मंडल के पहले व बाद में ओबीसी की स्थिति

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अनुसूचित जनजातियां आदेश (संशोधन) विधेयक 2024 पारित
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मंडल कमीशन के लागू होने से पहले 1980 में ग्रुप -ए की नौकरियों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 5 प्रतिशत से भी कम था और उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व करीब 90 प्रतिशत। 20 दिसम्बर,1978 को मण्डल कमीशन के गठन को अंतिम रूप देकर यादव बिरादरी के बाबू बिंदेश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में किया गया। 1 जनवरी,1979 से मण्डल आयोग ने जातीय अध्ययन का काम शुरू किया।मंडल आयोग ने सिफारिशों सहित अपनी रिपोर्ट मार्च 1980 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी। 13 अगस्त, 1990 को मण्डल कमीशन की पहली सिफारिश के अनुसार ओबीसी को सरकारी सेवाओं में 27 प्रतिशत कोटा की अधिसूचना जारी की गई। इस रिजर्वेशन के खिलाफ ऊंची जाति की इंदिरा साहनी व अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दिया।लालू प्रसाद यादव जी ने तमाम वकीलों से मण्डल कमीशन की पैरवी मुँह माँगी फीस लेकर करने का आग्रह किया,पर कोई सवर्ण वकील तैयार नहीं हुआ।अंत में लालू प्रसाद यादव जी किसी तरह क्रिमिनल लॉयर राम जेठमलानी को तैयार किया।जिन्होंने न्यायालय में जमकर बहस किये। 16 नवम्बर,1992 को 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण कोटा को संवैधानिक व न्यायिक वैधता मिली।ओबीसी को आरक्षण कोटा का नोटिफिकेशन पीवी नरसिंहा राव की सरकार ने 10 सितंबर, 1993 को जारी किया। मंडल के पहले व बाद में ओबीसी की स्थिति

ओबीसी को राजनीतिक आरक्षण नहीं है। भारत के पार्लियामेंट में, सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व ओबीसी का 1990 की पार्लियामेंट में था, उस समय ओबीसी समाज के 25% सांसद चुनकर आए थे।1990 से पहले ओबीसी का संसद में प्रतिनिधित्व बहुत कम था। 2019 के संसद में प्रतिनिधित्व फिर घट गया है। सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा है उच्च जातियों के प्रतिनिधित्व का, जिनकी आबादी 10 से 15% के बीच में मानी जाती है उनका अभी की पार्लियामेंट में 44% प्रतिनिधित्व है जो स्वाभाविक रूप से ओबीसी की कीमत पर है।”द हिंदू” ने पिछले साल एक रिपोर्ट छापी और बताया कि भारत के कैबिनेट सचिवालय के 64 सचिवों में से एक भी सचिव ओबीसी नहीं था।2014 से पहले भारत के हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में नामित 500 न्यायाधीशों में से केवल 5 ओबीसी के थे।भारत की मीडिया हाउस के सारे मालिक सवर्ण ही हैं और उनमें एक भी संपादक ओबीसी का नहीं है।

भारत में लोकतंत्र के चार मुख्य स्तंभ हैं, जिसमें विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता को गिना जाता है। भारत का समाज चार वर्णों में बॅटा हुआ है इसके अलावा, पंचम वर्ण है जिसे अति शूद्र कहा जाता है, जिसके साथ छुआछूत का अमानवीय व विकृत कलंक जुड़ा हुआ है।आदिवासी समाज भी वर्ण व्यस्था से बाहर था। बाबासाहब डॉ.भीमराव अंबेडकर वर्ण व्यवस्था को एक चौ मंजिला इमारत की तरह देखते थे।वह कहते थे कि ‘यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें नीचे का आदमी ऊपर नहीं जा सकता और ऊपर का आदमी नीचे नहीं आ सकता, जो जहां पर है वहीं अपनी यथास्थिति में बंद है’। प्रख्यात समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया जाति को कैंसर की बीमारी की तरह देखते थे।समाजवादी चिंतक मस्तराम कपूर कहते थे कि जाति एक ऐसी इंश्योरेंस पॉलिसी की तरह है जो बिना प्रीमियम के रिटर्न देती है’। भारत की अभी की 2019 की संसद में 15% आबादी वाली जातियों का 44% प्रतिनिधित्व है, ओबीसी की 52% आबादी वाले समाज का 20% प्रतिनिधित्व है।


भारत की कैबिनेट सचिवालय में 64 सचिवों में एक भी सचिव ओबीसी नहीं है। 89 सचिवों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व शून्य है और 91 अतिरिक्त सचिवों में 4 ओबीसी व 10 एससी/एसटी,245 संयुक्त सचिवों में 29 ओबीसी व 26 एससी/एसटी हैं। मंडल के पहले व बाद में ओबीसी की स्थिति

