प्रेम शब्द का इस हद तक दुरुपयोग हुआ है कि हर एक कदम पर इसके अर्थ को लेकर प्रश्न खड़े होते है। यदि यह सच्चा प्यार है तो, यह ऐसा कैसे हो सकता है?सच्चा प्रेम वही है जो कभी बढ़ता या घटता नहीं है। मान देनेवाले के प्रति राग नहीं होता, न ही अपमान करनेवाले के प्रति द्वेष होता है। ऐसे प्रेम से दुनिया निर्दोष दिखाई देती है। यह प्रेम मनुष्य के रूप में भगवान का अनुभव करवाता है।संसार में सच्चा प्रेम है ही नहीं। सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है जिसने अपने आत्मा को पूर्ण रूप से जान लिया है। प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है।
दुःख देता है। विरह भी बड़ा कष्टकारी होता है, दुःख देता है। एक इच्छा भी मन के भीतर बड़ा भारी दुःख पैदा करती है, और तो और दूसरों को खुश करना भी बड़ा दुःख ही है, बोझ है, फिर यह जानने की इच्छा कि वो खुश हुए की नहीं, यह भी बड़ा कष्टकारी है। तुम दूसरे व्यक्ति के मन को ओर-छोर तक पूरी तरह से जान लेना चाहते हो। तुम अपने मन को ही पूरी तरह से नहीं जानते हो और दूसरे के मन को जानने की चेष्ठा करते रहते हो। किसी की बातों और व्यवहार से उनके मन को जान लेना असंभव है, जीभ तो कैसे भी दाएं-बाएं हिलती रहती है, उसमें हड्डी नहीं होती, इसका कोई भरोसा नहीं होता। जीभ स्थिर कहाँ होती है, तुम आज कुछ बोलते हो कल को कुछ और ही बोल सकते हो। तुम अपनी जुबान पर भरोसा नहीं कर सकते, चाहे तो तुम संसार में किसी पर भी भरोसा करो।
इसी तरह किसी और की इच्छा के अनुसार चलना भी बड़ा दुखदाई है। तुम्हें अभी किसी के साथ कुछ अच्छा लगा, कुछ प्रेम महसूस हुआ और वो अगले क्षण वैसे नहीं होता है तो वह भी दुखदाई बन जाता है। यदि तुम कोई आध्यात्मिक साधना करते हो तो उसमें भी बड़ा यत्न करना पड़ता है, जिसमें दुःख होता है। यदि साधना नहीं करते हो तो कहीं ज्यादा दुःख होता है। “ओह, मैंने ध्यान नहीं किया, मुझे अच्छा नहीं लग रहा” या फिर “अरे, ध्यान कितना अच्छा है पर यह समाप्त होने वाला है, मेरा अच्छे से नहीं हुआ, मुझे और करना था”, ऐसे कुछ न कुछ शिकायत बनी ही रहती है।