हमारे पुराणों या पूर्वजों ने हमें बहुत सारी सीख़ देने का प्रयास किया है।हम पर निर्भर यह करता है की हम उनसे क्या सीख़ रहे हैं। जैसा आप सब जानते हैं कि महाभारत में वर्णित वीरों की कथाओं में अर्जुन की कथा बड़ी शिक्षाप्रद है। अर्जुन लक्ष्यभेध में सर्वोपरि समझे जाते थे। विद्यार्थी काल में उन्होंने एक वृक्ष पर स्थापित काठ की चिड़िया का सर सफलता पूर्वक भेध कर अन्य विद्यार्थियों के सामने अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित कर दी थी। उनके अचूक लक्ष्यभेध का प्रमुख कारण यह था कि उनकी दृष्टि एक मात्र लक्ष्य पर ही गड़ी रहती थी। उस कथा का निष्कर्ष यह है कि यदि आप अपने जीवन में निश्चित तथा अचूक सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो प्रारम्भ में ही एक लक्ष्य का चुनाव कर लीजिये। जेम्स ऐलेन नामक अंग्रेजी के एक लेखक ने अपने एक लेख- सफलता का रहस्य में एक लक्ष्य के चुनाव को सबसे अधिक महत्व दिया है। खेद की बात है कि बहुत कम लोग अपने जीवन के ध्रुव लक्ष्य को पहचानने के लिये अपने भाग्य और भगवान को कोसते हैं।
अंग्रेजी की एक कहावत है- यदि आपके कार्य का श्रीगणेश ठीक से हुआ है, तो आपको काफी सफलता प्राप्त होगी। यह बात सही भी है। जीवन का श्रीगणेश ‘लक्ष्य निश्चय’ के साथ ही होना चाहिये। यदि लक्ष्य निश्चित हो गया, तो आपके जीवन के समस्त कार्य व्यापार व उद्देश्य नियमबद्ध हो जाते हैं। यदि किसी जहाज का कोई गन्तव्य स्थान निश्चित न हो तो वह समुद्रों में लाखों मील का सफर कर डालने पर भी इधर-उधर भटकता रहेगा और उसकी यात्रा अधूरी रहेगी।
संसार रूपी समुद्र के किसी तट पर जीवन नौका के जा ठहरने पर किसी मनुष्य को संतोष नहीं हो सकता। यदि मनुष्य की जीवन नौका जहाँ-तहाँ जा टकराए तो ‘मनुष्य’ और घास के तिनके में अन्तर क्या रहा? वह मनुष्य क्या है, जो परिस्थितियों के प्रभाव में इधर उधर बह जाने को ही जीवन की सार्थकता मानता है। वास्तव में हमारी शिक्षा दीक्षा के समस्त आयोजन ही इसलिए किये जाते हैं कि जीवन के प्रभात काल में ही प्रत्येक मनुष्य के जीवन का लक्ष्य निश्चित हो जाये और जीवन की संध्या तक पहुँचते पहुँचते यह एक लंबी यात्रा पूरी कर सके। व्यक्तिगत जीवन में लक्ष्य निर्धारित होने से मनुष्य सफलता की सीढ़ी पर द्रुतगति से चढ़ता जाता है। एक समाज अथवा राष्ट्र का लक्ष्य निश्चित होने से सारा समाज या देश उन्नति के शिखर पर आसीन हो सकता है।
हर व्यक्ति को अपने जीवन में कोई ना कोई उद्देश्य जरूर रखना चाहिए। एक लक्ष्य ही होता है, जो हमें हमारे सपनों तक पहुंचा सकता है और हमें एक अलग पहचान दे सकता है। जिस व्यक्ति का कोई सपना नहीं होता, कोई लक्ष्य नहीं होता, वह जिंदगी में कुछ नहीं कर सकता। ऐसे लोगों को ही अक्सर कहते सुना है कि हमारी किस्मत ही हमारे साथ नहीं है।अगर हम मेहनत ही नहीं करेंगे तो हमें फल कहां से मिलेगा। इसीलिए भगवान ने भी गीता में कहा है कि कर्म करते रहो फल की इच्छा मत करो।