2014 से पहले भारत के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के 500 जजों में आदिवासी जज कोई नहीं था, शेड्यूल कास्ट व ओबीसी से 5- जज व 12 मुस्लिम थे।वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के 33 जजों में 11 ब्राह्मण,8 वैश्य,5 क्षत्रिय,4 कायस्थ,2 एससी व 1-1 ओबीसी, मुस्लिम व ईसाई हैं। पत्रकारिता को जनता की आवाज माना जाता है लेकिन वहां 95% अंग्रेजी और हिंदी पत्र-पत्रिकाओं, टीवी चैनलों के संपादक भारत की ऊंची जातियों से हैं,ओबीसी,एससी,एसटी से कोई संपादक नहीं है, ओबीसी और एससी का पत्रकारिता के क्षेत्र में न के बराबर प्रतिनिधित्व है।1931 की जातिगत जनगणना के अनुसार ओबीसी की 52.10% आबादी थी।1999 के बाद तमाम जातियों को इस सूची में जोड़ने से यह संख्या और अधिक हो गयी है। पिछली भाजपा सरकार के समय गठित उत्तर प्रदेश सामाजिक न्याय समिति-2001 की रिपोर्ट के अनुसार ओबीसी की संख्या 54.05% थी।सामान्य वर्ग की जातियों की संख्या-20.94% थी, जिसमें मुस्लिम सामान्य वर्ग (शेख, सैय्यद, पठान, मुगल, मिल्की,त्यागी आदि) की जातियाँ भी शामिल थीं।


अविभाजित उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में सवर्ण-

20.50%(ब्राह्मण-9.2%, राजपूत-7.2%, वैश्य-2.5%, कायस्थ-1.0%, भूमिहार-0.04%, खत्री-0.1%, त्यागी-0.1%) थी।अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों की संख्या-21.34% थी। इस दृष्टि से ओबीसी की संख्या 58.16% थी। उत्तराखंड के अलग होने से जहाँ उत्तर प्रदेश में ओबीसी व एससी की संख्या बढ़ गयी होगी, वही एसटी व सवर्ण की घट गई होगी। ओबीसी एससी एसटी की प्रजनन दर भी उच्च जातियों की तुलना में कहीं ज्यादा है, यह भी एक कारण है कि ओबीसी, एससी, एसटी की संख्या में बढ़ोतरी हुई होगी।
1999 में जाट,कुरुबा, कोर्चा,वोक्कालिगा,लिंगायत व कलवार आदि को ओबीसी की सूची में शामिल करने से उत्तर प्रदेश में ओबीसी की संख्या 60% से अधिक हो गयी है।केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने वादा करने के बाद भी 2011 में जातिगत जनगणना नहीं कराई और सेन्सस-2021 में ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने का वादा करने के बाद वर्तमान सरकार भी पीछे हट गई है, जो असंवैधानिक है। आखिर ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने से कौन सी राष्ट्रीय क्षति हो जाएगी, जबकि सही मायनों में राष्ट्र निर्माण केवल ओबीसी की जाति जनगणना कराके ही संभव है।


सेन्सस-2011 के अनुसार एससी,एसटी,धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी) के साथ ही साथ दिव्यांग व ट्रांसजेंडर की जनसंख्या की घोषणा कर दी गयी, पर ओबीसी की जनसंख्या घोषित नहीं की गई, जो ओबीसी समाज के साथ अन्याय है।1953 में स्थापित पहले ओबीसी कमिशन काका कालेलकर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में महिलाओं व ओबीसी वर्ग के बच्चों के लिए 70% सारे शैक्षणिक संस्थाओं में रिजर्वेशन की संस्तुति की थी व इसी कमीशन ने ग्रुप ए की नौकरियों में 25% रिजर्वेशन व ग्रुप बी में 33%, सी, डी की नौकरियों में 40% रिजर्वेशन की संस्तुति की थी, जिसे उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृह मंत्री जी बी पंत द्वारा नकार दिया गया, बहाना उचित डेटा की अनुपलब्धता और समाज के जाति के आधार पर टूटने का डर बताया गया, इसके बाद कांग्रेस की सरकार ने कोई ओ बी सी कमीशन नहीं बनाया।


