
डॉ.ओ0पी0 मिश्र
हम जैसे तमाम लोग शायद जेन जेड का मतलब ना समझते हो लेकिन नेपाल में हुए खूनी संघर्ष तथा बड़े पैमाने पर हुई अराजकता ने बता दिया कि जैन जेड का केवल मतलब जानना ही काफी नहीं। बल्कि यह भी जानना जरूरी है कि हमारे पड़ोसी तथा मित्र देश नेपाल के नवयुवकों ने अपने ही देश के साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया? जिससे नेपाल कई साल पीछे चला गया। वैसे जहां तक मैं समझ पा रहा हूं उसके मुताबिक किसी भी व्यक्ति या किसी भी व्यक्तियों के समूह या फिर पूरे समाज या संपूर्ण राष्ट्र को काफी समय तक ना तो बेवकूफ बना सकते हैं और ना ही भ्रम में रख सकते हैं । इतना ही नहीं सत्ता प्रतिष्ठान को यह गुमान और भ्रम भी बहुत समय तक नहीं पालना चाहिए कि वह कुछ भी कर ले लेकिन आम आदमी सिर्फ और सिर्फ बरदाश्त ही करेगा। मैं कहता हूं कि केवल कुछ समय तक बर्दाश्त करेगा इसके बाद फिर वही होगा जो नेपाल में घटित हुआ। पड़ोसियों को भी जेन जेड की भावनाओं को समझना होगा
सत्ता प्रतिष्ठान को चाहे वह किसी भी देश का हो उसे यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उसे कुछ भी करने की छूट है। इसका ताजा उदाहरण नेपाल है और उससे पहले बांग्लादेश में भी इस तरह के कारनामे हो चुके हैं। नेपाल में जिस तरह की खबरें मिल रही है उसके मुताबिक जेन जेड का यह आक्रोश तात्कालिक नहीं था। आग सुलग रही थी बस हवा देने का काम सोशल मीडिया पर सरकार के बैन ने कर दिया। नतीजतन काठमांडू और पोखरा सहित कई शहर आज की चपेट में आ गए। वैसे जहां तक मेरा दिमाग काम करता है उसके अनुसार नौजवान पीढ़ी यानी जेन जेड का आक्रोश राजनीतिक दलों, राजनीतिक नेताओं और सिस्टम के खिलाफ था क्योंकि जिस तरह राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री तथा विभिन्न दलों के नेताओं के घरों दफ्तरों को निशाना बनाया गया।
नेताओं को, मंत्रियों को, पुलिस को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया गया वह बताता है कि सिस्टम को लेकर लोगों में किस तरह का आक्रोश था, किस तरह की निराशा थी। आज जो लोग नेपाल कि अराजकता को कोलंबो और ढाका के साथ जोड़कर देख रहे हैं वे शायद सच को झूठलाने की कोशिश कर रहे हैं । क्योंकि कोलंबो (श्रीलंका) ढाका (बांग्लादेश) में जो भी उपद्रव हुए वे सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ थे जबकि नेपाल में सत्ता और विपक्ष दोनों के खिलाफ आक्रोश था। कल का नेपाल हिंदू राष्ट्र वर्ष 2008 में रिपब्लिक नेपाल बना था। इन 17 वर्ष के कालखंड में नेपाल में 13 प्रधानमंत्री बन चुके हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि वहां की राजनीतिक वर्ग की प्राथमिकताएं क्या है और लोगों में आक्रोश क्यों है?
