

इटावा में जाति के नाम पर धर्म का अपमान, सनातन परंपरा हुई शर्मसार। जब धर्म और जाति के बीच की रेखाएं धुंधली हो जाती हैं, तब अक्सर धर्म की आड़ में अधर्म फलने लगता है। उत्तर प्रदेश के इटावा जिले से हाल ही में सामने आई घटना न केवल एक निर्दोष भक्त का अपमान है, बल्कि सनातन धर्म की आत्मा—समभाव और सहिष्णुता—पर सीधा प्रहार है। इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण
भारत जैसे महान देश का सबसे बड़ा प्रदेश—उत्तर प्रदेश—जहाँ प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या है, भगवान श्रीकृष्ण की लीलास्थली मथुरा है, माँ विंध्यवासिनी का पावन धाम है, जहाँ त्रिवेणी संगम पवित्रता की प्रतीक है, और बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी आत्मा को मोक्ष का द्वार दिखाती है—वहीं की धरती से एक ऐसी घटना सामने आई है, जिसने पूरे सनातन समाज को शर्मसार कर दिया है। उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के बकेवर थाना क्षेत्र के अंतर्गत ग्राम दादरपुर में घटित एक घटना ने धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक हलकों में उबाल ला दिया है। भागवत कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहयोगी संत सिंह यादव के साथ कथित रूप से की गई अभद्रता, मारपीट और जातिगत अपमान ने न केवल सनातन परंपरा की आत्मा को झकझोरा है, बल्कि समाज की उस मानसिकता को भी उजागर कर दिया है, जो आज भी जातीय श्रेष्ठता के भ्रम में जी रही है। यह घटना न केवल धार्मिक भावना को आहत करती है, बल्कि सामाजिक समानता, संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों और सनातन परंपरा की आत्मा—समभाव—का खुला उल्लंघन भी है। यह प्रश्न अब केवल एक गांव का नहीं, बल्कि उस पूरे विचार का है जो धर्म को जाति की जंजीरों से मुक्त देखना चाहता है। मुकुट मणि यादव का आरोप है कि वह गांव में श्रीमद्भागवत कथा कहने पहुंचे थे, जहां आयोजकों में से कुछ लोगों ने उनकी जाति पूछी। जब यह सामने आया कि वे यादव समुदाय से हैं, तो उनके साथ न केवल कथा रुकवा दी गई, बल्कि उन्हें मंच से हटाकर गाली-गलौज की गई, उनकी चोटी काटी गई, सिर मुंडवा दिया गया और कथित तौर पर उन्हें महिला के सामने नाक रगड़वाकर माफी मांगने के लिए विवश किया गया। आरोपों के अनुसार, उनके चेहरे पर पेशाब तक डाला गया और हारमोनियम तोड़ दिया गया। यह घटना कैमरे में कैद हुई और जैसे ही वीडियो वायरल हुआ, प्रदेशभर में तीखी प्रतिक्रियाएं शुरू हो गईं।
भागवत कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहयोगी संत सिंह यादव के साथ कथित रूप से की गई अभद्रता, मारपीट और जातिगत अपमान ने न केवल सनातन परंपरा की आत्मा को झकझोरा है, बल्कि समाज की उस मानसिकता को भी उजागर कर दिया है, जो आज भी जातीय श्रेष्ठता के भ्रम में जी रही है। मुकुट मणि यादव का आरोप है कि वह गांव में श्रीमद्भागवत कथा कहने पहुंचे थे, जहां आयोजकों में से कुछ लोगों ने उनकी जाति पूछी। जब यह सामने आया कि वे यादव समुदाय से हैं, तो उनके साथ न केवल कथा रुकवा दी गई, बल्कि उन्हें मंच से हटाकर गाली-गलौज की गई, उनकी चोटी काटी गई, सिर मुंडवा दिया गया और कथित तौर पर उन्हें महिला के सामने नाक रगड़वाकर माफी मांगने के लिए विवश किया गया। आरोपों के अनुसार, उनके चेहरे पर पेशाब तक डाला गया और हारमोनियम तोड़ दिया गया। यह घटना कैमरे में कैद हुई और जैसे ही वीडियो वायरल हुआ, प्रदेशभर में तीखी प्रतिक्रियाएं शुरू हो गईं।

