

वैज्ञानिक ढंग से हो श्रद्धालुओं की भीड़ का प्रबंधन,पर्यटन तीर्थस्थलों में हादसे।हर आस्था स्थली पर करोड़ों की संख्या में लोग पहुँचते हैं – बोलते हैं “जय श्री राम”, “हर-हर महादेव”, “जय माता दी”… लेकिन सवाल यह है — क्या प्रशासन हर साल उतनी ही श्रद्धा और वैज्ञानिक तैयारी से तैयार होता है..? तीर्थस्थलों पर आस्था का नहीं, व्यवस्था का इम्तिहान है! हर साल हादसे क्यों? कब सुधरेगा तीर्थस्थलों का भीड़ प्रबंधन..? तीर्थयात्रा का वैज्ञानिक प्रबंधन ज़रूरी..
देश के तीर्थस्थलों व मेलों में हादसों का सिलसिला निरंतर जारी है। निस्संदेह, ऐसे हादसे अफवाह व संकरे आवागमन मार्गों के चलते होते हैं। बढ़ती भीड़ के मद्देनजर प्रबंधन वैज्ञानिक तरीके से होना चाहिए। साथ ही अधिकारियों की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। पर्यटन क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख स्रोत और रोजगारपरक क्षेत्र है। देश को तीन प्रकार के पर्यटन से आय प्राप्त होती है। विदेशी पर्यटकों के आगमन से देश को विदेशी मुद्रा मिलती है और अनेक लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होते हैं। इस प्रायद्वीपीय और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर देश में तीन प्रमुख प्रकार के पर्यटन प्रचलित हैं। पहला, रमणीय पर्यटन, जिसमें पर्यटक दर्शनीय स्थलों का आनंद लेने आते हैं। दूसरा, चिकित्सीय (मेडिकल) पर्यटन, जिसमें विदेशी रोगी भारत में बेहतर और सस्ती चिकित्सा सुविधाओं के कारण आते हैं। तीसरा, धार्मिक पर्यटन है। धार्मिक आस्था से ओतप्रोत इस देश में श्रद्धालुओं की धर्मस्थानों पर निरंतर भीड़ रहती है। विशेषकर सावन जैसे पवित्र महीनों में धार्मिक स्थलों पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है, जिससे यह पर्यटन और भी सक्रिय हो जाता है।
धार्मिक श्रद्धालुओं का जमावड़ा कभी कम नहीं होता। कई बार भगदड़ जैसी घटनाओं में हृदयविदारक समाचार मिलते हैं, फिर भी पहले से भी अधिक भीड़ जुट जाती है। किसी भी प्रकार की दुर्घटना श्रद्धालुओं के उत्साह को कम नहीं कर पाती। लोग आस्था के समर्पण में इतने लीन रहते हैं कि यह देख कर आश्चर्य होता है कि देश धर्मस्थलों के प्रति कितना समर्पित है। सनातन धर्म में यह विश्वास है कि मंदिरों में साक्षात परमात्मा साकार रूप में विराजमान होते हैं। यही विश्वास करोड़ों श्रद्धालुओं को धर्मस्थलों की ओर आकर्षित करता है।
लेकिन आस्था को समर्पित इस देश में, विशेषकर सावन के पावन महीने में, हाल ही में लगातार जो दुर्घटनाएं हुईं, उनमें कई लोगों ने अपनी जान गंवाई और अनेक गंभीर रूप से घायल हुए। जब इन घटनाओं के कारणों की पड़ताल की जाती है, तो या तो बेबुनियाद अफवाहें सामने आती हैं, या फिर प्रशासनिक लापरवाही उजागर होती है। कभी-कभी श्रद्धालुओं की जल्दबाज़ी और पहले दर्शन की होड़ में की गई धक्का-मुक्की भी भगदड़ का कारण बन जाती है। ऐसी भगदड़ों में लोगों के कष्टों का कोई अंत नहीं होता — जानें जाती हैं, लोग घायल होते हैं, परिवार उजड़ते हैं।