1978 में सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने माननीय श्री बी पी मंडल की अगुवाई में दूसरा ओबीसी कमीशन बनाया, जिसने ठीक 2 साल बाद अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट सरकार को सौंपी। लेकिन दुर्भाग्यवश तब तक जनता पार्टी की सरकार गिर गई। 1990 में जनता पार्टी से टूटकर बने जनता दल की सरकार बनी,जिसके प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने मंडल कमीशन की 40 में से केवल एक व दूसरी को 2007 में अर्जुन सिंह ने लागू किया। वीपी सिंह सरकार ने 13 अगस्त,1990 को 27 प्रतिशत कोटा की अधिसूचना जारी किया।सवर्णों ने उच्चतम न्यायालय में विरोध में याचिका दायर कर दिया,जिस पर न्यायालय ने 1 अक्टूबर,1990 को रोक लगा दिया। ओबीसी रिजर्वेशन का यह प्रसिद्ध मामला इंदिरा साहनी केस के नाम से जाना जाता है, 1993 में 9 न्यायाधीशों की बेंच ने दो तिहाई बहुमत से अपना निर्णय सुनाया और ओबीसी रिजर्वेशन को जायज पाया।लेकिन उन्होंने ओबीसी रिजर्वेशन के साथ क्रीमी लेयर की शर्त भी साथ लगाई, जिसका परिणाम यह हुआ है कि जो ओबीसी में पढ़ सकता है वह क्रीमी लेयर में आता है, जो क्रीमी लेयर में नहीं आता है वह पढ़ नहीं सकता है, (मतलब उसकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय होती है कि वह हायर एजुकेशन पूरी नहीं कर पाता।)


मंडल कमीशन बनने से पहले ओबीसी का ग्रुप-ए की नौकरियों में प्रतिनिधित्व करीब 5% के आसपास था, मंडल कमीशन लागू होने के 30 साल बाद भी कमोबेश यही स्थिति है जो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। मंडल कमीशन के लागू होने से पहले ओबीसी का पूरी नौकरियों में प्रतिनिधित्व (ग्रुप ए बी सी डी की पूरी सर्विस मिलाकर) 12:50 % था, जो 30 साल बाद 2021 में भारत सरकार की रिपोर्ट के हिसाब से 21% के करीब है।


भारत की आजादी के 75 वर्ष बाद अमृत महोत्सव पर भारत के वंचित तबकों में शेड्यूल कास्ट का नौकरियों में प्रतिनिधित्व 17.70% ,शेड्यूल ट्राइब का 6.72% और ओबीसी का 20.26% है। ओबीसी के निर्धारित 27% के कोटे में अभी भी 5: 43% पद भरे नहीं जा सके हैं, यह पद तब खाली हैं, जब ओ बी सी के युवा निराश हताश जीवन जीने को मजबूर हैं। ग्रुप-1 में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 16.88% व ग्रुप-2 में 15.77%,ग्रुप-1 में एससी का प्रतिनिधित्व 12.86% ,ग्रुप-2 में 16.66%,एसटी का प्रतिनिधित्व ग्रुप-1 में 5.64%,ग्रुप-2 में 6.55% व सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व ग्रुप-1 में 64.58%,ग्रुप-2 में 61.0%,ग्रुप-3 में 52.29% व ग्रुप-4 में 39.46% है,जो मार्च 2022 के सरकारी आँकड़े के अनुसार है।


बिहार सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराकर 2 अक्टूबर को जातीय आँकड़ों को सार्वजनिक कर दिया है।बिहार सरकार के कास्ट सेन्सस के बताया देश की राजनीतिक गलियारे में चर्चा तेज हो गयी है,अन्य राज्यों में जातिगत जनगणना की मांग तेज हो गयी है,भाजपा हलकान में है।जनगणना के साथ अब समानुपातिक आरक्षण कोटा की भी मांग होने लगी है। भाजपा को फर्श से अर्श तक पहुँचाने में पिछड़ो,अतिपिछङों,अतिदलितों की मुख्य भूमिका रही है। पिछङों को साथ बनाए रखने के लिए भाजपा नयी रणनीतिक चालों पर कवायद तेज कर दिया है।सम्भावना है कि पिछड़ावर्ग को तीतर बीतर करने के लिए जस्टिस रोहिणी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय पिछड़ावर्ग उपवर्गीकरण जाँच आयोग और उत्तर प्रदेश सरकार जस्टिस राघवेन्द्र कुमार की अध्यक्षता वाली उत्तर प्रदेश अन्य पिछड़ावर्ग सामाजिक न्याय समिति-2018 की सिफ़ारिशों को लागू कर सकती है। बिहार के जाति-आधारित जनगणना के बाद ओबीसी संगठनों द्वारा “जिसकी जितना संख्या भारी,उसकी उतनी हिस्सेदारी” की मांग तेज हो गयी है। मंडल के पहले व बाद में ओबीसी की स्थिति


चौ. लौटनराम निषाद
(लेखक – सामाजिक न्याय चिन्तक व सामाजिक-राजनीतिक समीक्षक व विश्लेषक हैं। यह लेखक के अपने विचार हैं)