राहुल गांधी का लक्ष्य लोकतंत्र,संविधान को बचाना है,राजभोग की चाहत नहीं। पप्पू से जननायक बन गए हैं राहुल गांधी। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विकल्प के रूप में लोग उसी का वजूद मानते हैं और इस हकीकत को नकारना स्वीकार्य नहीं हो सकता।
लौटन राम निषाद
लोकसभा चुनाव के लिये बिसात बिछने लगी है, क्या खरगे विपक्ष की ट्रंप बनेंगे।लोकसभा चुनाव वैसे तो अगले वर्ष होने वाला है, लेकिन राजनैतिक माहौल अभी से गर्माने लगा है। इसी बीच बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यू के नेता नीतिश कुमार ने कहा है कि चुनाव के लिये अगले वर्ष के इंतजार में बैठना ठीक नहीं है क्योंकि चुनाव का ऐलान कभी भी हो सकता है। कुछ और लोग भी लोकसभा चुनाव इसी वर्ष संपन्न करा लिये जाने की अटकलें व्यक्त कर रहे हैं लेकिन अभी रामजन्म भूमि मंदिर का उद्घाटन होना है जो अगले वर्ष जनवरी में प्रस्तावित है। इसके पहले तो चुनाव होने से रहा।
उधर भाजपा के एजेंडे में शामिल रहे समान नागरिक संहिता को लागू करने के मसले पर एकाएक सरकार में तेजी आयी है और उसका यह उतावलापन जाहिर करता है कि भले ही चुनाव इस वर्ष न हों लेकिन रामजन्म भूमि मंदिर के लोकार्पण के बाद तत्काल निर्धारित समय से पहले चुनाव करा लेने की तैयारी कहीं न कहीं सरकार की ओर से है।ऐसा मानने वाले राजनैतिक प्रेक्षकों की धारणा यह है कि मोदी का करिश्मा फीका हो चला है इसलिये केन्द्र सशंकित है इसलिये समान नागरिक संहिता लागू करने के साथ रामजन्म भूमि मंदिर का उद्घाटन होते ही फिर उसके लिये मुफीद माहौल बनेगा जिसमें देरी न करके समय से पहले फरवरी मार्च में ही चुनाव करा लेने का फैंसला लिया जा सकता है। प्रतिपक्षी दल सरकार के इस संभावित पैतरे को लेकर सतर्क रूख अपना रहे हैं इसलिये उन्होंने किसी भी समय चुनावी युद्ध में कूंदने की मानसिकता बना ली है और इसके लिये अपनी रणनीति तय कर डाली है, भले ही इसका खुलासा न किया जा रहा हो।
भाजपा को शिकस्त देने के लिये प्रतिपक्ष के सोचने की जो पहली बात है, वह भाजपा विरोधी मतों को बंटने न देने या एकजुट करने की है, इसके लिये सारे प्रतिपक्षी दलों का एक बड़ा मोर्चा बनाने की जो बात है, वह बहुत आसान नहीं है। कांग्रेस ने जब से कर्नाटक विधानसभा का चुनाव का मैदान जीता है, तब से विपक्षी कुनबे में उसकी स्थिति मजबूत हुयी है। जदयू, राजद और द्रमुक जैसे दल तो पहले से ही नेतृत्व उसको सौंपने के लिये सहमत थे लेकिन ममता बनर्जी जैसे नेता भी पहले के रूख को बदलते नजर आने लगी हैं। अखिलेश यादव को अभी भी कांग्रेस से परहेज है और वे नीतिश की अगुवाई में मोर्चा गठित करने की ओर आगे बढ़ने की कोशिश करेंगे। केसीआर की मानसिकता क्या रहेगी,स्वयं कांग्रेस नेतृत्व के सवाल पर क्या रूख अपनायेगी यह भी अभी स्पष्ट नहीं है।
पश्चिम बंगाल में मोर्चा कैसे काम करेगा यह भी एक बड़ा सिर दर्द है। कांग्रेस, वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस तीनों का पश्चिम बंगाल में सीटों के बटवारे को लेकर तालमेल पर मंथन एक म्यान में तीन तलवारें डालने जैसा है। केरल को लेकर कांग्रेस और वाम मोर्चा के बीच भी टकराव रहेगा। मोदी द्वारा प्रतिपक्षी दलों के लिये अस्तित्व का सवाल बना दिये जाने को देखते हुये पहले उन्हें हटाने की जरूरत बड़ी होने को तो सभी दल स्वीकार कर रहे हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि इस खातिर अन्य बातें भुलाने को कोई तैयार हो। खास तौर से कांग्रेस इस बात को झेल चुकी है कि गर्दिश के समय भाजपा के अलावा प्रतिपक्षी दलों ने भी उसे अप्रासंगिक करार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, इसलिये वह विपक्षी कुनबे को एहसास कराना चाहती है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विकल्प के रूप में लोग उसी का वजूद मानते हैं और इस हकीकत को नकारना स्वीकार्य नहीं हो सकता।
