क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था पूरी तरह असफल..?

113
क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था पूरी तरह असफल..?
क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था पूरी तरह असफल..?
हृदयनारायण दीक्षित
हृदयनारायण दीक्षित

  संसद और विधानमंडल अपने कामकाज के खुद मालिक होते हैं। संसद में बोलने और विचार रखने की पूरी स्वतंत्रता होती है। उसकी कार्यवाही को सिर्फ छोटी-मोटी प्रक्रिया की गलतियों के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। संसद की कार्यवाही में अध्यक्ष का फैसला सबसे ऊपर माना जाता है। अध्यक्ष की असली गरिमा उनकी निष्पक्षता और तटस्थता में है। संसदीय प्रणाली में खुद को सुधारने की क्षमता है। क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था पूरी तरह असफल..?

   संसद तमाम प्रयासों के बावजूद ठीक से नहीं चल रही है। इसी तर्ज पर राज्यों के विधान मण्डल भी हल्ले गुल्ले का शिकार हो रहे हैं। बीते बुधवार व गुरुवार {20/21 अगस्त 2025} को संसदीय कार्यवाही में बाधा डाली गई। कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों ने सदन में विधेयकों की प्रतियां फाड़ दीं। बाधा व्यवधान के कारण संसद और विधान मण्डल में कार्य दिवस घटे हैं। शांतिपूर्ण बहसें नहीं होतीं। पूरा मानसून सत्र घोर अव्यवस्था का शिकार हुआ। मानसून सत्र में लोकसभा सिर्फ 37 घंटे ही चली और राज्यसभा में कुल 41 घंटे 15 मिनट काम हुआ। मूलभूत प्रश्न है कि क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था पूरी तौर पर असफल हो गई है..? क्या इसको बचाने के लिए कोई उपाय हैं?


सदनों की घोर अव्यवस्था राष्ट्रीय चिंता है। समय-समय पर लोकसभा के अध्यक्ष के नेतृत्व में इस विषय पर गंभीर चर्चा होती रहती है। पिछली लोकसभा के समय देश के सभी विधानसभा अध्यक्षों, पीठासीन अधिकारियों और राज्यसभा के पीठासीन अधिकारियों का एक सम्मेलन गुजरात के केवड़िया में हुआ था। गंभीर चर्चा हुई थी। इसके पहले भी लगभग हर साल सदनों के व्यवधान पर पीठसीनों के सम्मेलनों में गंभीर चर्चा हुई थी। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने सदनों के व्यवधान की समस्या पर विचार विमर्श के लिए समिति बनाई थी। मैं इस समिति का संयोजक बना था। एक विधायक के रूप में मैंने 6 कार्यकाल सदन की कार्यवाही को निकट से देखा है। सदनों में अव्यवस्था व व्यवधान की समस्या को आसानी से नहीं सुलझाया जा सकता। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर विचार विमर्श जरूरी है।


संसद और विधानमण्डल अपने कार्य संचालन की प्रक्रिया के स्वामी हैं। संविधान में संसद परिपूर्ण विचार स्वातंत्र्य है। कार्यवाही की विधि मान्यता प्रक्रियागत त्रुटि के आधार पर चुनौती न दिए जाने के अधिकार हैं। संसदीय कार्यवाही में अध्यक्ष, पीठासीन का निर्णय सर्वोपरि माना जाता है। अध्यक्ष की एक विशेष गरिमा है। इस गरिमा का मूल आधार तटस्थता और निष्पक्षता है। दलबदल कानून को लेकर अध्यक्षों पर कई सवाल उठे हैं। बात सर्वोच्च न्यायपीठ तक पहुंची है। यह गरिमा का विषय ही था कि एक समय लोकसभा अध्यक्ष आयंगर ने कहा था कि, ”मैं एक दल और दूसरे दल में भेद नहीं करता।” लेकिन उन्होंने कांग्रेस संसदीय दल से त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेस के सदस्य बने रहे। संसदीय प्रणाली में आत्म रूपांतरण की शक्ति होती है, लेकिन आत्मसुधार बहुत आसान नहीं होता।

स्वयं को अनुशासित बनाए रखना अग्नि पर चलने जैसा कष्ट साध्य है। कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं, जिनमें अध्यक्ष, पीठासीन के सामने चुनौती होती है। सरकार सदनों में बजट के सारे बिन्दु रखती है। बजट का पारण महत्वपूर्ण संसदीय कार्य है, लेकिन सदनों के भीतर होने वाले शोरगुल और व्यवधान बहस का समय खा जाते हैं। तब भारी व्यवधान के बीच ही बजट का पारण होता है। बजट के महत्वपूर्ण प्रावधान भी बिना बहस पारित होते हैं। यह अच्छी परंपरा नहीं है, लेकिन इसका विकल्प भी नहीं है। विधेयक पारित कराना सरकार की प्राथमिकता है। अव्यवस्थित सदन में बजट पर विचार नहीं हो पाता। समाज को प्रभावित करने वाले विधायकों पर चर्चा नहीं होती। व्यवस्थित सदन में बिना बहस बजट का पारण होता रहा है। ऐसे ही संसदीय व्यवस्था पिटती रही है।


