हराम कर दी। यही कारण था कि इंदिरा गांधी सरकार ने संघ को विशेष रूप से निशाना बनाया और इसे कुचलने के लिए पूरी ताकत लगा दी। परंतु सत्य यह है कि जितना दमन बढ़ता गया, उतनी ही ताक़त से संघ का प्रतिरोध भी बढ़ता गया। लोकतंत्र की बहाली और जनता पार्टी की सरकार आपातकाल की 21 महीनों की अवधि ने जनता को यह सिखा दिया कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र का महत्व क्या होता है।
जब 1977 में चुनाव की घोषणा हुई, तो पूरे देश में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश फूट पड़ा। संघ के स्वयंसेवकों ने विपक्षी दलों के नेताओं के साथ मिलकर चुनाव प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जनता पार्टी का गठन हुआ और उसे अप्रत्याशित विजय मिली। इंदिरा गांधी की करारी हार हुई। यह भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक मोड़ था, जहां संघ ने न केवल लोकतंत्र की रक्षा की बल्कि एक वैकल्पिक राजनीतिक धारा को भी मजबूत आधार प्रदान किया। समाज पर आपातकाल का प्रभाव आपातकाल का एक बड़ा सकारात्मक पहलू यह रहा कि इसने जनता को जागरूक कर दिया। नागरिक स्वतंत्रताओं के महत्व का बोध हुआ और लोकतंत्र की रक्षा का संकल्प और मजबूत हुआ। संघ ने इस जागरूकता को स्थायी बनाने के लिए समाज में व्यापक अभियान चलाए। आज भी जब लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चर्चा होती है, तो आपातकाल का उदाहरण दिया जाता है। यह कालखंड इस बात का प्रतीक है कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में सत्ता के दमन के विरुद्ध संगठित प्रतिरोध आवश्यक है। संघ की वर्तमान भूमिका और शताब्दी वर्ष का महत्व संघ आज अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है।
1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में डॉ. हेडगेवार द्वारा स्थापित इस संगठन ने बीते सौ वर्षों में सेवा, संगठन और राष्ट्र निर्माण का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपातकाल के संघर्ष ने संघ की छवि को और भी प्रखर बनाया। आज संघ केवल शाखाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास, आपदा प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता जैसे अनेक क्षेत्रों में कार्यरत है। शताब्दी वर्ष के अवसर पर संघ ने व्यापक जनजागरण अभियान की योजना बनाई है। देशभर में लाखों स्वयंसेवक घर-घर जाकर संपर्क करेंगे। समाज के हर वर्ग तक पहुँचने का प्रयास होगा ताकि राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक जागरण को और मजबूत किया जा सके। संघ का संघर्ष और समर्पण आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे कठिन परीक्षा थी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर यह सिद्ध कर दिया कि संगठन की शक्ति ही परिवर्तन की सच्ची साथी होती है।
हजारों स्वयंसेवकों ने जेल की यातनाएँ सहीं, भूमिगत रहकर संघर्ष किया और लोकतंत्र की लौ बुझने नहीं दी। आज जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो यह केवल एक संगठन का उत्सव नहीं है बल्कि राष्ट्र की उस जीवटता का प्रतीक है जिसने हर संकट में लोकतंत्र और स्वतंत्रता को सर्वोपरि रखा। आपातकाल का संघर्ष आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत है और यह संदेश देता है कि परिवर्तन की धारा को कोई भी सत्ता, कोई भी दमन लंबे समय तक रोक नहीं सकता। इस शताब्दी वर्ष में संघ केवल अतीत की गौरवगाथा का स्मरण ही नहीं कर रहा, बल्कि भविष्य के भारत के निर्माण की दिशा भी तय कर रहा है। एक ऐसा भारत जो सांस्कृतिक रूप से समृद्ध, सामाजिक रूप से समरस, और राजनीतिक रूप से सशक्त हो।
शताब्दी वर्ष का महत्व
अब जबकि संघ अपने शताब्दी वर्ष (2025-26) में प्रवेश कर रहा है, आपातकाल का संघर्ष उसकी गौरवगाथा का अभिन्न अध्याय बन चुका है। आज संघ शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्राम विकास, पर्यावरण संरक्षण, आपदा प्रबंधन, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता जैसे क्षेत्रों में कार्यरत है। शताब्दी वर्ष का आयोजन केवल स्मृति भर नहीं है, बल्कि भविष्य के भारत के निर्माण की दिशा तय करने का अवसर है।
आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की सबसे कठिन परीक्षा थी। इस परीक्षा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने संगठनात्मक शक्ति,अनुशासन और राष्ट्रनिष्ठा के बल पर यह सिद्ध किया कि कोई भी दमन लोकतंत्र की ज्योति को बुझा नहीं सकता। आज शताब्दी वर्ष का उत्सव केवल संघ का नहीं, बल्कि उस जीवटता का प्रतीक है जिसने हर संकट में लोकतंत्र और स्वतंत्रता को सर्वोपरि रखा। आपातकाल की ज्वाला से निकली यह सीख आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है कि सत्ता चाहे कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, संगठित समाज और जागरूक जनता ही लोकतंत्र की अंतिम गारंटी है।
शताब्दी का यह उत्सव हमें स्मरण कराता है कि लोकतंत्र केवल काग़ज़ पर लिखे अधिकारों का नाम नहीं, बल्कि निरंतर सतर्कता और संघर्ष की मांग करने वाली प्रक्रिया है। आपातकाल की ज्वाला से निकली यह सीख आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है कि सत्ता का दमन चाहे कितना भी प्रबल क्यों न हो, लोकतंत्र की ज्योति कभी बुझाई नहीं जा सकती। संघ का शताब्दी वर्ष: आपातकाल की ज्वाला से सेवा की ज्योति तक