कांग्रेस को लेकर अन्य विपक्षी दलों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि उन्हें लगता था कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व को सभी पर थोपने के लिये आमादा है जबकि भाजपा ने उन्हें जनमानस के बीच में पप्पू साबित करके रख दिया है जिसके चलते न तो उनमें मोदी से पार पाने की क्षमता है और न ही उनकी समूचे विपक्ष में कोई स्वीकार्यता है। लेकिन राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा को कन्याकुमारी से कश्मीर तक जिस ढंग से पूरा किया और सोशल मीडिया के माध्यम से सारे देश में जिस तरह से उसका प्रस्तुतिकरण कराया गया, उससे लोगों का नजरिया एकदम बदला। लोग राहुल को लेकर भावुक दिखने लगे। उनके प्रति सहानुभूति का ज्वार जैसा उमड़ पड़ा। उनके बारे में जो यह धारणा बनी थी कि उन्हें बोलना नहीं आता और न ही मुद्दों को लेकर उनकी कोई समझ है, उसमें भी बड़ी तब्दीली आयी। एकदम लोग कहने लगे कि राहुल गांधी ही हैं जो भाजपा की नीतियों पर ईमानदारी और निर्भीकता से हमला कर रहे हैं। उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों में गहराई भी है और निरंतरता भी। सैद्धांतिक मोर्चे पर भाजपा पर वे ही सटीक प्रहार कर पा रहे हैं।
इसके बाद हिंडनबर्ग खुलासे और अदानी के अचानक टाइकून बनने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का उनको अनुचित प्रश्रय की चर्चाओं के बवंडर के बीच राहुल गांधी ने जिस तरह लोकसभा में सरकार को घेरा उससे उनका राजनीतिक पराक्रम और पुष्ट हुआ। इसी दौरान मोदी सरनेम मामले में गुजरात की अदालत ने उन्हें दो वर्ष कारावास की सजा सुना दी, जिसके आधार पर लोकसभा की उनकी सदस्यता समाप्त हो गयी, सांसद के नाते मिला उनका बंगला छिन गया। शुरू में इसे राहुल के राजनैतिक कैरियर के अंत के रूप में देखा गया लेकिन जल्द ही परिदृश्य बदल गया। यह उथल- पुथल राहुल गाँधी की नयी राजनीतिक इमेज गढ़ने का अवसर बन गया।
राहुल के बारे में हालांकि शुरू से यह स्पष्ट था कि वे बहुत सत्ता लोलुप नहीं हैं। अगर उनमें सत्ता लोलुपता होती तो वे मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में उनके अंतिम वर्षों में उनकी जगह आसानी से प्रधानमंत्री बन जाते। मनमोहन सिंह इसके लिये सहर्ष तैयार भी थे। उनकी मां सोनिया गांधी की आंखे भी पुत्र को प्रधानमंत्री पद पर देखने के लिये जुड़ा रहीं थी। पर राहुल गांधी ने इसके लिये कोई उत्साह नहीं दिखाया। उन्होंने कांग्रेस को मास पार्टी बनाने के लिये बहुत जद्दोजहद की। उनका प्रयास था कि कांग्रेस में संगठन के चुनाव वास्तविक तौर पर हों जिससे मठाधीशी का दौर खतम किया जा सके और लोगों के बीच संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं को पार्टी पदों पर ऊपर लाया जा सके। यह कोशिश करते हुये वे पार्टी के मठाधीशों के षड़यंत्रों का शिकार हुये फिर भी अपनी धुन पर डटे रहे। उन्हें कांग्रेस की अध्यक्षी मिली तो उन्होंने सोचा कि शायद अब यह काम वे ज्यादा मजबूती से कर पायेंगे लेकिन उन्हें मठाधीशों ने फेल कर दिया।
2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुये जब उन्होंने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा था और कहा था कि वे अब बिना किसी पद के साधारण कार्यकर्ता की तरह कार्य करेंगे तो इसे दिखावा माना गया था। उनकी मां सोनिया गांधी भी मान रहीं थी कि कुछ दिनों बाद आदर्श का उनका खुमार उतर जायेगा और वे अध्यक्ष पद को फिर से स्वीकार करने के लिये तैयार हो जायेंगे। कोई और इसमें बाधा न बन जाये इसके लिये सोनिया गांधी उनके इस्तीफे के बाद तदर्थ अध्यक्ष बनकर उनके खड़ाऊ राज की रखवाली करतीं रहीं,पर उन्हें अन्ततोगत्वा स्वीकार करना पड़ा कि वे मां होकर भी अपने बेटे के मिजाज को समझने में विफल रहीं।