बीते 27 जुलाई को उत्तराखंड के हरिद्वार स्थित मनसा देवी मंदिर में मची भगदड़ में कुछ श्रद्धालुओं की मौत हो गई, जबकि 36 श्रद्धालु घायल हो गए। बताया गया कि सीढ़ियां चढ़ते समय एक खंभे से जुड़े शॉर्ट सर्किट की अफवाह फैली, जिससे लोग घबरा गए और हड़बड़ी में पीछे हटने लगे। ये घटनाएं यहीं खत्म नहीं होतीं। गत 28 जुलाई को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी स्थित अवसानेश्वर मंदिर में भी भगदड़ की एक और दुखद घटना घटी। जलाभिषेक के दौरान करंट फैलने से दो लोगों की मौत हो गई और 29 श्रद्धालु घायल हो गए।
घटना के तुरंत बाद मंदिर की बिजली काटनी पड़ी, जिससे गर्भगृह में अंधेरा छा गया। इसके बावजूद श्रद्धालु अंधेरे में ही दर्शन और जलाभिषेक करते रहे। इसी दौरान, एक मंत्री के मंदिर में पुष्पवर्षा करने की खबर फैल गई, और देखते ही देखते वहां तीन लाख से अधिक लोग जुट गए। अत्यधिक भीड़ के कारण भगदड़ मच गई, और एक बार फिर हादसा सामने आया। इस तरह की घटनाओं का एक सिलसिला बनता जा रहा है। भारी भीड़ में आगे बढ़ने की होड़ के बीच जब कोई अफवाह फैला दी जाती है तो लोग घबरा जाते हैं और इधर-उधर भागने लगते हैं।
यह कहना भी गलत होगा कि भगदड़ केवल अफवाहों के कारण होती है। प्रशासन की लापरवाही भी इन घटनाओं का एक प्रमुख कारण है। जब किसी मेले या धार्मिक आयोजन में भारी भीड़ जुटनी तय हो, तो प्रशासन को पहले से इसका उचित अनुमान होना चाहिए। श्रद्धालुओं के प्रवेश और निकास के लिए अलग-अलग मार्ग निर्धारित किए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त, मंदिर परिसरों में ऐसे सतर्क सुरक्षाकर्मी या स्वयंसेवक नियुक्त किए जाने चाहिए जो भीड़ को व्यवस्थित रूप से नियंत्रित कर सकें और श्रद्धालुओं को चरणबद्ध तरीके से दर्शन के लिए आगे बढ़ने दें। ऐसा प्रतीत होता है कि भीड़ की प्रकृति और व्यवहार का समुचित मूल्यांकन न होने के कारण, या प्रशासन की लचर निगरानी से ये घटनाएं बार-बार घटती हैं।
आने वाले समय में आस्था-पर्यटन के लिए भीड़ और भी बढ़ेगी। ऐसे में, इन तीर्थस्थलों और मेलों का प्रबंधन करने वाले अधिकारियों की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती है। उन्हें न केवल संभावित भीड़ का सही आंकलन करना चाहिए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसे किस प्रकार नियंत्रित किया जाए। अक्सर धर्मस्थलों पर प्रवेश और निकास का रास्ता एक ही होता है, जिससे भीड़ की आवाजाही में बाधा आती है और भगदड़ की आशंका बढ़ जाती है। अक्सर जिम्मेदार अधिकारी समय पर सक्रिय नहीं होते। घटनाओं के बाद वे केवल मृतकों को श्रद्धांजलि देने और मुआवज़े की घोषणा करने के लिए आगे आते हैं। यह रवैया अब बदलना चाहिए।
आस्था की ऊर्जा को अव्यवस्था में नहीं बदलने देना है। श्रद्धालु जब दर्शन कर लौटे, तो उनके चेहरे पर शांति हो, ना कि अफरा-तफरी और भय का भाव। अब वक्त आ गया है कि हम भक्ति को विज्ञान से जोड़ें, और प्रबंधन को दैवयोग पर न छोड़ें। तीर्थयात्रा का वैज्ञानिक प्रबंधन ज़रूरी..