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस घटना को जातिगत वर्चस्व की पराकाष्ठा बताते हुए सत्तारूढ़ भाजपा पर तीखा हमला बोला। उन्होंने लखनऊ में प्रेस वार्ता करते हुए कहा कि अब कथा कहने के लिए जाति प्रमाणपत्र अनिवार्य हो गया है, तो योगी सरकार को इस पर कानून बना देना चाहिए। उन्होंने मुकुट मणि यादव और संत सिंह यादव को सम्मानित करते हुए 21-21 हजार रुपये की राशि भेंट की और पार्टी की ओर से 51-51 हजार रुपये देने की घोषणा की। उनका कहना था कि यह घटना भाजपा शासित प्रदेशों में PDA यानी पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के प्रति निरंतर अपमानजनक व्यवहार का उदाहरण है। लेकिन जैसे-जैसे राजनीतिक हलचल तेज हुई, यह मामला कई और मोड़ों पर जा पहुंचा। कथावाचकों के पक्ष में यादव महासभा, समाजवादी पार्टी और अन्य संगठन खड़े हो गए। वहीं दूसरी ओर, गांव की ही महिला रेनू तिवारी और उनके पति जयप्रकाश तिवारी सामने आए और कथावाचकों पर गंभीर आरोप लगाए। रेनू तिवारी का कहना है कि कथा के दौरान भोजन के समय कथावाचक ने उनकी अंगुली पकड़ने की कोशिश की, जिससे उन्हें असहजता हुई। उन्होंने तुरंत अपने पति को जानकारी दी और गांव के कुछ युवा आक्रोशित हो उठे। महिला पक्ष का दावा है कि कथावाचक ब्राह्मण बनकर गांव में पहुंचे थे और जब सच्चाई सामने आई, तो विवाद गहराया। आरोप लगाया गया कि कथावाचक ने फर्जी आधार कार्ड से अपनी जाति ब्राह्मण दर्शाई थी।
अब मामला एक नया मोड़ लेता दिख रहा है, जहां पीड़िता महिला की ओर से पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई है। पुलिस अधीक्षक बृजेश कुमार श्रीवास्तव ने दोनों पक्षों की बात सुनकर निष्पक्ष जांच का भरोसा दिलाया है। पुलिस ने अब तक चार लोगों आशीष तिवारी, उत्तम अवस्थी, मनु दुबे और निक्की अवस्थी को गिरफ्तार किया है, जिन्होंने कथावाचकों से मारपीट की थी। हालांकि अब कथावाचकों के आधार कार्ड को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं, जिसमें एक ही फोटो पर अलग-अलग नाम और जाति दर्ज हैं। यह तथ्य पुलिस की जांच को और जटिल बना रहा है।इस घटनाक्रम के बाद ब्राह्मण महासभा ने भी मोर्चा खोल दिया है। महासभा के प्रदेश अध्यक्ष अरुण दुबे ने कहा कि कथावाचक समाज को गुमराह कर ब्राह्मण बनकर कथा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि किसी महिला के साथ यदि छेड़खानी हुई है, तो उस पर भी कार्रवाई होनी चाहिए। साथ ही चेतावनी दी कि यदि केवल एक पक्ष के आधार पर कार्रवाई की गई तो महासभा आंदोलन का रास्ता अख्तियार करेगी। उनका तर्क है कि कोई भी कथा कह सकता है, लेकिन कथा की आड़ में दुर्व्यवहार की अनुमति नहीं दी जा सकती।
इधर, समाजवादी पार्टी की ओर से आरोप लगाया जा रहा है कि यह पूरा घटनाक्रम एक साजिश है, ताकि कथावाचकों को झूठे आरोपों में फंसाकर जातीय गोलबंदी को तोड़ा जा सके। सपा इटावा जिला अध्यक्ष प्रदीप शाक्य का कहना है कि महिला की शिकायत विवाद के दो दिन बाद सामने आई, जब राजनीतिक दबाव बढ़ने लगा।
उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या यादव हिंदू नहीं हैं..? क्या उन्हें कथावाचक बनने का अधिकार नहीं..? उन्होंने कहा कि यह सब कुछ PDA समाज को अपमानित करने की साजिश का हिस्सा है। यह पूरा विवाद अब धर्म और जाति के उस चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है, जहां सनातन परंपरा के मूल विचारों की परख हो रही है। क्या कथा कहने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है..? अगर हम शास्त्रों और धर्मग्रंथों की ओर देखें तो स्पष्ट होता है कि ऐसा कोई विधान नहीं है। स्वयं महर्षि वेदव्यास, जिनके नाम पर व्यास पीठ की परंपरा है, वर्णसंकर थे। उनके पिता महर्षि पाराशर और माता मत्स्यगंधा (सत्यवती) थीं, जो निषाद कन्या थीं। सूत जी, जो भागवत पुराण के मुख्य वाचक माने जाते हैं, वे भी वर्णसंकर थे। शबरी एक वनवासी भीलनी थीं, लेकिन श्रीराम ने उनके प्रेम को पूजा का सर्वोच्च रूप माना। व्याध गीता में एक शिकारी, एक ब्राह्मण सन्यासी को कर्मयोग का उपदेश देता है। प्रह्लाद दैत्यकुल में जन्मे थे, लेकिन उन्हें भक्तराज की उपाधि मिली। यह सभी उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि सनातन धर्म में ज्ञान, भक्ति और साधना ही सर्वोपरि मानी गई है,जाति नहीं।
भागवत किसी की बपौती नहीं इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण
ना जनेऊ की शर्त, ना कुल की रेखा, श्रीकृष्ण की कथा सबको है एक-सा देखा। श्लोक समझे जो दिल से, वही सच्चा ज्ञानी, जात-पांत की दीवारें – बस हैं मन की कहानी। भक्ति हो सच्ची, हो नीयत साफ, तो भागवत सबका– ना छोटा, ना खास,न जाति न पंथ। धर्म न बँटे बपौती में, यह सबका अधिकार है, जिसने भी खोला मन का द्वार, वही भागवत का उत्तराधिकारी है। भागवत पर सबका अधिकार है – किसी वर्ग विशेष का नहीं।
भागवत कथा उन सामाजिक दीवारों को तोड़ने की कोशिश है, जो यह मान बैठी हैं कि धर्मग्रंथों का अधिकार केवल कुछ “चुने हुए” लोगों का है, बाकी तो केवल श्रोता हैं, सेवक हैं या निम्न कोटि के प्राणी। परंतु क्या वास्तव में ऐसा है? क्या श्रीकृष्ण का ज्ञान किसी जाति-विशेष के लिए था?
भागवत – श्रीकृष्ण की लीला – केवल किसी वर्ण विशेष की संपत्ति नहीं। यह हर उस हृदय की धरोहर है जहाँ भक्ति है, करुणा है और आत्मा की पुकार है। श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में दिया था—किसी यज्ञशाला में नहीं। उन्होंने चांडाल को भी गले लगाया था, गोवर्धन पूजा में ग्वालों संग नृत्य किया था। धर्म का द्वार सबके लिए खुला है। भागवत पर सबका अधिकार है, चाहे वो किसी भी जाति, वर्ग, लिंग या स्थिति का हो।
भागवत पर सबका अधिकार इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण
जाति नहीं, भक्ति का आधार – भागवत सबके लिए अपार..! कृष्ण की कथा सबकी है थाती, न ऊँच-नीच, न कोई जाति। भागवत को मत बनाओ बपौती, यह प्रेम की है वास्तविक ज्योति। श्रीकृष्ण का प्रेम नहीं देखता वंश, वो है हर हृदय का अंश। शास्त्रों पर अधिकार सबका है, जो भी दिल से उसका भक्त है। जो बोले ‘भागवत बस मेरी’ – वो है अज्ञान की फैली देरी। संविधान कहे – समान अधिकार, धर्मग्रंथ भी दें यही उपहार। कथा में ना हो भेदभाव, श्रीकृष्ण का यही सच्चा भाव। भक्ति हो जहाँ सच्ची-निर्मल, वहीं उतरती है श्रीहरि की पहल। भागवत को बांटना पाप है, इसे अपनाना आपसी आप है।
यदि मुकुट मणि यादव और संत सिंह यादव ने सच्चे श्रद्धा भाव से कथा कही, और उन्हें केवल जाति के नाम पर अपमानित किया गया, तो यह संपूर्ण सनातन परंपरा का अपमान है। लेकिन यदि महिला पर की गई अभद्रता के आरोप सही हैं, तो वह भी उतना ही निंदनीय है। ऐसे में न्याय तभी संभव होगा जब दोनों पक्षों की जांच निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हो। इस मामले ने यह भी दर्शाया है कि हमारी सामाजिक संरचना आज भी कितनी संवेदनहीन है। जब धर्म की बात आती है, तो हम पूजा-पाठ की आड़ में एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। यदि कथावाचक ने अपनी जाति छिपाई, तो यह गलत है, लेकिन यदि उन्हें जाति के नाम पर पीटा गया, नाक रगड़वाई गई, अपमानित किया गया, तो यह उससे भी बड़ा अपराध है। ऐसे व्यवहार से न केवल मानवता अपमानित होती है, बल्कि समाज की वह बुनियाद भी हिलती है, जिस पर भारत का बहुलतावादी ढांचा टिका है।
