

आज पूरी धरती की जलवायु व मौसम में लगातार परिवर्तन देखने को मिल रहें हैं।भारत में भी जलवायु परिवर्तन से मौसमी दशाओं में भी अनेक अभूतपूर्व व व्यापक तौर पर परिवर्तन हुए हैं। दरअसल,इसके पीछे कारण यह है कि आज विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण धरती का पूरा ऊर्जा संतुलन(एनर्जी बैलेंस) गड़बड़ा रहा है, और इससे ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा हुआ है। पाठकों को बताता चलूं कि जनवरी 2025 में दुनिया का तापमान औद्योगिक युग (1850-1900) से पहले के मुकाबले 1.75 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म रहा, जो कि बहुत चिंतनीय है। वास्तव में, वर्ष 2025 ही नहीं, वर्ष 2024 भी सबसे गर्म वर्ष रहा था। जानकारी के अनुसार औसत वैश्विक तापमान 15.1 डिग्री सेल्सियस रहा, जो वर्ष 1991-2020 के औसत से 0.72 डिग्री अधिक था और वर्ष 2023 से 0.12 डिग्री अधिक रहा। जलवायु परिवर्तन और मौसम परिवर्तन का प्रभाव निश्चित ही धरती के सभी जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर पड़ता है।कहना ग़लत नहीं होगा कि बदलते मौसम ने मानव की जीवनशैली को भी काफी हद तक प्रभावित किया है।केवल मैदानी क्षेत्रों में ही नहीं, मौसम और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव इन दिनों पहाड़ी क्षेत्रों में भी खूब देखने को मिल रहे हैं। पर्यावरण समृद्ध से विकास संभावनाएं भरपूर..!
उत्तराखंड में पिछले कुछ समय में भारी वर्षा, बादल फटने की घटनाएं, बाढ़, वनस्पतियों का समय से पहले परिपक्व होना कहीं न कहीं जलवायु और मौसम दशाओं में परिवर्तन का ही प्रभाव है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतों में गर्मी एवं वर्षा दोनों की ही तीव्रता लगातार बढ़ रही है। पाठकों को बताता चलूं कि कुछ बहुत बड़े और महत्वपूर्ण ग्लेशियर जैसे कि गंगोत्री, पोंटिंग, मिलम, पिंडारी आदि उत्तरी क्षेत्र में स्थित होने के कारण उत्तराखंड राज्य पिछले कुछ दशकों से जलवायु परिवर्तन चर्चाओं के केंद्र में बना हुआ है। उत्तराखंड भारत का एक ऐसा राज्य है, जहां पर सैकड़ों नदियों का उद्गम स्थल है। हमारे देश की सबसे लंबी नदी तथा भारत की सबसे पवित्र नदी गंगा का उद्गम स्थल भी उत्तराखंड में ही है।काली नदी (उत्तराखंड की सबसे लंबी नदी), भागीरथी, अलकनंदा, यमुना, भिलंगना,काली, सरस्वती,गौला, कोसी, मंदाकिनी, नंदाकिनी, सरयू,टोंस, नयार(पूर्वी), पिंडारी, धौलीगंगा, गोरी गंगा, काली गंगा,रामगंगा(पूर्वी नदी),और लाधिया आदि उत्तराखंड की प्रमुख नदियां हैं। नदियां ही नहीं, उत्तराखंड विभिन्न छोटे-बड़े ग्लेशियरों का भी गढ़ है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के मुताबिक हिमालय रीजन में 9,527 ग्लेशियर हैं। इनमें उत्तराखंड में करीब 3600 हैं। एक अन्य जानकारी के अनुसार उत्तराखंड में करीब 1439 ग्लेशियर हैं जो कुल 4060 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं।
विभिन्न श्रेणियों में विभाजित, राज्य के ग्लेशियर नंदा देवी समूह, धौलीगंगा समूह, कामेट समूह, गंगोत्री समूह, सतोपंथ समूह और बंदर पुंछ पर्वत समूह का हिस्सा हैं। वैसे तो उत्तराखंड में अनेक नदियां व ग्लेशियर स्थित हैं, लेकिन यहां 12-15 नदियां और एक दर्जन से अधिक प्रमुख ग्लेशियरों के साथ, उत्तराखंड भारत का एक बड़ा मीठे पानी का भंडार है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि कई अध्ययनों ने इस क्षेत्र में विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में उल्लेखनीय तापमान वृद्धि दर्ज की है, और हाल की प्राकृतिक आपदाओं और चरम मौसम की घटनाओं जैसे कि ग्लेशियरों का पीछे हटना और ऊपर की ओर बढ़ती बर्फ रेखा, विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की कमी, अनियमित वर्षा पैटर्न, अनियमित शीतकालीन वर्षा, फसल के मौसम में बढ़ोतरी, पौधों के