
शहर से दूर, रिश्तों से भी दूर होती शादियाँ शादी, जो कभी रिश्तों की गर्माहट और सामूहिक खुशियों का उत्सव हुआ करती थी, आज धीरे-धीरे दिखावे, स्टेटस और प्रतिस्पर्धा का मंच बनती जा रही है। मैरिज हॉल से निकलकर अब शादियाँ शहर से दूर महंगे रिसॉर्ट्स की चारदीवारी में सिमटती जा रही हैं— जहाँ पहुँच वही पाता है, जिसके पास साधन, समय और हैसियत हो।
कुछ समय पहले तक शादियाँ शहर के भीतर स्थित मैरिज हॉलों में होती थीं। वह दौर भी अब समाप्ति की ओर है। आज शादियाँ शहर से दूर महंगे रिसॉर्ट्स में आयोजित की जा रही हैं। शादी से दो दिन पहले ही पूरा परिवार रिसॉर्ट में शिफ्ट हो जाता है। मेहमान सीधे वहीं आते हैं और वहीं से विदा हो जाते हैं। जिनके पास चार पहिया वाहन है, वही पहुँच पाते हैं—दोपहिया या साधनहीन लोगों के लिए जैसे निमंत्रण ही नहीं होता। दरअसल, बुलाने वाला भी यही स्टेटस चाहता है। निमंत्रण अब रिश्तों के आधार पर नहीं, बल्कि श्रेणियों में बँट गया है—किसे सिर्फ लेडीज़ संगीत में बुलाना है, किसे केवल रिसेप्शन में, किसे कॉकटेल पार्टी में और किस VIP परिवार को सभी कार्यक्रमों में।
अपनापन खत्म, औपचारिकता हावी
आज के विवाह समारोहों में अपनापन लगभग समाप्त हो चुका है। जरूरत और हैसियत के हिसाब से लोगों को बुलाया जाता है। महिला संगीत में पूरे परिवार को नाच-गाना सिखाने के लिए 10–15 दिन तक महंगे कोरियोग्राफर लगाए जाते हैं। मेहंदी के लिए आर्टिस्ट बुलाए जाते हैं और हरी ड्रेस पहनना अनिवार्य कर दिया जाता है। जो इस ड्रेस कोड का पालन नहीं करता, उसे अलग नज़र से देखा जाता है—मानो वह “लोअर केटेगरी” का हो।
हल्दी की रस्म में पीला कुर्ता-पायजामा अनिवार्य कर दिया गया है। यहाँ भी वही भेदभाव। रस्में अब संस्कार नहीं, बल्कि प्रदर्शन बन गई हैं।
दिखावे पर बेहिसाब खर्च
वर निकासी के समय एक विचित्र विरोधाभास दिखता है—जो लोग पंडित की दक्षिणा पर घंटों मोलभाव करते हैं, वही बारात में नाच-गाने पर 5 से 10 हजार रुपये आसानी से उड़ा देते हैं। रिसेप्शन में स्टेज पर धुएँ, नकली आतिशबाजी और फिल्मी स्लो मोशन के बीच वरमाला होती है। परिवार और रिश्तेदारों को दूर कर दिया जाता है।
स्टेज के पास बड़ी स्क्रीन पर प्री-वेडिंग शूट की वीडियो चलती रहती है—जहाँ निजी क्षणों का सार्वजनिक प्रदर्शन कर “आधुनिकता” को बेचा जाता है। यह सब परंपरा नहीं, संस्कृति का बाजारीकरण है।
रिश्तेदार पास होकर भी दूर
रिसॉर्ट में हर परिवार अलग-अलग कमरे में ठहरता है। वर्षों बाद मिलने वाले रिश्तेदारों से मिलने की उत्सुकता खत्म हो जाती है। रस्मों के समय मोबाइल पर बुलावा आता है और लोग कमरों से बाहर निकलते हैं। शादी में मौजूद होकर भी लोग एक-दूसरे से कटे रहते हैं। अमीरी का दंभ व्यवहार में साफ झलकता है।
मध्यमवर्ग के लिए चेतावनी
हमारी संस्कृति को दूषित करने का यह चलन अति-संपन्न वर्ग से शुरू होकर अब मध्यमवर्ग तक पहुँच रहा है। मेरा अपने मध्यमवर्गीय समाज से अनुरोध है—आपका पैसा है, आपने मेहनत से कमाया है, खुशी का अवसर है तो जरूर मनाइए। लेकिन दूसरों की देखा-देखी कर्ज लेकर अपने सम्मान और भविष्य को दांव पर मत लगाइए। चार–पाँच घंटे के रिसेप्शन में जीवन भर की पूंजी खर्च कर देना समझदारी नहीं है। दिखावे की इस सामाजिक बीमारी को अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित रहने दीजिए।
शादी केवल आयोजन नहीं, दो परिवारों का भावनात्मक मिलन है। इसे प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन का मंच न बनाएं। अपनी क्षमता के अनुसार खर्च करें, स्वाभिमान के साथ दांपत्य जीवन शुरू करें और अपने परिवार व समाज के लिए सार्थक उदाहरण बनें।

























