यादरामसिंह यादव
दलित पत्रकारिता के आयाम,भारत में दलित पत्रकारिता के आयाम,भारतीय दलित पत्रकारिता के क्षेत्र में ये दुखःद आश्चर्य है, कि जिस प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शूद्र उपेक्षित रहे, उसी प्रकार साहित्य एवं पत्रकारिता में भी नकारे गये। एक हजार साल का भारतीय इतिहास केवल सवर्णों की पहचान का इतिहास है। उसमें शूद्र एवं दलितों का प्रवेश वर्जित रहा है। राजा राममोहनराय के काल में हमारे देश में अंधविश्वास,सतीप्रथा,बालविवाह एवं दासीप्रथा आदि अनेक कर्मकांड एवं सामाजिक बुराईयां समाज में व्याप्त थी। इन्होंने सर्वप्रथम दिसम्बर 1929 ई. में ‘‘संवाद कोमुदी’’ नामक साप्ताहिक पत्रिका बंगला भाषा में निकाली थी। इसके बाद देश में फारसी भाषा के प्रचलन होने से ‘‘भीरातुल’’ अखबार निकाला। 1929 ई.में ही बंगला एवं हिन्दी में बंगदूत और अंग्रेजी में ‘‘इन्डिया हैराल्ड’’ नामक साप्ताहिक का प्रकाशन किया। इससे पूर्व राजा राममोहनराय ने सन् 1885 ई. में अंग्रेजों से सतीप्रथा पर कानूनी रोक लगवायी। इसके विरूद्ध बंगाल के कर्मकाण्डी-दकियानूसी ब्राह्मणों ने इग्लैण्ड में अपील प्रस्तुत की। जिसे राममोहनराय जीत कर आये। उन्होंने विधवा विवाह का भी समर्थन किया।
इसके बाद महात्मा ज्योतिबाफूले ने महाराष्ट्र में दलितों एवं स्त्रियों की दयनीय दशा का चित्रण करते हुए, उन पर होने वाले जुल्म एवं अत्याचारों के विरूद्ध ‘‘संतसार’’ नामक पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन शुरू किया। उन्होंने मराठी भाषा में चार पुस्तकें लिखीं। अपनी पत्रिका में दलित एवं जुल्म की शिकार नारीयों की दीन हीन दशा का वर्णन करते हुए सवर्णों से नारी समानता व शिक्षा दिलाने की बात लिखते थे। उन्होंने दलित नारी शिक्षा एवं विधवा विवाह का पुरजोर समर्थन किया। स्वयं एक विधवा से शादी कर उसे खुद शिक्षित कर सावित्री बाईफूले से दलित महिलाओं-लड़कियों को पढ़ाने की सर्वप्रथम शुरूआत की।
19 मई 1988 ई. में बम्बई में तत्कालीन महाराज शाहजीराव गायकवाड़ द्वारा ज्योतिराव फूले के कार्यों से प्रसन्न होकर अपार जनसमूह की उपस्थित में सार्वजनिक अभिनन्दन किया। महात्मा फूले को दलितों एवं शूद्रों का मुक्तिदाता, स्त्री शिक्षा का जनक, नये भारत का निर्माता एवं समर्पित देशभक्त बताया। महात्मा गौतम बुद्ध के बाद मध्ययुग में ‘‘सन्त कबीर’’ को महात्मा की उपाधि से सम्मानित किये जाने के बाद 19वीं सदी में ज्योतिबाफूले को महात्मा की उपाधि से विभूषित किया गया। उसके बाद 20 वीं शताब्दी में मोहनदास कर्मचन्द गांधी को महात्मा के नाम से पुकारा जाने लगा। महात्मा ज्योतिबा फूले ने नारी शोषण, स्त्री शिक्षा, दलित उत्पीड़न के विरूद्ध आवाज उठायी एवं अपने जीवनकाल में दो पत्र प्रकाशित किये। ‘‘गुलामगिरी’’ इनकी प्रसिद्ध पुस्तक थी,दलित पत्रकारिता के आयाम।
दक्षिण भारत में ही गोपालबाबा बलंगकर व शिवराम जानवा कांबले की तरह विदर्भ (महाराष्ट्र) के ही किशन भागूजी बंदसोड़े ने समाचार पत्र निकालने का कार्य किया। इन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए ‘‘चोखामेला का स्कूल खोला’’ और अपना निजी छापाखाना शुरू किया। उनकी पत्नी तुलसाबाई उनके कार्यों में बहुत सहयोग करती एवं छापेखाने का संचालन संभालती थी। किशन भागूजी ने ‘‘निराश्रित हिन्दू नागरिक’’ 1910 ई.में, ‘‘विराट विध्वंसक’’ 1913 में, तथा ‘‘मजूर पत्रिका’’ 1918 में प्रकाशित किये। आर्थिक कठिनाईयों के कारण, बाद में समाचार पत्र लम्बे समय तक नहीं चला। किशन भागूजी बाद में ‘‘सुबोध पत्रिका, केसरी, मुम्बई वैभव तथा ज्ञानप्रकाश आदि प्रमुख पत्रों में अस्पृस्यता के बारे में लेख लिखते थे। इनका कहना था कि कलम की ताकत ही पत्रकारिता का प्रमुख आधार है।