व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप बहुत खतरनाक होते हैं। असहमति के अधिकार बेशक प्रत्येक के पास होते हैं, लेकिन असहमति और शत्रुता में फर्क करना चाहिए। देश के प्रायः सभी सदनों में व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप लगते हैं। शब्द का अपना सामर्थ्य होता है। शब्द की मार बड़ी है। शब्द को गाली गलौज के लिए उपयोग करना निंदनीय है। पतंजलि ने ’महाभाष्य’ में लिखा है कि, ”शब्द को निश्चित स्थान पर रखने से भाव बदलते हैं।” लेकिन मान्यवर नहीं सुनते। संकट बड़ा है। इसे राष्ट्रीय शर्म, निन्दनीय और लज्जाजनक बताने मात्र से परिवर्तन नहीं होगा। दलतंत्र शब्द आक्रमण से नहीं डरता। आरोप प्रत्यारोप ही उसका मुख्य कौशल है। लोकसभा चुनाव में हजारों प्रत्याशी टिकटार्थी कतारबद्ध रहते हैं। पार्टी के टिकट पर सांसद विधायक बनने के प्रत्याशी होते हैं। आवेदन पत्र में प्रविष्टि होनी चाहिए कि वे सदन में जाकर कैसा आचरण करेंगे? क्या वे मर्यादा पालन करेंगे? क्या सभी दल संसदीय परम्परा के जानकार लोगों को प्रत्याशी बनाने को तैयार हैं?


भारत प्राचीन काल से ही जनतंत्री है। ऋग्वैदिक काल में सभा समितियां थी। अथर्ववेद में स्तुति है “सभा में सभ्य हों, सभ्यों से सभा चले। सदस्य सभ्य रहें-सभ्यं सभा में पाहि, च सभ्याः सभासद।” अथर्ववेद के रचनाकाल में सभा समिति में सभ्य सभासदों की प्यास है। सभेय होने का अर्थ ही सभ्य होना है। सभ्य से सभ्यता है। डाॅ0 अम्बेडकर ने संविधान बन जाने के बाद संविधान सभा (25.11.1949) में कहा, “यह बात नहीं कि भारत संसदीय प्रक्रिया से परिचित न था। बौद्ध संघ संसद थे। आधुनिक संसदीय प्रक्रिया के सभी नियम उस समय भी थे। भारत से यह लोकतंत्री व्यवस्था मिट गयी। क्या वह फिर से इस व्यवस्था को मिटा देगा?” डाॅ0 अम्बेडकर की शंका निर्मूल नहीं कही जा सकती। संसदीय व्यवस्था का संकट अखिल भारतीय है। संसदीय व्यवस्था के शपथी ही यह व्यवस्था तोड़ रहे हैं। आखिरकार जनगणमन निरूपाय और लाचार क्यों है? जनशक्ति आगे आए। सदनों की अव्यवस्था को पटरी पर लाना राष्ट्रीय कर्तव्य है जनतंत्र भारत की जीवनशैली है। भारत का राजधर्म राष्ट्रधर्म है। राष्ट्रधर्म और सनातन जीवनशैली पर हमला बर्दास्त करना त्रासद है।


संसदीय कार्यवाही का सौन्दर्य अध्यक्ष/पीठासीन पर निर्भर है। दलबदल कानून (52वें संविधान संशोधन अधिनियम 1985) विधायी सदनों के सभी सदस्यों पर लागू है। लेकिन लोकसभा अध्यक्ष/विधानसभा अध्यक्ष/राज्यसभा व विधान परिषद के सभापति और उक्त सदनों के उपाध्यक्षों/उपसभापतियों को छूट है कि वे निष्पक्ष बने रहने के लिए दल त्याग कर सकते हैं। एन0 संजीव रेड्डी ने भी लोकसभा अध्यक्ष होते ही कांग्रेस छोड़ दी थी। पीठासीन का दल त्याग बड़ी बात है लेकिन यहां हाईकमान की इच्छापूर्ति के लिए सदन की कार्यवाही को कुरूप बनाने की लत बढ़ी है। संसद के असभ्य कथानकों में सत्तादल की भी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। हुल्लड़ सार्वभौम है। विधायी संस्थाओं के भीतर विशेषाधिकार के चीरहरण त्रासद हैं। द्रोपदी का चीरहरण किसी निर्जन वन में नहीं हुआ था। यह सभा ही थी। सभी सभासद दोषी थे। महाभारत सभापर्व में विदुर ने कहा, “सभा में हुए पाप का आधा भाग सभाध्यक्ष पर, एक चैथाई पापकर्मियों पर और शेष एक चौथाई पाप मौन रहने वालों पर होता है।” क्या देश के माननीय पीठासीन विदुर की टिप्पणी पर ध्यान देंगे..? राष्ट्र अवाक् है, व्यथित और आहत भी है। सभा की नैतिक शक्ति घटने से ही महाभारत हुआ था। सभा की शक्ति फिर से घटी है, क्या भारत एक और महाभारत की तैयारी कर रहा है..? क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था पूरी तरह असफल..?