आपको हर व्यक्ति से सुनने को मिलेगा कि हमारा लक्ष्य यह है, हम यह बनना चाहते हैं। कुछ लोग डॉक्टर बनना चाहते हैं, तो कुछ लोग इंजीनियर बनना चाहते हैं, कुछ लोगों को बच्चों को पढ़ाने में दिलचस्पी होती है, इसलिए वे शिक्षक बनना चाहते हैं, कुछ लोग अभिनेता बनना चाहते हैं, जबकि वहीं कुछ लोग नेता बनना चाहते हैं। हमारा तात्पर्य यह है कि इंसान वही बनना चाहता है, जिसमें उसकी रूचि होती है, जिसमें वह आत्मसमर्पण से मेहनत कर सकता है।कुछ लोग अपने लक्ष्य को अपनी हैसियत के हिसाब से चुनते हैं, तो कुछ लोग अपने लक्ष्य अपनी सोच के हिसाब से, जिसकी जैसी सोच होती है, वैसा ही वह लक्ष्य चुनता है। कुछ लक्ष्य तो सुनने में और करने में अच्छे होते हैं, परंतु कुछ लक्ष्य ऐसे होते हैं जो हमें अपने लक्ष्य से भ्रमित कर सकते हैं।देखा जाए तो जीवन में हर व्यक्ति को चुनौतियां और समस्याओं का सामना करना पड़ता है। परंतु जीवन में किसी भी व्यक्ति को हार नहीं माननी चाहिए। हमें तब तक प्रयास करना चाहिए, जब तक हमारा शरीर हमारे साथ है। यह बिल्कुल सच वाक्य है कि बिना उद्देश्य वाला व्यक्ति जीवन में कभी कुछ नहीं कर सकता, उसका जीवन जानवर के समान होता है। ऐसा कहा जाता है कि इंसान और जानवर में यही फर्क होता है।
जीवन के लक्ष्य का निश्चय जितनी जल्दी हो जायेगा, मनुष्य उतना ही अधिक लाभ में रहेगा। लक्ष्य निर्धारित करने के लिये कोई विशेष आयु नहीं स्थिर की जा सकती है। फिर भी उत्तम यह है कि विद्यार्थी जीवन में या उसकी समाप्ति होने तक प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य अवश्य ही निश्चित हो जाना चाहिये। चौदह से लेकर बीस वर्ष की आयु तक में लक्ष्य का स्थिर हो जाना उपयोगी सिद्ध होता है। यदि जीवन की औसत सीमा पचहत्तर वर्ष मान ली जाय, तो मनुष्य को जुटकर काम करने के लिये लगभग 40-45 वर्ष मिलते हैं। प्रारम्भिक आयु में लक्ष्य स्थिर हो जाने से, मनुष्य को अपने अंतिम काल में अपनी सफलता का सुख उठाने का अवसर मिल जाता है। लक्ष्य प्राप्ति के लिये काफी समय तक संघर्ष करना पड़ता है। यदि देर में लक्ष्य निश्चित हुआ, तो संघर्ष करते करते जीवन का अन्त आ जाता है और मनुष्य उस आनन्द से वंचित रह जाता है। जो सफलता के अन्त में प्राप्त होता है।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि लक्ष्य चुना कैसे जाय। अच्छा तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य स्वयं चुने। वह अपनी सहज नैसर्गिक शक्तियों, रुचियों, सामर्थ्यों और अर्जित योग्यताओं के विषय में जितना अधिक जानता है, उतना अन्य जन नहीं जानते। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक नवयुवक को अपने जीवन का लक्ष्य चुनने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। इस सम्बन्ध में एक आपत्ति यह हो सकती है कि इस आयु में मनुष्य अनुभव हीन होता है, उसे असफलता और उस के दुष्परिणामों का ज्ञान नहीं होता। इसलिये वह ठीक से लक्ष्य का चुनाव करने में असमर्थ रहता है। ‘प्रयत्न और भूल’ के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार नवयुवक को चलने देना उचित न होगा क्योंकि लक्ष्य चुनाव में भूल घातक सिद्ध हो सकती है। इस दृष्टि से कुछ लोगों का मत है कि माता-पिता, शुभचिन्तकों और शिक्षकों पर ही नवयुवकों के लक्ष्य चुनाव के प्रश्न को छोड़ देना चाहिये। यह पहलू भी बहुत उत्तम नहीं प्रतीत होता। कभी-कभी माता-पिता कुछ मोहवश और कभी अज्ञानवश बालकों के लिये एक ऐसा लक्ष्य चुनने के लिए लालायित रहते हैं जिसकी प्राप्ति में वे स्वयं अपने जीवन में असफल हो चुके होते हैं। वे अपने बच्चों को अपनी अपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति का साधन बनाना चाहते हैं। उन्हें बच्चों की शक्तियों और उनकी सीमाओं का तनिक भी ज्ञान नहीं होता। ऐसी दशा में जानबूझकर बालकों को असफलता के मार्ग में ढकेले जाने की संभावना रहती है। लक्ष्य चुनाव के लिये शिक्षक कुछ अधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं क्योंकि वे निष्पक्ष दृष्टि से अपने विद्यार्थियों की योग्यताओं और रुचियों को पहचान सकते हैं और इस कार्य के अनुकूल योग्यता भी रखते हैं। पर कठिनाई यह है कि हमारी शिक्षा का ढाँचा कुछ ऐसा है कि शिक्षक इस काम को कर नहीं पाते।
हमारे सामने तो बीच का रास्ता है। नवयुवकों को लक्ष्य चुनाव में सहायता देने के लिये पाठशालाओं और माता-पिता का सहयोग होना चाहिए। हर्ष की बात है कि सरकार की ओर से हमारे देश में पथ-प्रदर्शन सेवाओं का संगठन किया जा रहा है। अन्य उन्नत देशों में इस प्रकार की सेवाओं का विधिवत् संचालन हो रहा है। हमारे पास तो जो धन उपलब्ध है, उन्हीं से कार्य ले सकते हैं। वर्तमान में माता-पिता और अध्यापकों का ही यह कर्तव्य है कि वे लक्ष्य चुनाव के काम में नवयुवकों का मार्ग दर्शन करें। हमारे देश में माता-पिता इस दृष्टि से बहुत पिछड़े हैं, वे अपने बच्चों के लिए भोजन वस्त्र और यत्किंचित् शिक्षा की व्यवस्था तो कर देते हैं परन्तु जीवन के लक्ष्य के सम्बन्ध में कभी पूछताछ तक नहीं करते। उन्हें इस उदासीनता का त्याग करना चाहिए। लक्ष्य का निश्चय न होने से हमारे नवयुवकों की शक्ति का अपव्यय होता है और राष्ट्र की भारी हानि होती है।
लक्ष्य का चुनाव आवश्यक है परन्तु उसके बाद भी कुछ बातें रह जाती हैं। एक पथिक को घने बीहड़ जंगल से होकर जाने वाले मार्ग पर लाकर खड़ा कर देने से ही काम नहीं चलता। उस मार्ग पर उसे सुरक्षा पूर्वक कुछ दूर पहुँचाना भी आवश्यक है। जिससे उसके मन में आत्मविश्वास का भाव जाग्रत हो जाय। आत्मविश्वास पैदा होते ही वह अपने मार्ग पर अकेला जा सकेगा। प्रारम्भ में भूलें होने की अधिक संभावना रहती है और प्रारंभ की भूलें खतरनाक होती हैं। अस्तु लक्ष्य चुनाव के पश्चात् भी कुछ समय तक नवयुवकों का पथ -प्रदर्शन करते रहना चाहिए। उसके आगे निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना मनुष्य का अपना निजी कर्तव्य और उत्तरदायित्व होता है।
प्रत्येक मनुष्य को यह स्मरण रखना चाहिए कि लक्ष्य निश्चित कर लेने के बाद भी उसके मार्ग में बड़े-बड़े प्रलोभन आयेंगे। लक्ष्य दूर होता ही है और उससे होने वाला लाभ भी दूरस्थ होता है। बीच में ऐसे अनेक काम आ सकते हैं, जिनसे तात्कालिक लाभ होने की संभावना रहती है। ऐसे लाभ को देखकर मनुष्य का मन डगमगाने लगता है। वह विचलित होकर पथभ्रष्ट हो जाता है। ऐसे अवसरों पर मन को दृढ़ रखने की आवश्यकता है। अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति मनुष्य को हर दशा में सजग रहना चाहिए। इसका एक उत्तम उपाय यह है कि प्रतिमास या प्रतिवर्ष अपने कार्यों और उपलब्धियों की अवश्य जाँच करनी चाहिए। इससे अपनी प्रगति का अनुमान हो जाता है, उत्साह बढ़ता है और लक्ष्य पर दृष्टि जमी रहती है। मनुष्य को किसी ऐसे क्षेत्र में पदार्पण नहीं करना चाहिए, जिससे अपने निश्चित लक्ष्य का विरोध हो। ऐसे मित्रों या संगति से भी दूर रहना चाहिए जिनके प्रभाव से लक्ष्य विमुख होने की संभावना हो। यदि आपने संगीत में नैपुण्य प्राप्त करने को अपने जीवन का लक्ष्य चुना है तो क्रिकेट खेलने या बटेर लड़ाने वाले के साथ मैत्री रखने में पथ भ्रष्ट हो जाना सम्भव है। अपना अध्ययन, चिन्तन और मनोरंजन सभी कुछ लक्ष्य के अनुकूल हृदय मंदिर में जलती रहे और उसका कोना-कोना प्रकाशित रहे, इस बात को स्मरण रखना है।
मुस्कान में इतनी ताकत है कि इससे वातावरण को बदला जा सकता है। अगर इस आदत को अपने व्यक्तित्व में उतार लिया जाए, तो जीवन आसान हो सकता है। जिस परिवार में इस पर ध्यान दिया जाएगा, उस घर-परिवार में कभी कटुतापूर्ण सम्बन्ध नहीं बनेंगे, बल्कि उनके सम्बन्ध प्रेमपूर्ण बनकर ही रहेंगे। मुस्कान को जीवन की धरोहर मानना चाहिए। हमें 4 चीजों को अपने जीवन में उतारना चाहिए- धन्यवाद देना, प्रशंसा करना, माफी मांगना और मुस्कुराना। एक मुस्कुराहट पूरा माहौल बदल देती है। मुस्कान हमारे चेहरे का श्रृंगार है।
अन्त में, आप यह भी स्मरण रखें कि जो आपका लक्ष्य स्थिर है, तो आप सैकड़ों व्याधी से दूर रहेंगे। आपका मन अनिश्चित और अन्तर्द्वन्द्व से मुक्त रहेगा। दुविधापूर्ण परिस्थितियों में निर्णय ले सकेंगे और आपकी इच्छा शक्ति बनेगी। आप समय का सदुपयोग करना सीख सकें क्योंकि जब फालतू बातों की ओर आपका ध्यान न जायेगा तो समय का अपव्यय अपने आप रुक जायेगा। प्रायः आप अपनी शक्ति की संपदा का भारी अपव्यय करते रहते हैं परन्तु लक्ष्य के निश्चय से आपकी शक्ति का एक एक कण उसी की पूर्ति में लगेगा। आपको तभी अपनी शक्ति का अनुमान होगा। सूर्य की किरणों में यों साधारण गर्मी ही है परन्तु जब बहुत सी किरणें आतिशी शीशे द्वारा एक केन्द्र बिन्दु पर इकठ्ठा करली जाती हैं, तो उनमें भस्म कर देने की शक्ति आ जाती है। आप निर्बलता का अनुभव इसलिए करते हैं कि आप की शक्तियाँ बिखरी रहती हैं। आपका लक्ष्य ही आपकी शक्तियों को समेटने वाला आतिशी शीशा है। अब यह स्मरण रखें कि जीवन का लक्ष्य एक हो।
