

बिहार में चुनाव हमेशा करीबी रहते हैं। 2020 में महागठबंधन और एनडीए के बीच मत प्रतिशत का अंतर केवल एक प्रतिशत था। अखिलेश यादव का यह कदम उस अंतर को पाटने में निर्णायक साबित हो सकता है।लेकिन सफलता की कुंजी एकता है। तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव का यह हाथ मिलाना मतदाताओं को नई उम्मीद दे रहा है। अब देखना यह होगा कि बिहार की राजनीति का यह ‘शून्य का पहाड़’ कब सचमुच हरा-भरा होता है। बिहार में नया समीकरण: अखिलेश-तेजस्वी की जोड़ी से भाजपा घिरी
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अच्छी खासी हनक और धमक रखने वाले समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव की पड़ोसी राज्य बिहार की राजनीति में एक प्रकार की उदासीनता नजर आती है। यह पार्टी जो उत्तर प्रदेश में अपनी मजबूत जड़ें जमाए हुए है, बिहार में हमेशा से ही शून्य के पहाड़ पर खड़ा नजर आता है। यहां इसकी सफलता का इतिहास लगभग शून्य रहा है। मुलायम सिंह यादव द्वारा स्थापित यह पार्टी बिहार की विधान सभा में कभी भी कोई बड़ा प्रभाव नहीं डाल पाया। फिर भी, हाल के वर्षों में अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने नई दिशा अपनाई है। अब, महागठबंधन के साथ जुड़कर अखिलेश बिहार में नई उम्मीदें जगा रहे हैं।
बिहार की विधान सभा निर्वाचनों में समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन देखें तो यह स्पष्ट होता है कि यहां इसकी स्थिति हमेशा कमजोर रही। सन 1995 के विधान सभा निर्वाचन में पार्टी ने दो स्थानों पर विजय प्राप्त की थी। उस समय बिहार की राजनीति में विभिन्न दलों का उभार हो रहा था, और समाजवादी पार्टी ने यादव समुदाय के कुछ मतों पर कब्जा किया। लेकिन मत प्रतिशत की बात करें तो यह बहुत कम था, लगभग एक से दो प्रतिशत के बीच। उस निर्वाचन में कुल मतों का एक छोटा हिस्सा ही पार्टी को मिला, जो इसकी सीमित पहुंच को दर्शाता है। फिर सन 2000 आया, जहां पार्टी को कोई स्थान नहीं मिला। शून्य सीटों के साथ यह निर्वाचन दल के लिए निराशाजनक रहा। मत प्रतिशत में भी कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई, और पार्टी बिहार की मुख्य धारा से दूर होता गया।
अखिलेश यादव का बिहार में सक्रिय होना, यादव समाज को पूरी तरह से राजद के पक्ष में गोलबंद कर सकता है। इससे महागठबंधन को सीधा लाभ होगा। दूसरी ओर, भाजपा को इस सामाजिक समीकरण से नुकसान उठाना पड़ सकता है। बिहार के चुनाव हमेशा करीबी होते आए हैं। 2020 विधानसभा चुनाव में महागठबंधन और एनडीए के बीच मत प्रतिशत का अंतर मात्र एक प्रतिशत था। ऐसे में अखिलेश यादव का यह कदम उस छोटे से अंतर को पाटने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। विपक्ष का एकजुट होना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन रहा है।
सन 2005 में दो बार निर्वाचन हुए। फरवरी में हुए निर्वाचन में समाजवादी पार्टी ने चार स्थानों पर सफलता प्राप्त की। यह दल के लिए एक छोटी जीत थी, क्योंकि उस समय बिहार में राजनीतिक अस्थिरता थी, और विभिन्न गठजोड़ बन रहे थे। मत प्रतिशत लगभग दो प्रतिशत के आसपास रहा, जो पिछले निर्वाचनों से थोड़ा बेहतर था। लेकिन अक्टूबर में दोबारा हुए निर्वाचन में पार्टी की सीटें घटकर दो रह गईं। फिर भी, यह दिखाता है कि पार्टी ने यादव बहुल क्षेत्रों में कुछ प्रभाव बनाया था। लेकिन उसके बाद का इतिहास और भी निराशाजनक है। सन 2010 के विधान सभा निर्वाचन में दल को कोई स्थान नहीं मिला। मत प्रतिशत गिरकर एक प्रतिशत से भी कम हो गया। पार्टी ने कई स्थानों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (संयुक्त) जैसे दलों ने यादव मतों पर मजबूत पकड़ बना ली, जिससे समाजवादी पार्टी हाशिए पर चला गया।
सन 2015 के निर्वाचन में पार्टी ने पचासी स्थानों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन फिर शून्य पर आकर रुक गया। मत प्रतिशत लगभग एक प्रतिशत रहा। पार्टी ने महागठबंधन से अलग होकर लड़ने का फैसला किया, जो गलत साबित हुआ। सन 2020 में तो पार्टी ने निर्वाचन नहीं लड़ा, बल्कि राष्ट्रीय जनता दल को समर्थन दिया। परिणामस्वरूप, कोई सीट नहीं जीती गई, और मत प्रतिशत की गणना भी नहीं हुई। कुल मिलाकर, 1995 से 2020 तक पार्टी ने कुल आठ से दस सीटें ही जीतीं, और मत प्रतिशत कभी तीन प्रतिशत से ऊपर नहीं गया। यह शून्य का पहाड़ ही है, जहां पार्टी बार-बार चढ़ने की कोशिश करता है, लेकिन गिर जाता है। बिहार में पार्टी की कमजोरी का मुख्य कारण यहां की जातीय राजनीति है। यादव मतदाता मुख्य रूप से राष्ट्रीय जनता दल के साथ जुड़े हैं, और समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश की तरह यहां आधार नहीं मिला।
लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। अखिलेश यादव, जो उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रमुख नेता हैं, ने बिहार में नई रणनीति अपनाई है। हाल ही में वे महागठबंधन के साथ खड़े हुए हैं। महागठबंधन, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी दल शामिल हैं, बिहार में भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध मजबूत मोर्चा बना रहा है। अखिलेश ने वोटर अधिकार यात्रा में भाग लिया, जो महागठबंधन द्वारा आयोजित की गई थी। इस यात्रा का उद्देश्य मतदाताओं के अधिकारों की रक्षा करना और भारतीय जनता पार्टी की कथित मत चोरी के विरुद्ध जागरूकता फैलाना है। अखिलेश ने सार्वजनिक रूप से कहा कि भारतीय जनता पार्टी बिहार से भागने वाला है, और महागठबंधन की जीत निश्चित है। उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल को पूर्ण समर्थन देने का वादा किया। यह गठजोड़ बिहार के आगामी विधान सभा निर्वाचन के लिए महत्वपूर्ण है, जो 2025 में होने वाले हैं।अब सवाल यह है कि अखिलेश के इस कदम से किसे लाभ होगा? सबसे पहले, महागठबंधन को।

बिहार में यादव मतदाता एक बड़ा हिस्सा हैं, लगभग पंद्रह प्रतिशत। राष्ट्रीय जनता दल इन मतों का मुख्य दावेदार है, लेकिन हाल के निर्वाचनों में कुछ मत बिखर गए हैं। अखिलेश, जो खुद यादव हैं और उत्तर प्रदेश में पार्टी की हालिया लोक सभा जीत से उत्साहित हैं, इन मतों को एकजुट कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने अड़तीस स्थानों पर जीत हासिल की, जो उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। यह मोमेंटम बिहार में भी काम कर सकता है। महागठबंधन को इससे यादव मतों की मजबूती मिलेगी, और गैर-यादव पिछड़े वर्गों को भी आकर्षित किया जा सकता है। कांग्रेस और वामपंथी दलों को भी लाभ होगा, क्योंकि गठजोड़ मजबूत होगा। तेजस्वी यादव, जो राष्ट्रीय जनता दल के नेता हैं, ने अखिलेश के इस समर्थन को स्वागत किया है। वे कहते हैं कि यह यात्रा भारतीय जनता पार्टी को असहज कर रही है।
दूसरी ओर समाजवादी पार्टी को भी अप्रत्यक्ष लाभ होगा। हालांकि बिहार में पार्टी का आधार कमजोर है, लेकिन महागठबंधन के साथ जुड़कर यह अपनी छवि मजबूत कर सकता है। अगर महागठबंधन जीतता है, तो पार्टी को कुछ स्थानों पर अवसर मिल सकते हैं। लेकिन मुख्य लाभ राष्ट्रीय जनता दल को होगा, क्योंकि अखिलेश का समर्थन यादव मतों को पूरी तरह उनके पक्ष में कर देगा। भारतीय जनता पार्टी को नुकसान होगा, क्योंकि विपक्ष अब अधिक एकजुट है। बिहार में निर्वाचन हमेशा करीबी होते हैं, जैसे 2020 में महागठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बीच मत प्रतिशत में केवल एक प्रतिशत का अंतर था।
अखिलेश का यह कदम उस अंतर को पाट सकता है।कुल मिलाकर, यह गठजोड़ बिहार की राजनीति में नया मोड़ ला सकता है। शून्य के पहाड़ पर चढ़ते हुए समाजवादी पार्टी अब महागठबंधन की सीढ़ी का सहारा ले रहा है। अगर यह सफल होता है, तो बिहार में विपक्ष की ताकत बढ़ेगी, और भारतीय जनता पार्टी को चुनौती मिलेगी। लेकिन सफलता के लिए एकता जरूरी है। तेजस्वी और अखिलेश का यह हाथ मिलाना मतदाताओं को नई उम्मीद दे रहा है। बिहार के लोग अब देखेंगे कि यह शून्य का पहाड़ कब हरा-भरा होता है।
बिहार की राजनीति में इस समय एक नया समीकरण उभरकर सामने आया है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव का साथ आना भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती बन गया है। भले ही समाजवादी पार्टी का बिहार में आधार मज़बूत न हो, लेकिन महागठबंधन के साथ जुड़कर वह अपनी छवि सुधार रही है। अखिलेश यादव का यह कदम यादव वोटों को राजद के पक्ष में और भी मज़बूत करेगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह गठजोड़ भाजपा के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है, क्योंकि बिहार के चुनाव अक्सर बेहद करीबी होते हैं। बिहार में नया समीकरण: अखिलेश-तेजस्वी की जोड़ी से भाजपा घिरी