तदुपरान्त स्वामी ‘‘अछूतानन्द हरिहर’’ जो डा.अम्बेडकर के समकालीन थे, ने ‘‘आदि हिन्दू संस्था’’ की स्थापना की और ‘‘आदि हिन्दू’’ नामक अखबार निकाला। ये डा.अम्बेडकर के सहयोगी थे। अछूतानन्द ने अनेक नाटक, कविताओं एवं गीत आदि की रचना की। इन्होंने भारत में सर्वप्रथम दलित हिन्दी नाटकों की रचना कर उनका गांव-2 में प्रस्तुतिकरण कर जनजाग्रति फैलायी। उनके लिखित दो प्रसिद्ध नाटक ‘‘शंम्भूकबध’’ एवं ‘‘मायानन्द बध’’ थे।दलित पत्रकारिता के आयाम, सन् 1910 से 1927 के मध्य लिखी इनकी कविताएंं,महावीर प्रसाद द्विवेदी जब हीरा डोम का रूदन छाप रहे थे, के समय की हैं। उनकी मृत्यु को 82 वर्ष हो चुके है। किन्तु उनकी कविताओं-नाटकों एवं गीतों पर विद्वान लेखकों-सम्पादकों का ध्यान बहुत कम गया है। अछूतानन्द की एक कविता की बानगी भी प्रस्तुत है, जो मनुस्मृति पर लिखी गयी है :-
निशदिन मनुस्मृति ये, हमको जला रही है। ऊपर न उठने देती, नीचे गिरा रही है।।
ब्राहम्ण व क्षत्रियों को सबको बनाया अफसर। हमको ‘‘पुराने उतरन पहनो’’ बता रही है।।
दौलत कभी ना जोड़े गर हो तो छीन लें वह। फिर नीच कह हमारा, दिल भी दुखा रही है।।
कुत्ते, बिल्ली व मक्खी, से भी बना के नीचा। हा शोक! ग्राम बाहर हमको बसा रही है।।
हमको बिना मजूरी, बैलों के साथ जोतें। गाली व मार उस पर, हमको दिला रही है।।
लेते बेगार, खाना तक पेट भर न देते। बच्चे तड़पते भूखे, क्या जुल्म ढहा रही है।।
हे हिन्दू कौम। सुन ले, तेरा भला न होगा। हम बेकसों को ‘‘हरिहर ’’ गर तू रूला रही है।।
“एक सभ्य समाज में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का मतलब होना चाहिए सभी को, अपना मत हर संभव तरीके से, समाज के सामने रखने का साधन मुहैया करवाना। और दूसरों के मत पर तर्क करने, जिरह कर सकने का माहौल बनाए रखना। क्या हमारा लोकतंत्र और हमारी पत्रकारिता सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गुलामी झेल रहे लोगों को यह सुविधा देती है? पत्रकारिता या खबरनवीसी मूल रूप से प्रसारण योग्य सूचनाओं के चुनाव का उपक्रम है। वह खबरों के निर्माण अथवा बिक्री का व्यवसाय नहीं है, जैसा कि प्रायः कहा जाता है। यह अनैतिक तब हो जाता है जब खबरों के चुनाव में घपला होता है या उसके आंतरिक तथ्यों को धुँधला किया जाता है।”
तत्कालीन समय में गांधीजी ने भी तीन समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। उन्हौने अपने जीवन के उद्देश्य को प्राप्ती करने हेतु पत्रकारिता को माध्यम बनाया। गांधीजी के पत्रों में (1) इन्डियन ओपीनियन (2) यंग इन्डिया 1919 तथा अन्त में हरिजन 1933 में पूना की जेल में जी.डी. बिडला के सहयोग से प्रकाशित किया। बाद में बम्बई से गांधी ने ‘सत्याग्रह’ साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ‘‘हरिजन’’ पत्र के माध्यम से गांधीजी हरिजनोंद्धार और ग्रामोद्योगों के विकास का सन्देश दिया करते थे। सरकार द्वारा इस अखबार पर कई बार प्रतिबन्ध लगाया। गांधी के पत्रों की भाषा बहुत सरल हुआ करती थी। जो आज दुर्लभ है। गांधीजी की जैसी सरल एवं सहज सम्प्रेषणीय भाषा अब अखबारों में देखने को नहीं मिलती।
दलित पत्रकारिता के इतिहास में सन् 1919 से 1930 तक डा.बी.आर. अम्बेडकर का पदार्पण हुआ। डा.अम्बेडकर ने दलितों के उत्थान को अपने जीवन का मूल उद्देश्य बनाया था। इसी उद्देश्य पूर्ती के लिए अपने सीमित साधनों से ही, चार पत्र-पत्रिकाओं का समय-2 पर प्रकाशन किया। उनके समय में भी समाज में छुआछुत, ऊंचनीच, जाति पांति का भेदभाव होता था। उन्हें स्वयं निवास के लिए मकान नहीं मिला। पारसी होटल में भी नहीं रहने दिया गया। अन्त में बाबा साहिब ने दलितों की दशा, नारी समस्या, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया।