पुष्पन व्यवहार में उतार-चढ़ाव, सेब और अन्य फसलों की खेती के क्षेत्रों का स्थानांतरण, सर्दियों में बर्फ में कमी(जो कि ग्लेशियरों के पिघलने के कारण वर्तमान में भी महसूस की जा रही है), अचानक आने वाली बाढ़ की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि, क्षेत्र में विभिन्न बारहमासी धाराओं का लगातार सूखना आदि को इस गर्मी के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। हाल ही में एक प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक के हवाले से यह खबरें आईं थीं कि उत्तराखंड में बदलते मौसम से हिमालयी गांवों में वहां की जीवनशैली(ग्रामीण जीवन स्तर) लगातार बदल रही है। दैनिक के अनुसार ‘बदलते मौसम के कारण उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में हर साल प्रवास पर निचली घाटियों में आने वाले ग्रामीण बीते साल(वर्ष 2024)के मुकाबले इस बार एक-डेढ़ महीने पहले ही अपने मूल गांवों में वापसी की तैयारी करने लगे हैं।’
कुछ वर्षों पहले उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भरपूर मात्रा में ग्लेशियर (बर्फ) देखने को मिलती थी।अब उतनी बर्फ देखने को नहीं मिलती है।इतनी कि उत्तराखंड के उच्च हिमालयी गांवों के रास्ते मार्च अंत तक भी भारी बर्फ से पटे रहते थे, लेकिन अब हिमपात पहले की तुलना में काफी कम हो रहा है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि समुद्र तल से करीब 5,900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित माउंट ओम(ओम पर्वत) भारत, चीन और नेपाल की सीमा से लगा हुआ है। हिमालय की इस चोटी पर बर्फ से बनी ‘ओम’ आकृति केवल भारतीय क्षेत्र से ही दिखाई देती है, लेकिन पिछले साल यानी कि वर्ष 2024 में इस पर्वत के शिखर पर बर्फ नहीं जमीं और पर्यटक कम आए, क्यों कि अमूमन वे इस पर्वत पर प्राकृतिक रूप से बनने वाली ओम की आकृति देखने आते हैं। हिमालयी क्षेत्रों में कम बर्फ जमने के कारण यहां की खेती भी प्रभावित हुई है और यहां का जन-जीवन भी। दरअसल, पिछले कुछ समय से उच्च हिमालयी क्षेत्रों में तापमान में बढ़ोत्तरी हुई है और पहले जहां स्थानीय लोगों को उच्च हिमालयी गांवों में खेती करने के लिए अधिक बर्फ के कारण अप्रैल माह तक इंतज़ार करना पड़ता था,अब फरवरी की समाप्ति और मार्च के प्रथम सप्ताह से स्थानीय लोग इन क्षेत्रों में खेती करने की तैयारियां शुरू करने लगें हैं। अब हिमालयी क्षेत्रों के रास्ते उतने बरफ से ओतप्रोत नहीं होते,जितने कि बरसों पहले हुआ करते थे। मतलब यह कि अब समय से पहले ही बर्फ़ पिघलने लगी है।
पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि पिथौरागढ़ जिले के धारचूला और मुनस्यारी गांवों के लोग अब फरवरी की समाप्ति और मार्च के प्रथम सप्ताह में ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में खेती की तैयारियां करने के लिए पहुंचने लगे हैं। इतना ही नहीं, उत्तराखंड में खिलने वाले बुरांस, फ्योंली के फूल जो आमतौर पर गर्मी के मौसम में खिलते थे, मौसम में आमूलचूल बदलाव की वजह से समय से पहले ही खिलने लगे हैं।अब बुरांस के फूल जनवरी-फरवरी माह में ही खिलते हुए देखे जा सकते हैं। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि बुरांश के फूल अमूमन फरवरी के दूसरे पखवाड़े से लेकर मार्च तक खिलते रहे हैं, लेकिन अब ये जनवरी की समाप्ति पर ही खिलने लगे हैं। इतना ही नहीं, उत्तराखंड के जंगलों में कई जगह काफल फल भी समय से पहले ही पकने को तैयार हो रहे हैं।आमतौर पर उत्तराखंड के पहाड़ों में बुरांश का फूल आधे मार्च के बाद ही खिलता है। गौरतलब है कि बुरांश उत्तराखंड का राज्य पुष्प कहलाता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि बुरांश में एंटी-हिपेरग्लिसेमिक गुण पाया जाता है, जो शुगर लेवल को कंट्रोल करने का काम करता है। आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक दवाओं में इंफ्लमेशन, गाउट, ब्रोंकाइटिस और गठिया के इलाज के लिए भी बुरांश के फूल और पत्तियों का उपयोग किया जाता है। इतना ही नहीं बुरांश का शरबत गर्मियों में सेहत के लिए वरदान है। बुरांश ही नहीं उत्तराखंड में पाया जाने वाला काफल भी, जैसा कि ऊपर बता चुका हूं कि,अब समय से पहले पक रहा है।