यह घटना राजनीतिक गलियारों में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले जातीय समीकरणों को भी प्रभावित कर सकती है। समाजवादी पार्टी इसे ‘पिछड़े वर्ग पर अत्याचार’ के रूप में पेश कर रही है, जबकि भाजपा खेमे से जुड़े संगठन इसे ब्राह्मण विरोध के रूप में देख रहे हैं। यादव बनाम ब्राह्मण विमर्श को हवा देकर राजनीतिक दल अपने-अपने हित साधने में जुटे हैं, लेकिन इस संघर्ष में वह वास्तविक मुद्दा गुम होता जा रहा है समाज में समता, न्याय और धर्म के प्रति सम्मान।
इटावा की यह घटना किसी एक गांव या व्यक्ति की नहीं है, यह एक चेतावनी है कि यदि हम धर्म को जातियों में बांटते रहे, तो वह अपने वास्तविक स्वरूप को खो देगा। धर्म की आत्मा करुणा, ज्ञान और सेवा है और यदि कथा कहने वाला सूत हो या यादव, शबरी हो या व्यास उसकी मर्यादा तभी बची रह सकती है जब हम उस व्यक्ति के भाव को देखें, न कि उसके जाति-प्रमाणपत्र को।समाज को आज तय करना होगा कि वह किस दिशा में आगे बढ़ेगा उस दिशा में जहां ज्ञान, भक्ति और धर्म की स्वतंत्रता सबको है, या उस अंधेरे में जहां जाति के नाम पर व्यक्ति को अपमानित कर दिया जाता है। अगर हम आज भी यह न सोच पाए कि कोई कथा कहने वाला केवल इसलिए गलत नहीं है क्योंकि वह यादव है या ब्राह्मण नहीं है, तो हम सचमुच 21वीं सदी में नहीं, बल्कि वर्णव्यवस्था के पतनशील युग में जी रहे हैं।इटावा की यह घटना हमें सोचने को मजबूर करती है कि क्या अब भी धर्म एक जातिवादी अवधारणा है या एक सार्वभौमिक चेतना? क्या हम व्यास, वाल्मीकि, शबरी और प्रह्लाद के वंशज हैं या जातीय दंभ और सामाजिक घृणा के वाहक? इस सवाल का जवाब हमें मिलकर देना होगा और न्याय, समानता और संवैधानिक मूल्यों को सर्वोपरि मानकर देना होगा।
सनातन धर्म की मूल भावना इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण
सनातन धर्म की नींव वसुधैव कुटुंबकम, सर्वे भवन्तु सुखिनः और अहिंसा परमो धर्मः जैसे सिद्धांतों पर टिकी है। क्या श्रीराम ने शबरी के झूठे बेर खाने से पहले उसकी जाति पूछी थी..?क्या श्रीकृष्ण ने विदुर के घर भोजन करते समय कुल देखा था..? क्या संत रविदास, कबीर, अवधूत नित्यानंद, साईं बाबा ने कभी धर्म को जाति से जोड़ा..? नहीं। क्योंकि सनातन का स्वरूप समावेशी है—उसमें कोई ऊँच-नीच नहीं, कोई छोटा-बड़ा
इटावा की घटना एक चेतावनी है—अगर धर्म के नाम पर जातिवाद फैलता रहा, तो सनातन की आत्मा मर जाएगी। हमें यह समझना होगा कि: “धर्म जाति से नहीं, श्रद्धा से बड़ा होता है।” “भगवान सबके हैं – उनके मंदिर भी सबके हैं।” अब वक्त है सनातन धर्म की गरिमा बचाने का, न कि उसका उपयोग वर्चस्व स्थापित करने के लिए।
जातिवाद उन लोगों का औजार है जो धर्म को सत्ता और विशेषाधिकार की ढाल बनाना चाहते हैं। यह मनुवादी सोच न तो धर्म के अनुरूप है, न ही संविधान के। भारत का संविधान हर नागरिक को समानता, धार्मिक स्वतंत्रता और सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। फिर धर्मस्थलों में यह भेदभाव क्यों..?
आग्रह: समाज को जागना होगा। मंदिरों के दरवाजे सबके लिए खुलें, कथा सबके लिए हो, पूजा पर सबका समान अधिकार हो—तभी सच्चा सनातन धर्म जीवित रहेगा। इटावा:जाति के नाम पर धर्म का चीरहरण