कोई कुछ भी कहे लेकिन हकीकत यही है कि इस सारी अराजकता तथा उथल-पुथल के पीछे भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, महंगाई तथा बेरोजगारी शायद प्रमुख कारक हैं। बड़े-बड़े चुनावी वायदे करके सब्जबाग दिखा करके इतिहास कुरेद करके नौकरी के नाम पर नौजवानों को भ्रमित करके तथा आक्रोश को दबाकर और सच बोलने पर पहरा लगा कर सत्ता तो प्राप्त की जा सकती है लेकिन ऐसी सत्ता किस लिए? किस उद्देश्य के लिए यह भी तो बताना जाना चाहिए। आज जिस तरह शिक्षित नौजवानों की अपेक्षाये बढ़ रही है वे नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं ऐसे में जब उनके सब्र का प्याला छलकेगा तो नेपाल , बांग्लादेश तथा श्रीलंका जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होगी। भगवान से प्रार्थना है कि उक्त देश में जिस तरह का रक्तपात हुआ, अराजकता फैली, लोगों को मौत के घाट उतारा गया पुलिस के थाने, जेल, सचिवालय , अदालतें आज जिस तरह आग की भेंट चढ़ी वैसी घटनाएं कभी भी अपने देश में ना हो। उम्मीद है की होगी भी नहीं। लेकिन इसके लिए क्या सत्तारूढ दल तथा क्या विपक्षी दल सभी को एक ऐसी रणनीति बनाना होगा जिससे शिक्षित बेरोजगारों तथा नौजवानों की भावनाएं आहत न हो। उनके लिए उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार उनको काम मिले।

ताकि विकसित भारत बनाने में वे भी अपना योगदान दे सके। नेपाल की घटना केवल एक चुनौती नहीं बल्कि एक संदेश भी है । वह भारत के लिए की जाति , वर्ग, धर्म, भाषा, उच्च नीच तथा अल्पसंख्यक के नाम पर राजनीति करके सत्ता तो प्राप्त की जा सकती है लेकिन 2047 में विकसित भारत नहीं बनाया जा सकता है। क्योंकि विकसित भारत बनाने के लिए सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास तथा सबका विश्वास चाहिए। जबकि वर्तमान केंद्र की मोदी सरकार सबका विश्वास अब तक नहीं अर्जित कर पाई है। एक रात करोड़ दीपक जलाकर आप एक निश्चित क्षेत्र में उजाला कुछ समय के लिए कर सकते हैं हमेशा के लिए नहीं। क्योंकि हमेशा तो तभी उजाला रहेगा जब सबके लिए शिक्षा के अवसर होंगे । सबके लिए सस्ते दर पर चिकित्सा की व्यवस्था होगी तथा शिक्षा की लौ हमेशा जलती रहे इसकी चिंता होगी।
दीपक कि लौ तो कुछ समय बाद बुझ जाएगी। लेकिन शिक्षा की लौ हमेशा जलती रहे और हमारे नौनिहाल उस शिक्षा की लौ से अच्छादित होते रहे। राजनीति में चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल कितने घिनौना हथकंडे अपनाते हैं या लिखने की आवश्यकता नहीं। लेकिन यह समझने की जरूर आवश्यकता है कि गांधी का विकल्प फिलहाल अभी 2047 तक उपलब्ध नहीं है। नैरेटिव गढ़कर, नैरेटिव फैलाकर इधर-उधर की उड़ा कर सकता प्राप्त की जा सकती है लेकिन सत्ता कब हाथ से फिसल जाएगी इसका भी अंदाजा सत्तारूढ दल को तो होना ही चाहिए। वरना नेपाल बनते देर नहीं लगती। क्योंकि जब हम अपने हाता में सांप पालेंगे तो यह इस बात की बिल्कुल गारंटी नहीं कि वह हमारे दुश्मनों को ही डसंगे हमें नहीं। मैं भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई कि उस बात से पूरी तरह से सहमत हूं जिसमें वह कहते हैं कि पड़ोसी देश के हालात देखकर अपने संविधान पर गर्व है। यकीनन गर्व है। प्रत्येक भारतीय को शायद गर्व होगा। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं वह किसी विशेष राजनीतिक दल के भी लोग हो सकते हैं जो इस संविधान को बदलना चाहते हैं। उन्हें ऐसा करने से हमें रोकना होगा।
इसी के साथ ही भारत को अब हर देश के लिए अलग तरह की डिप्लोमेसी अपनानी होगी। काबुल (अफगानिस्तान) कोलंबो (श्रीलंका) ढाका (बांग्लादेश) नेपाल (काठमांडू) ने दक्षिण एशिया के राजनीतिक समीकरण बदल दिए हैं । इतना ही नहीं अभी नेपाल पूरी तरह से खामोश नहीं हुआ था कि इसी बीच अब फ्रांस में भी हिंसा भड़क उठी है। लोग सड़कों पर आ गए हैं। यह स्थिति किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है । क्योंकि खरबूजा खरबूजे को देखकर बहुत जल्दी रंग बदल लेता है। वैसे भी जब से आर. ए. टी.एस. यानी रीजनल एंटी टेररिस्ट स्ट्रक्चर का अध्यक्ष पाकिस्तान को बनाया गया है तब से हमारे जैसे आम भारतीयों के अंदर निराशा है क्योंकि पाकिस्तान का इतिहास और भूगोल दोनों दागदार हैं। पड़ोसियों को भी जेन जेड की भावनाओं को समझना होगा























