पुण्य नहीं परम कर्तव्य है माता-पिता की सेवा करना…..

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सीताराम गुप्ता

क पोस्ट पढ़ रहा था – किसी ने पुण्य कमाए और किसी ने उपवास रखा, हमने पुण्य नहीं कमाए बस माँ-बाप को अपने साथ रखा। इससे स्पष्ट होता है कि माँ-बाप को अपने साथ या पास रखना व उनकी सेवा करना पुण्य का काम है। प्रायः अधिकांश लोग यही कहते हैं कि यदि हम पूजा-पाठ, व्रत-उपवास या तीर्थाटन न करके माँ-बाप की सेवा मात्र करें तो उसका बड़ा पुण्य हमें मिलता है। तो क्या हम पुण्य कमाने मात्र के लिए माँ-बाप की सेवा करते हैं? यदि माँ-बाप की सेवा करने से पुण्य न मिले तो क्या हम उनकी सेवा और देखभाल करना छोड़ देंगे? जब हम लाभ के लिए कोई कार्य करते हैं तो वो एक व्यापार जैसी क्रिया ही होती है। यदि हम पुण्य कमाने के उद्देश्य से माँ-बाप की सेवा करते हैं तो वो भी एक व्यापार मात्र ही माना जाना चाहिए और लाभ अथवा पुण्य- प्राप्ति के उद्देश्य को लेकर की गई सेवा के लिए हम गर्व नहीं कर सकते। एक दृष्टांत याद आ रहा है।


दो व्यक्ति आपस में बातें कर रहे थे। एक व्यक्ति ने कहा – भाई मेरा छोटा सा परिवार है। पत्नी और दो बच्चे हैं। माँ-बाप भी हमारे साथ ही रहते हैं। दूसरे ने कहा – भाई मेरा भी छोटा सा परिवार है। पत्नी और दो बच्चे हैं। माता-पिता भी हैं और हम उनके साथ ही रहते हैं। दोनों व्यक्तियों की बातों का समान अर्थ है लेकिन उनके भावों में रात-दिन का अंतर है। जब हम ये कहते हैं कि हमारे माँ-बाप हमारे साथ रहते हैं अथवा हम उन्हें अपने साथ रखते हैं उनकी सेवा करते हैं तो ये वाक्य ही हमारे खोखलेपन व दंभी चरित्र को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। इसमें अहंकार का भाव साफ झलकता है। माँ-बाप अपने बच्चों को साथ रखते हैं अथवा बच्चे माँ-बाप को साथ रखते हैं? जिस दिन हमें ये आभास हो जाएगा कि हम अपने माता-पिता के साथ रहते हैं और माता-पिता को ये अनुभव होने लगेगा कि हम अपने बच्चों के साथ रहते हैं न कि बच्चे हमें रखे हुए हैं उसी दिन स्थितियाँ बदल जाएँगी।


हमें माता-पिता की सेवा के साथ-साथ अपनी सोच भी बदलनी चाहिए लेकिन जो लोग माँ-बाप की उपेक्षा करते हैं अथवा उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं उनसे वे लोग कहीं अधिक अच्छे हैं जो पुण्य कमाने के लोभ से ही सही माता-पिता का ध्यान तो रखते हैं। वास्तव में माता-पिता की देखभाल ओर सेवा-शुश्रूषा एक कर्तव्य है, एक उत्तरदायित्व है जिसका निर्वाह करना अनिवार्य है। ऐसा न करना केवल अनैतिकता ही नहीं अपराध भी है। जब हम अपने कर्तव्यों का भली-भाँति पालन करते हैं व अपने उत्तरदायित्वों का ठीक से निर्वहन करते हैं तभी एक अच्छे नागरिक अथवा एक नेक इंसान कहलाने के अधिकारी बनते हैं। हम सभी को ऐसा करना चाहिए। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या भली-भाँति अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए अथवा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के बदले में आत्मप्रशंसा अथवा किसी की प्रशंसा अथवा प्रमाण-पत्र अपेक्षित है…..?

माता-पिता जाग्रत देव है यदि आप माता – पिता व गुरू के प्रति सच्ची श्रद्धा नहीं रखते तो परमात्मा के प्रति क्या सच्ची श्रद्धा रख पायेंगे। परमात्मा भी आप पर तभी कृपा बरसायेगा जब आप माता – पिता व गुरू की सेवा करोंगे।भगवान उसकी पूजा कभी स्वीकार नहीं करते जो माता-पिता व गुरू का अपमान करता हो। अनेक यज्ञ करने पर भी जो पुण्य नहीं मिलता वह माता-पिता की सेवा करने पर प्राप्त होता है।जिन लोगो को माता – पिता की सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है वह बहुत भाग्यशाली है यदि आप माता-पिता से दूर रहते है तो भी चौबीस घण्टे में एक बार उनकों याद करके मन ही मन प्रणाम जरूर करों।