मनुष्य का जन्म एक उद्देश्य के लिए होता है ना कि मनुष्य का जन्म केवल खाने-कमाने, मौज-मस्ती करने तक ही सीमित रखने का होता है। सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक, राजनीतिक, सीमा बंधन तक ही उसका जीवनबंधा नहीं होता है। जन्म से मृत्यु तक को एक निश्चित अवधि सुख-दु:ख, लाभ-हानि, मान-अपमान की परिस्थितियां यह सोचने पर विवश करती है कि मनुष्य जिस दिशा में चल रहा है यह उसकी दिशा नहीं है। मनुष्य की सोच में बौद्धिक क्षमता यह बताती है कि मनुष्य कोई विशेष लक्ष्य लेकर इस धरती पर अवतरित हुआ होता है। इस विशाल अंतरिक्ष गगन स्पर्शी पर्वत तक विस्तृत सागर सूर्य चंद्र ग्रह नक्षत्र सभी इंगित करते हैं कि इस जीवन से भी आगे कुछ है। अशांति दुख और क्षोभ का कारण यही है कि हमें आत्म-ज्ञान नहीं होता है। अपने लक्ष्य का भान नहीं होता है। यह अस्थिरता तब तक बनी रहती है जब तक मनुष्य अपना लक्ष्य नहीं जानता है,अपने मौलिक स्वरूप को नहीं पहचानता है। इस संसार में अनेकों प्रकार के जीव-जंतु, कीट-पतंगे, पशु-पक्षी और प्राणी विद्यमान है। कई शारीरिक शक्ति में बड़े हैं, कई सुंदर, कितनों ने प्राण शक्ति के आधार पर अनेकों प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वाभ्यास पा लेने में अजीब क्षमता पाई है, तो कई स्वच्छंद विचरण के क्षेत्र में आज के विज्ञान युग से भी अधिक पटु है किंतु एक सारी विशेषताएं किसी में भी उपलब्ध नहीं है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और अनेकों आत्मिक समुदाय मनुष्यों में ही दिखाई देती है।मनुष्य जीवन की इस व्यवस्था को देखते हैं तो यह लगता है कि यह किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही हुआ होगा। एक ही स्थान पर अनेकों शक्तियों का केंद्र का निश्चय ही अर्थपूर्ण है।
मनुष्य को ही धरती पर औरों की अपेक्षा अधिक बल, बुद्धि, विद्या और विवेक मिला है। यह बात तो हमें समझ में आती है किन्तु शक्तियों का संपूर्ण उपयोग बाह्य जीवन तक ही सीमित रखने में उसने बुद्धिमत्ता से काम नहीं लिया।अपने ज्ञान विचार, विज्ञान को शारीरिक उपयोगी के निमित्त लगा देने में उसने धोखा ही खाया है। दुखों का कारण यह भी है कि हम अपने सास्वत स्वरुप को पहचाने का पर्यतन नहीं करते और नाशवान शरीर वाह्य इंद्रियों की पूर्ति के गोरखधंधे में ही अपना सारा समय बर्बाद कर देते हैं और अंत समय सारी भौतिक संपदा यही छोड़कर चल देते हैं। इस कटु सत्य का अनुभव सभी करते हैं किंतु अंतरंग कक्षा में प्रवेश होने से दूर भागते हैं कभी यह विचार तक नहीं करते हैं कि इस विश्वव्यापी प्रक्रिया का कारण क्या है। हम क्या है और जीवन धारण करने का हमारा लक्ष्य क्या है। ढेर सारी सम्पदा मिली है इसीलिए कि इनका उपयोग अंतर दर्शन के लिए किया जाए अपने को भी नहीं पहचान पाए तो इस शरीर का बौद्धिक शक्तियों का सदुपयोग क्या रहा।मनुष्य का जन्म अपने आप में एक आत्म मंथन है। जीवन में प्रदर्शन नहीं आत्म दर्शन होना चाहिए। सांसारिक मोह-माया में फंसे प्राणी सांसारिक मृगतृष्णा में ही अपने सुखों को खोजने में अमूल्य जीवन गंवा देते है।