शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव

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शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव
शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव
विजय गर्ग 
विजय गर्ग

हाल ही में भारत में स्कूली शिक्षा की स्थिति, उपलब्धियों और चुनौतियों को समझने के लिए दो महत्त्वपूर्ण रपटें जारी हुईं। पहली, राष्ट्रीय शिक्षा रपट (2023-24 ) और दूसरी ‘असर’ 2024 | ये दोनों देश में शिक्षा की वर्तमान स्थिति सुधारों और चुनौतियों पर प्रकाश डालती हैं। इसमें एक तरफ पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक स्तर पर बच्चों का रुझान बढ़ता हुआ दिखता है, . वहीं माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर बच्चों के नामांकन में कमी होती दिख रही है। प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक स्कूलों बच्चों के नामांकन में साढ़े सैंतीस लाख की कमी दर्ज की गई। उच्च शिक्षा तक बच्चों का पहुंचना तो दूर, आज भी लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं और कई कारणों से हर साल अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की एकीकृत जिला शिक्षा सूचना प्रणाली की एक रपट के अनुसार, वर्ष 2022-23 स्कूलों में कुल 25.17 करोड़ विद्यार्थी नामांकित जो 2023-24 में घट कर 24.80 करोड़ रह गए। यानी पिछले चार वर्षों में नामांकित बच्चों की संख्या 1.64 करोड़ कम हो गई। साथ ही, इस अवधि में स्कूलों की संख्या 37 हजार की कमी के साथ 1,509, 1 9,136 • से घट कर 1,471,891 हो गई। शिक्षा से वंचित बच्चों में ज्यादातर समाज के कमजोर और वंचित वर्गों आते हैं। शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव

‘असर’ (एएसईआर) 2024 की रपट देश में पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों की एक बेहतर तस्वीर प्रस्तुत करती है। रपट बताती है कि कैसे देश के सुदूर इलाकों में भी शिक्षा की रोशनी पहुंच रही है और पहले की तुलना में अधिक बच्चे स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों से जुड़ रहे हैं विशेष रूप से तीन से पांच वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों में शिक्षा के प्रति रुचि बढ़ी है, जो किसी न किसी शिक्षण संस्थान नामांकित हुए हैं। यह बड़ी उपलब्धि है, खासकर उन इलाकों के लिए, जहां शिक्षा को अब तक प्राथमिकता नहीं मिल पाई थी। इस वर्ष ‘असर’ का सर्वेक्षण देश के 605 ग्रामीण जिलों के 17,997 गांवों तक पहुंचा और इसमें 6,49,491 बच्चों को शामिल किया गया। रपट दर्शाती है कि पहली से तीसरी कक्षा तक के बच्चों की पढ़ने और गणित के सवाल हल करने की क्षमता में 2022 2022 की तुलना में उल्लेखनीय सुधार हुआ हैं।

छह वर्ष के बच्चों को लेकर दो अहम निष्कर्ष सामने आए पहला, 2018 से 2024 के 1 के बीच प्री- | प्री-स्कूल नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। दूसरा, 2024 तक तीन वर्ष की आयु के 77.4 1 फीसद ग्रामीण बच्चे किसी न किसी प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा कार्यक्रम (आंगनबाड़ी, नर्सरी) में नामांकित हैं। खास बात यह है कि यह प्रगति केवल शहरी क्षेत्रों तक नहीं है, बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी स्पष्ट रूप से देखी गई है। गौरतलब है कि इस बार ‘असर 2024’ ने डिजिटल साक्षरता जैसे महत्त्वपूर्ण पहलू पर भी ध्यान केंद्रित किया है। रपट के मुताबिक, 15-16 वर्ष के 90 फीसद ग्रामीण किशोरों के पास स्मार्टफोन है, लेकिन सवाल यह है कि क्या वे इसका सही उपयोग कर पा रहे हैं? जब बच्चों को आनलाइन जानकारी खोजने या अलार्म सेट करने जैसे छोटे-छोटे कार्य दिए गए, तो पाया गया कि डिजिटल तकनीक के उपयोग में लड़के, लड़कियों की तुलना में थोड़े आगे हैं। हालांकि, कुछ राज्यों में लड़कियां भी इस अंतर को तेजी से पाट रही हैं और डिजिटल कौशल में बराबरी पर आ रही हैं।