दरअसल, मार्च के दूसरे पखवाड़े और अप्रैल में काफल पकता है। यह अत्यंत आश्चर्य जनक है कि मिर्थी, डीडीहाट, धौलछीना,बिनसर अभयारण्य के जंगलों में बुरांश जनवरी के समाप्त होते-होते ही खिलना शुरू हो गया और उत्तराखंड का लाल, गुलाबी छोटे आकार का काफल फल(पहाड़ के फलों का राजा)का पकना भी जल्द शुरू हो चुका है। दरअसल,अब प्रकृति अपना रंग दिखा रही है। यह दर्शाता है कि पहाड़ों में वनस्पतियों पर ग्लोबल वार्मिंग का अच्छा खासा प्रभाव इन दिनों पड़ रहा है। वनस्पति वैज्ञानिकों का कहना है कि मौसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण यह सब हो रहा है। कहना ग़लत नहीं होगा कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण वनस्पतियों का जीवन -चक्र अब गड़बड़ाने लगा है। इस बात की आशंकाएं भी हैं कि वनस्पतियों में इस तरह के असामान्य बदलाव भविष्य में और अधिक बढ़ सकते हैं, जिससे यहां का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ सकता है। यदि यह स्थिति यूं ही बनी रही, तो आने वाले समय में इसका प्रभाव पर्यावरण और स्थानीय जीव-जंतुओं पर भी पड़ सकता है। बहरहाल कहना ग़लत नहीं होगा कि आज पहाड़ों में विभिन्न विकास कार्यों यथा सड़क निर्माण,पुल निर्माण, बांध, शहरीकरण, छोटे-बड़े उधोगों की स्थापना, कटते जंगल, बढ़ती जनसंख्या के बीच कहीं न कहीं पहाड़ों के पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र पर व्यापक असर पड़ रहा है।
प्रकृति से हो रहे खिलवाड़, छेड़छाड़ और लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन के कारण, आज यहां की अनेक नदियां और गदेरे तक सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं।सच तो यह है कि पहाड़ों में आज अनेक जलस्त्रोतों पर लगातार खतरा मंडरा रहा है। कुछ समय पहले स्प्रिंग एंड रिजुविनेशन अथॉरिटी (सारा) की टीम ने एक फैक्ट साझा करते हुए यह बताया था कि बदलते मौसम चक्र, जलवायु परिवर्तन और मानवीय दखल से प्रदेश की 206 सदानीरा नदियां और गदेेरे सूखने के कगार पर हैं। प्रदेश के 5428 जलस्रोतों पर संकट मंडरा रहा है। बहरहाल, प्राकृतिक वनस्पति, पेड़-पौधों, औषधीय पौधों, नदियों, ग्लेशियरों की दृष्टि से उत्तराखंड भारत का एक सम्पन्न राज्य है और यहां प्राकृतिक हरियाली व वातावरण देखते ही बनता है।आज यहां बांज के पेड़ों पर भी लगातार खतरा मंडरा रहा है। पर्यावरण विकास और संतुलन को बनाए रखने वाले बांज के पेड़ों का संरक्षण आज समय की आवश्यकता है। अंत में यही कहूंगा कि हमें ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभावों के बीच इस बात पर चिन्तन- मनन करने की आवश्यकता है कि हम किस प्रकार से अपनी प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण कर सकते हैं। वास्तव में ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए हमें प्रकृति के इशारों को समझते हुए पर्यावरण संरक्षण पर बहुत ही गंभीरता से काम करना होगा। हमें विकास और पर्यावरण के बीच भी संतुलन स्थापित करने की नितांत आवश्यकता और जरूरत है। वास्तव में हमें इस बात को समझना चाहिए कि विकास का सीधा संबंध हमारे पर्यावरण से है। यदि हमारा पर्यावरण समृद्ध है तो विकास की संभावनाएँ भी भरपूर होती हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि विकास का आधार संसाधन ही हैं और संसाधन प्रकृति प्रदान करती है। पर्यावरण व विकास में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। पर्यावरण समृद्ध से विकास संभावनाएं भरपूर..!