राहुल गांधी का लक्ष्य राजभोग के लिये पद प्राप्त करना नहीं है बल्कि वे भारतीय राजनीति में ऐेसे प्रभावी हस्तक्षेपकर्ता के रूप में उभरने के लिये कार्य कर रहे हैं जिससे इतिहास उनकी युगांतरकारी भूमिका को स्थापित करने के लिये अग्रसर हो। राहुल गांधी से सोनिया को मजबूरी में ध्यान हटाकर पार्टी अध्यक्ष पद के लिये नये चेहरे के लिये निगाह दौड़ानी पड़ी। मल्लिकार्जुन खरगे के पीछे केवल वफादार चेहरे को तलाशने तक की सीमित सोच नहीं थी बल्कि पार्टी को आगे बढ़ाने के लिये कई रणनीतिक समीकरण साधने के निहितार्थ जुड़े थे। राहुल गांधी मोदी सरनेम मामले में शीघ्र दोषमुक्त होने के लिये कोई बहुत ज्यादा अधीरता नहीं दिखा रहे तो इसका कारण है। अब यह साफ हो चुका है कि अगले चुनाव में कांग्रेस पार्टी की ओर से वे अपने को चेहरा नहीं बनाना चाहते।राहुल गाँधी कई बार दोहरा चुके हैं कि उनकी प्रधानमंत्री बनने की कोई लालसा नहीं है,बल्कि चिंता लोकतंत्र, संविधान और सरकारी संस्थानों को बचाने की है।कर्नाटक चुनाव में अपनी बेबाक सामाजिक न्याय पर चर्चा ने तो उन्हें सामाजिक न्याय का मुख्य पैरोकार बना दिया है।ओबीसी, एससी, एसटी वर्ग का बुद्धिजीवी राहुल गांधी में ही अपना भविष्य देखने लगा है।
मल्लिकार्जुन खरगे जिन्होंने अध्यक्ष पद की धुंआधार पारी खेलते हुये दमदार राष्ट्रीय नेता की छवि विकसित की है और गांधी परिवार के परीक्षित नेता हैं। राहुल गांधी चाहते हैं कि पार्टी उनके चेहरे पर दाव लगाये। दलित प्रधानमंत्री का नारा लेकर वे बहुत से मतलब हल कर सकते हैं। यह नरेन्द्र मोदी की जबरजस्त काट होगी जिन्होंने अपने पहले चुनाव में अपनी तथाकथित नीच कौम की दुहाई देकर बहुसंख्यक वंचित वर्ग की मसीहाई बखूबी हासिल की थी और जिसका लाभ वे अभी तक उठा रहे हैं। दूसरे गैर भाजपाई आसमान में कांग्रेस की अगुवाई को कबुलवाने के लिये भी यह कार्ड बेहद मजबूत साबित होगा। हालांकि दलित प्रधानमंत्री के नाम पर लड़ा जाने वाला यह पहला चुनाव नहीं होगा। अपने भारतीय जनता पार्टी अवतार के पहले जनसंघ घटक 1980 में ही जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पद का चेहरा प्रोजेक्ट करते हुये जोर आजमाइश कर चुकी है जिसमें उसे मुंह की खानी पड़ी थी।चौ.चरण सिंह ने बाबू जगजीवन राम के प्रधानमंत्री बनने की राह में रोड़ा डाल दिया।
विश्वनाथ प्रताप सिंह भी चाहते थे कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर पिछड़े वर्ग के उत्थान की क्रांतिकारी अग्रसरता के बाद वे रामविलास पासवान के चेहरे को आगे करके दलित प्रधानमंत्री चुनवाने की पहल कर सकें ताकि सामाजिक न्याय का वृत्त पूरा किया जा सके। संसद के सर्वश्रेष्ठ वक्ता के रूप में अपने युवाकाल में ही नवाजे जा चुके पासवान इसके लिये उपयुक्त भी थे, पर विश्वनाथ प्रताप सिंह के अपने ही इस प्रस्ताव से बिदक गये। पर अब दलित प्रधानमंत्री के नारे के लिये माहौल पहले की तरह खिलाफ नहीं है बल्कि कई अनुकूलतायें हैं जो इसके साथ काम कर सकतीं हैं। मल्लिकार्जुन खरगे का एज फेक्टर भी इस मामले में उनका सहायक है। उनसे पद प्राप्त करने के बाद बहुत लंबे समय के लिये इस पर जम जाने की आशंका किसी को नहीं सतायेगी। इसलिये बदलाव को संभव बनाने की तुरूप के तौर पर वे फिलहाल सभी को स्वीकार्य हों। राहुल गाँधी 3750 किमी की पदयात्रा कर जननायक की अपनी छवि स्थापित कर लिए हैं जिससे अंदरखाने भाजपा नेतृत्व और आरएसएस की परेशानी बढ़ गयी है।