शिक्षा की इस नई लहर के पीछे राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का भी उल्लेखनीय योगदान है। नीति इस बात पर जोर देती है कि स्कूल में दाखिले के पहले तीन वर्ष जो आमतौर पर आंगनबाड़ी या नर्सरी स्तर पर होते हैं, बच्चे के सीखने की बुनियाद बनाते हैं। इसी दृष्टिकोण को साकार करने के लिए सरकार ने निपुण भारत मिशन की शुरुआत की, जिसका लक्ष्य है कि 2026-27 तक तीसरी कक्षा तक के सभी बच्चे बुनियादी तौर पर पढ़ने और गणना करने की दक्षता हासिल कर लें।

‘असर’ के सर्वेक्षण के मुताबिक 83 फीसद स्कूलों ने बताया कि उन्हें सरकार से एफएलएन (फाउंडेशनल लिटरेसी और न्यूमेरसी) गतिविधियों लागू करने के लिए निर्देश मिले थे। लगभग 78 फौसद स्कूलों ने कहा कि स्कूल में कम से कम एक शिक्षक को एफएलएन पर प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था, जबकि 75 फीसद को संबंधित अध्ययन सामग्री भी प्राप्त हुई थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने खासकर तीन से छह वर्ष के आयुवर्ग को शिक्षा के व्यापक ढांचे में शामिल करके संरचनात्मक परिवर्तन किए। शिक्षा नीति में इस बात पर जोर दिया गया कि सार्वभौमिक बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मकता प्राप्त करना सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। इस शिक्षा यात्रा में आंगनबाड़ी केंद्रों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण है। असर 2024 की रपट बताती है कि बड़ी संख्या में बच्चे आंगनबाड़ी रहे हैं, लेकिन गुणवत्ता सुधार की अब भी आवश्यकता है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को केवल पोषण और स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित न रखते हुए उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया जा रहा है, ताकि वे बच्चों के समग्र विकास में प्रभावी भूमिका निभा सकें। मगर इसके उलट देश में बच्चों का स्कूल छोड़ने की स्थिति भी चिंताजनक है।

हाल में जारी शिक्षा मंत्रालय की रपट बताती है कि नौवीं से बारहवीं कक्षा के बच्चे सबसे ज्यादा स्कूल छोड़ रहे हैं। देशभर में बच्चों के स्कूली शिक्षा के नामांकन में लाख से अधिक की गिरावट आई है। इसका सबसे ज्यादा असर माध्यमिक स्तर पर पड़ा है। विशेषकर अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग और लड़कियों के वर्ग में यह गिरावट अधिक देखने को मिली है। शिक्षा मंत्रालय की रपट के मुताबिक, पूर्व प्राथमिक स्तर पर 3.7 फीसद, मिडिल स्कूल तक 5.2 फीसद और सैकेंडरी स्तर पर यह फीसद 10.9 हो जाता है। समग्र शिक्षा कार्यक्रम 2023-24 रपट के अनुसार भारत में बच्चों के स्कूल छोड़ने की औसत दर 12.6 फीसद है, जिसमें बिहार, आंध्र प्रदेश, असम, गुजरात, कर्नाटक, मेघालय और पंजाब जैसे राज्यों में यह दर अधिक है।

हालांकि देश के कई राज्यों ने शिक्षा क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, फिर भी स्कूल छोड़ने वाले छात्रों की संख्या में कमी लाने के लिए अब भी कई चुनौतियां बनी हुई हैं। बच्चों के स्कूल छोड़ देने की समस्या से निपटने के लिए भारत को अन्य देशों की प्रभावी नीतियों से सीखने की आवश्यकता है। फिनलैंड ने निशुल्क शिक्षा, व्यक्तिगत शिक्षण सहायता और समावेशी नीति अपना कर इस समस्या को काफी हद तक हल किया है। इसी तरह नावें, जर्मनी और जापान ने भी लचीली शिक्षा व्यवस्था बनाई है, जिससे वहां स्कूल छोड़ने की दर न्यूनतम है।

इन रपटों के निष्कर्ष यह दर्शाते हैं कि देश में शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव हो रहे हैं, लेकिन अभी भी कई क्षेत्रों में सुधार की आवश्यकता बनी हुई है। यह सफर अभी पूरा नहीं हुआ है। जब हर बच्चा बिना किसी बाधा के स्कूल जाने लगेगा और सीखना केवल एक औपचारिक प्रक्रिया न होकर आनंददायक अनुभव बनेगी, तब हम वास्तव में एक शिक्षित भारत की मजबूत नींव रखने का दावा कर सकेंगे। शिक्षा व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव