क्या भारत-चीन नहीं चाहते कि तुर्की ब्रिक्स का स्थाई सदस्य बने..?

54
रामस्वरूप रावतसरे
रामस्वरूप रावतसरे

विश्व की बड़ी अर्थव्यस्थाओं के समूह ब्रिक्स की 2025 की शिखर बैठक 6-7 जुलाई को ब्राजील के रियो डी जनेरियो शहर में आयोजित हुई। इसमें ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ नए शामिल हुए सदस्य देशों ने भी हिस्सा लिया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इस बैठक में शामिल हुए। बताया जा रहा है इस बार की बैठक में जहाँ आंतकवाद समेत तमाम मुद्दों पर बात हुई, वहीं तुर्की की सदस्यता पर फैसला नहीं हो पाया। तुर्की ने पिछले साल ब्रिक्स का सदस्य बनने के लिए आधिकारिक रूप से आवेदन किया था हालाँकि, उस समय उसे केवल ‘पार्टनर देश’ का दर्जा दिया गया था। इसे सदस्य बनने की दिशा में पहला कदम माना जाता है। उम्मीद की जा रही थी कि 2025 की शिखर बैठक में तुर्की को पूर्ण सदस्य का दर्जा प्राप्त हो जाएगा लेकिन इस आवेदन पर कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया और उसकी हैसियत बस पार्टनर देश तक ही सीमित रखी गई। इसका मतलब है कि तुर्की को अभी और इंतजार करना होगा हालाँकि, इस बार तुर्की की सदस्यता पर चर्चा हुई है। क्या भारत-चीन नहीं चाहते कि तुर्की ब्रिक्स का स्थाई सदस्य बने..?

जानकारी के अनुसार तुर्की को ब्रिक्स सदस्य बनाने के पक्ष में वर्तमान में भारत और चीन नहीं है। दोनों देशों की आपत्तियाँ अलग-अलग हैं। चीन तुर्की की ब्रिक्स सदस्यता का विरोध इसलिए कर रहा है क्योंकि उसके आपसी रिश्तों में कुछ मतभेद मौजूद हैं। ब्रिक्स का विस्तार धीरे-धीरे हो रहा है और नए सदस्य जोड़ने से पहले सभी मौजूदा सदस्य देशों की सहमति जरूरी होती है। चीन और भारत ब्रिक्स के संस्थापक सदस्य हैं। यदि वह सहमत नहीं होते तो तुर्की को कभी भी इसकी सदस्यता नहीं मिल सकती।

भारत और तुर्की के रिश्ते हालिया सालों में कोई विशेष अच्छे नहीं रहे हैं। भारत, तुर्की की ब्रिक्स सदस्यता का विरोध इसीलिए कर रहा है क्योंकि वह लगातर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा रहा है। हाल ही में हुए ऑपरेशन सिंदूर के दौरान तुर्की ने खुले तौर पर पाकिस्तान का समर्थन किया था। तुर्की ने पहलगाम आतंकी हमले की निंदा भी नहीं की थी। ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तानी मंत्री शाहबाज शरीफ और आर्दाआन की मुलाक़ात भी हुई थी जहाँ दोनों ने एक दूसरे के लिए काफी मीठी मीठी बातें की थी। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी तुर्की ने पाकिस्तान को मजबूत किया था। पाकिस्तान ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत के खिलाफ जो ड्रोन इस्तेमाल किए थे, वह तुर्की के ही थे। इसने भारत के लिए सुरक्षा खतरे भी खड़े किए थे। इसके अलावा कश्मीर मुद्दे पर भी तुर्की हमेशा पाकिस्तान के ही पक्ष में खड़ा रहा है। राष्ट्रपति एर्दाआन ने कई बार भारत के खिलाफ बयान दिए हैं।

      भारत ने न केवल तुर्की की ब्रिक्स सदस्यता का विरोध किया है, बल्कि देश में तुर्की कंपनियों के खिलाफ सख्त कदम भी उठाए हैं, जैसे एयरपोर्ट सेवाएं देने वाली तुर्की की कंपनी के सुरक्षा मंजूरी को रद्द कर दिया। वही भारत में तुर्की के सामानों का बहिष्कार भी किया जा रहा है।

       ब्रिक्स में तुर्की की एंट्री पर भारत के अलावा दूसरा वीटो चीन का रहा। दरअसल, चीन से तुर्की का दूसरा विवाद है तुर्की में उइगर मुसलमानों की बड़ी आबादी रहती है और तुर्की सरकार ने कई बार चीन के शिनजियांग प्रांत में रहने वाले उइगरों के मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता जताई है। तुर्की ने सार्वजनिक रूप से चीन द्वारा उइगरों के साथ किए जा रहे कथित दुर्व्यवहार की आलोचना की है। इससे चीन को यह लगता है कि तुर्की उसकी आंतरिक नीतियों में हस्तक्षेप कर रहा है। चीन यह भी मानता है कि तुर्की उइगर अलगाववादियों को समर्थन देता है जो उसकी एकता और सुरक्षा के लिए खतरा है। तुर्की ने 2019 और 2021 में संयुक्त राष्ट्र मंच पर भी चीन की नीतियों की आलोचना की थी और उइगरों के अधिकारों की रक्षा की माँग की थी। तुर्की के कुछ मीडिया चैनल और राजनीतिक नेता चीन की नीतियों को ‘नस्लीय दमन’ तक कह चुके हैं। इसके साथ ही, तुर्की ने कई बार उइगर प्रवासियों को अपने देश में शरण भी दी है। इस रुख से चीन लगातार तुर्की के खिलाफ रहा है और उसे अपने साथ मंच साझा नहीं करने देना चाहता है। इसके अलावा तुर्की सैन्य गठबंधन नाटो का हिस्सा है जो अमेरिकी अगुवाई वाला है। चीन यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई नाटो सदस्य उसके बराबर शक्ति किसी संगठन में पाए।

    अब यहाँ सवाल उठते हैं कि तुर्की ब्रिक्स का हिस्सा बनना ही क्यों चाहता है। तुर्की स्वयं नाटो का सदस्य है और उसके संबंध यूरोप तथा अमेरिका से अधिक हैं जबकि ब्रिक्स को मोटे तौर पर अमेरिकी अगुवाई वाले जी-7 के विकल्प के तौर पर देखा जाता है। इसके पीछे तुर्की और और उसके नेता आर्दाआन की ग्लोबल महत्वाकांक्षा है। तुर्की वैश्विक स्तर पर बड़ा नेता बनना चाहता है। इसलिए वह हर उस संगठन में शामिल होना चाहता है, जो वैश्विक राजनीतिक पर असर डालता हो। इसके अलावा ब्रिक्स कोई सैन्य गठबंधन नहीं है जिससे अमेरिकी हितों को नुकसान पहुँचे। ऐसे में नाटो का सदस्य होने के बावजूद वह ब्रिक्स में घुसना चाहता है। इसके अलावा एक कारण और है। दरअसल, ब्रिक्स में सऊदी अरब भी सदस्य बनने के रास्ते में है। सऊदी अरब इस्लामी नेता माना जाता है और तुर्की उससे यह तमगा लेना चाहता है। ऐसे में वह भी यहाँ आना चाहता है हालाँकि, जब तक वह भारत और चीन से अपने रिश्ते ठीक नहीं करता, उसकी ब्रिक्स सदस्यता की इच्छा पूरी नहीं होने वाली। क्या भारत-चीन नहीं चाहते कि तुर्की ब्रिक्स का स्थाई सदस्य बने..?