युगपुरुष घोषित हो चुके गांधी में भविष्य को देखने की एक दिव्य दृष्टि थी तभी तो 15 अगस्त 1947 को आजाद होने वाले भारत को उन्होंने कुछ ऐसे जंतर और मंत्र दिए जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं उपयोगी हैं जितने तब थे जब गांधीजी देश की आजादी के लिए अहिंसा का अभूतपूर्व अस्त्र लेकर संघर्ष कर रहे थे। चाहिए एक और नई सोच का गांधी
डाॅ0 घनश्याम बादल
गांधी की यादें लेकर दो अक्टूबर फिर आ गया। गांधी उस खुश्बू की तरह हैं जो बार-बार चाहने या न चाहने पर भी हिंदुस्तान की हवा में तैरती रहती है । इस बार की गांधी जयंती कुछ अलग ही परिस्थितियों में आई है न भौतिक रूप से सर्वधर्म समभाव सभा संभव है न ही गांधी की याद में होने वाली सभाएं हो सकती हैं इस कोरोनाकाल में और न ही जनसमूह इकट्ठा होकर उन्हें श्रद्धांजलि दे सकता है मगर, इससे गांधी पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि गांधी महज़ दो अक्टूबर को याद किए जाने वाली शख्सियत नहीं वरन इस देश की मिट्टी में दबा वह बीज है जो मिटता नहीं है। युगपुरुष घोषित हो चुके गांधी में भविष्य को देखने की एक दिव्य दृष्टि थी तभी तो 15 अगस्त 1947 को आजाद होने वाले भारत को उन्होंने कुछ ऐसे जंतर और मंत्र दिए जो आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं उपयोगी हैं जितने तब थे जब गांधीजी देश की आजादी के लिए अहिंसा का अभूतपूर्व अस्त्र लेकर संघर्ष कर रहे थे।
आज गांधी के बारे में उनके विरोधी कुछ भी कहें, उन पर कितने भी इल्जाम लगाएं। उनके निर्णय पर कितनी भी उंगलियां उठाएं लेकिन काल की शिला पर गांधी ने जो लिखा वह बार-बार घिसे जाने पर भी न मिटता है और न ही उसकी चमक कम होती है। काल के पहिए के अनगिन चक्करों ने न जाने कितने महापुरुषों को अर्श से फर्श दिखाए मगर गांधी शिखर पर बने हुए हैं । गांधी जानते थे के कि राष्ट्र का विकास स्थानीय संसाधनों के विकास पर निर्भर करता है इसलिए स्वदेशी की अवधारणा पर बल दिया कृषि व कुटीर उद्योगों के साथ-साथ बुनियादी शिक्षा पर बल दिया जिससे कि देश का आम आदमी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय संसाधनों से करते हुए जीवन सुचारु रुप से चला सके ।
समय के साथ प्रौद्योगिकी आई,वैश्विक व्यापार की बातें जोर पकड़ती गई, भूमंडलीकरण की अवधारणा ने पैर पसारे और समय की मांग को देखते हुए हिंदुस्तान भी उसी रौ में बहने लगा मगर समय ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि विदेशों से कितने भी संसाधन यह सुविधाएं आए लेकिन 140 करोड़ लोगों की आवश्यकताओं की सम्यक पूर्ति यदि कहीं से होगी तो वह स्वदेशी उत्पादों से ही संभव होगा क्योंकि विदेशों से आयात में विदेशी मुद्रा का भारी खर्च होता है वह चीजें महंगी भी पड़ती है तथा विदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्रवृत्ति बढ़ने से देसी कुटीर उद्योग नष्ट होने लगते हैं और ऐसा हुआ भी । समय की नजाकत को देखते हुए एक प्रधानमंत्री यदि वोकल फॉर लोकल की बात करते हैं तो यह साफ संकेत है कि हम प्रच्छन्न रूप से गांधी एवं गांधीवाद को मान्यता दे रहे हैं।
जब गांधी के अधिकांश समकालीन या परवर्ती महान नाम या तो गायब हो चुके हैं या भुला दिये गये हैं तब भी उनका ‘टालिज्म’ व प्रभामंडल चमकदार है तो कोई तो बात है गांधी में जो उन्हें बहुत ज्यादा उपयोगी न होने के बावजूद सम्मान दिला रहा है। गांधी का सबसे बड़ा बल था उनकी दृढ़ता। भले ही सारी दुनिया ने उनकी आलोचना की पर गांधी वही करते थे जो उनकी आत्मा को गवारा होता था वे न किसी से डरते थे न ही दबते थे बेखौफ जीने का यही अंदाज गांधी की ताकत था।गांधी का अहिंसावाद, उनका निर्धन के प्रति प्रेम, महिला हितों के प्रति लगाव, बेसिक शिक्षा का सिद्धांत, आखिरी आदमी तक आजादी का सुख पंहुचाने का संकल्प किसी भी कीमत पर हिंसा का सहारा न लेने का जिद भरा दुःसाहस, सत्य के साथ अनवरत प्रयोग, हथियरों के सामने निहत्थे अड़ने व लड़ने का जज्बा, किसी भी मन को न भाती बात या मुद्दे पर अनषन पर बैठ जाना गांधी को अपने समय के दूसरे नेताओं से अलहदा करता है ।
सत्ता में कोई भी रहे पर गांधी हर हाल में कायम रहते हैं तभी तो आज भी गांधी का स्वच्छता अभियान जारी है शिक्षा में हम बैक टू बेसिक की तरफ लौट रहे हैं । नई शिक्षा नीति के मसौदे में गांधी दर्शन और उनकी व्यवहारिकता की झलक साफ दिखाई देती है जब वह किताबी ज्ञान के बजाय व्यवहारिक कौशल के विकास पर बल देने की बात करती है यह भी है गांधी की वैचारिक परिपक्वता एवं दूर दृष्टि का एक और प्रमाण ।
आज तो देश में गांधी के राज्य का ही एक शख्स देश का नायक है । वह भी उसी बिरादरी से है जिससे गांधी थे पर, उसके व गांधी के दर्शन में भारी अंतर है वह देश को तकनीकी के बल पर , डिजिटल बनाकर , आभासी दुनिया के माध्यम से आकाशों में ले जाना चाहता है। पर गांधी की जरुरत उसे भी पड़ी और उसने गांधी को केवल कांग्रेस की बपौती होने के चस्पा लेबल से निकाल सबका गांधी बना दिया। गांधी कुटीर उद्योगों के माध्यम से रोजगार को हर हाथ तक पंहुचाकर हिंदुस्तान बनाने का सपना पाले थे । और स्किल इंडिया का पैगाम भी कमोबेश यही है स्वदेशी के प्रोत्साहन के लिए ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम पर बल भी गांधीजी के चिंतन कर मुहर लगाने जैसा ही मानना चाहिए ।
गांधी रोज – रोज पैदा नहीं होते या यूं कहिए कि गांधी पैदा होते ही नहीं बल्कि गांधी बनना पड़ता है गढ़ना पड़ता है । गांधी बनने के लिए अड़ने , लड़ने , कुव्वत से काम पर जुटने , आखिरी अंजाम तक पंहुचने से पहले किसी भी हालत में न थकने और न ही रुकने का दम चाहिए । हिंसा व ताकत के खिलाफ लड़ने के लिए अविजेय आत्मबल चाहिए , सुविधाओं को लात मारने की निस्पृहता चाहिए , पद से दूर रहने व सत्ता से न घबराने का दिल चाहिए तब कहीं जाकर थोड़ा बहुत ‘महात्मा ’बना जा सकता है और गाधी ने उस काल में महात्मा बनकर दिखाया जब काल सर पर खड़ा दिखता था। बेशक बेहतरी के लिए आज भारत को एक और गांधी चाहिए । ऐसा गांधी जिसके पास नई सोच हो, नया हिंदुस्तान बनाने का जज़्बा हो और जो सर्वहारा वर्ग की चिंता करने वाला, चिंतनशील नायक बनकर उभर सके चाहिए एक और नई सोच का गांधी
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)