वास्तव में प्रशंसा उस कार्य की होनी चाहिए जिसमें अपने कर्तव्यों अथवा उत्तरदायित्वों से बढ़कर कोई कार्य किया जाए अथवा अपने-पराए की भावना से ऊपर उठकर समाज अथवा राष्ट्र के लिए निस्स्वार्थ व निष्काम भाव से कोई उपयोगी कार्य किया जाए। कई कार्य स्वाभाविक रूप से करने होते हैं। उनके लिए किसी भी प्रकार की गर्वोक्ति ठीक नहीं लगती। एक माँ अपने बच्चे को दूध पिलाती है जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है। पर क्या अपने इस काम के लिए वो अपनी प्रशंसा करती फिरती है? बिलकुल नहीं। लेकिन यदि वो ऐसा न करे तो शायद उसकी सबसे अधिक भर्त्सना की जाए। श्रवण कुमार अपने माता-पिता को बहँगी में बिठाकर तीर्थयात्रा पर ले गया। उसका ये विलक्षण कार्य प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। जिन लोगों को माता-पिता की सेवा करने का दंभ है वे जरा विचार करके देखें कि क्या उन्होंने सचमुच ऐसा कुछ किया है जो सामान्य से अधिक अथवा विलक्षण हो…….?


माता-पिता अपने बच्चों की खुशियों के लिए क्या कुछ नहीं करते? खुद कष्ट सह लेते हैं पर बच्चों की अच्छी से अच्छी परवरिश करने का प्रयास करते हैं। क्या हमने भी कभी अपनी आवश्यकताओं का गला घोंटकर उनकी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास किया है? क्या उनकी इच्छानुसार ही हम उनकी देखभाल कर रहे हैं? यदि हम ऐसा कर रहे हैं तभी हम अपने कर्तव्यों का ठीक से पालन कर रहे हैं। माता-पिता बचपन में अपने छोटे बच्चों को जितना प्यार करते हैं यदि वृद्धावस्था में भी वे उनसे उतना ही प्यार नहीं कर पा रहे हैं तो इससे प्रमाणित हो जाता है कि उनकी देखभाल में कहीं न कहीं कोई कमी अथवा लापरवाही अवश्य है। हमें चाहिए कि हर हाल में माता-पिता का प्यार प्राप्त करें और ये दंभ न करें कि हम माता-पिता की सेवा करते हैं और औरों से अधिक अच्छी तरह करते हैं।

हम धर्म को बचाने की बात करते हैं। संस्कारों की बात करते हैं। संस्कृति की रक्षा करने की मांग करते हैं। देश की सुरक्षा की बात करते हैं, पर क्या कभी घर के एक कोने में बैठे माता पिता की बात करते हैं ? वे माता पिता जिन्होंने हमें जीवन दिया।जीने का तरीका सिखाया।सम्मान पूर्वक जीवन यापन करने के योग्य बनाया। जिन्होंने सब कुछ दिया उनको हम भूल गए हैं और आंखों पर पट्टी बांध कर घर के बाहर समाज,धर्म और देश के तथाकथित ठेकेदारों को महत्व दे रहे हैं।


हम औरों से अधिक अच्छी तरह अपने माता-पिता की सेवा करते हैं ये भी एक भ्रम से अधिक कुछ नहीं है। अभी लॉकडाउन में मजदूरों के पलायन से संबंधित बहुत से दर्दनाक चित्र देखने में आए। उनमें एक चित्र ऐसा भी था जिसमें स्वयं एक कृषकाय बूढ़ा व्यक्ति अपनी पिचासी-नब्बे साल की माँ को अपने कंधों पर उठाए हुए जा रहा था और उसे हजार डेढ़ हजार किलोमीटर का सफर इसी हालत में पूरा करना था। हम क्या खाकर उस गरीब इंसान की सेवा का मुकाबला करेंगे? हम उससे प्रेरणा ले सकते हैं। हम और बेहतर करने का प्रयास कर सकते हैं। हमें करना भी चाहिए लेकिन माता-पिता की सेवा के रूप में हम कितना भी ज्यादा से ज्यादा क्यों न करें उसके लिए हमें फूलकर कुप्पा होने की आवश्यकता नहीं। वास्तव में हम अपने माता-पिता के लिए जो कर रहे होते हैं प्रायः वो उनकी परवरिश और त्याग के मुकाबले में कहीं भी नहीं ठहरता।


जब हम किसी से कोई ऋण लेते हैं तो उसको चुकाना और ब्याज समेत चुकाना हमारा दायित्व बनता है। यदि हम ब्याज समेत किसी का ऋण चुका देते हैं तो ये एक अच्छी बात है क्योंकि ये एक व्यावसायिक अनिवार्यता है जिसके अभाव में हम दोषी अथवा अपराधी ही ठहराए जाएँगे। माता-पिता की सेवा भी एक ऋण माना गया है। इस ऋण को चुकाने के लिए भी किसी प्रशंसा-पत्र की माँग करना अथवा अपनी पीठ ठोकना पूर्णतः गलत होगा। इस ऋण को चुकाने के संदर्भ में कई लोग ये दर्पोक्ति करते सुने जाते हैं कि पहले हमारे माँ-बाप ने हमारी परवरिश की अब हम उनकी परवरिश करेंगे, उनके माँ-बाप बनेंगे। माता-पिता की सेवा करके हम उनके माता-पिता बनने का अहंकार क्यों पालना चाहते हैं….? क्या आज्ञाकारी व सेवाभावी पुत्र-पुत्री अथवा पुत्रवधु बनने में कम सम्मान की बात है……?

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