सर्वप्रथम जनवरी 1920 में ‘‘मूक नायक’’ साप्ताहिक पत्र मराठी भाषा में प्रकाशित किया। इस पत्र के माध्यम से दलितों की दशा का चित्रण करते हुए अपने विरोधियों के प्रशनों का उत्तर देते थे। मूकनायक के प्रथम अंक में उन्होंने लिखा कि भारत असमानताओं का घर है। हिन्दू समाज एक ऐसी बहुमंजली इमारत है, जिसमें कोई प्रवेश द्वार नहीं है और ना हीं एक मंजिल से इसकी मंजिल पर जाने के लिए कोई सीढ़ी है। जो व्यक्ति जिस मंजिल में पैदा हुआ, उसी में मरता है। उन्होंने आगे लिखा था कि ब्राहम्णों का उद्देश्य ज्ञान एवं शिक्षा का प्रचार कभी नहीं रहा। उनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य संचय एवं एकाधिकार रहा है। ‘‘मूकनायक’’ सभी प्रकार से ‘मूक दलितों’ की ही आवाज था। मूक नायक के एक अन्य लेख में कहा कि स्वराज्य में यदि अछूतों को मौलिक अधिकार नहीं मिले तो वह उनके लिए स्वराज्य नहीं होकर दासता की एक नई अवस्था होगी। धनाभाव के कारण यह पत्रिका बन्द करनी पड़ी।
डा. अम्बेडकर ने दूसरा पाक्षिक समाचार पत्र ‘‘बहिष्कृत भारत’’ मराठी में 3 अप्रेल 1927 को बम्बई में प्रारम्भ किया। पत्र के सम्पादक वे स्वयं थे। इस पत्र के एक संपादकीय में लिखा कि सभी तालाब और मन्दिर अछूतों के लिए खुले होने चाहिए क्येंकि वे भी हिन्दू है। उन्होंने बम्बई सरकार के ‘‘बोले प्रस्ताव’’ को व्यवहार में लागू करने को कहा। जिसमें सभी तालाबों को अछूतों को खोला गया था। ताकि वे भी उनमें से पानी पी सकें। उन्होंने इस प्रस्ताव के विरोध करने वालों की, कानून के उल्लंघन होने से दण्डित करने को लिखा। अम्बेडकर के ऐसे सम्पादकियों से चारों ओर तहलका मच गया और अछूतों में जागृति की लहर दौड़ गयी।
बाद में उन्होंने बहिष्कृत भारत के स्थान पर ‘‘जनता’’ (दी पीपुल) नाम की साप्ताहिक पत्रिका निकाली, जिसका प्रथम अंक दिसम्बर 1930 में छापा था। इसके माध्यम से डा.अम्बेडकर ने सामाजिक व राजनीतिक क्षेत्र में जनजागृति पैदा की। सबसे अन्त में ‘‘इक्वलिटी’’ नाम की पत्रिका निकाली। जिसमें उन्होंने दलितों को समानता की इच्छा का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि पानी समानता का ज्वलंत प्रतीक है। जो जानवर पानी पीते है, गंदा करते है वह शुद्ध होता हैं लेकिन अछूत के स्पर्श मात्र से पानी अपवित्र हो जाता है। यह कैसी विडम्बना है।
बाबासाहब की आवाज बम्बई विधानसभा में पूरी श्रृद्धा के साथ सुनी जाती थी। प्रमुख बात यह कि अम्बेडकर को उच्च वर्गों के प्रमुख नेताओं का सहयोग मिला। जैसे लोकमान्य तिलक, व श्रीधर पन्तको आदि। वे अम्बेडकर के प्रशंसक ही नहीं, बल्कि मित्र भी थे। डा.अम्बेडकर ने उपरोक्त के अलावा दो दर्जन ग्रन्थों की रचना की। सबसे पहिले ‘‘कास्ट इन इन्डिया’’ नामक पुस्तक की रचना की तथा उनका अन्तिम ग्रन्थ जो उनकी मृत्यु के बाद 1957 ई.में प्रकाशित हुआ, ‘‘बुद्ध और उनका धम्म’’ था। उन्होंने देश के लिए विश्व का सबसे बड़ा एवं अच्छा संविधान लिखा। जिसे सारी दुनियां मानती है। बाबा साहब का भारत की जनता के लिए सदैव के लिए चिरस्थायी योगदान बना रहेगा।
समकालीन समय में मुन्शी प्रेमचन्द ने तीन सौ कहानियां ओर 12 उपन्यास अपने जीवनकाल में 31 जुलाई 1980 से अक्टूबर 8, 1936 तक लिखी थी। दलित लेखन की शुरूआत प्रेमचन्द की ‘ठांकुर का कुआ’ नामक कहानी से मानी जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने गरीब, दलित, शोषित एवं नारी की वर्तमान दयनीय दशा को पर लिखा। जिनसे राष्ट्रीयता के लिए संस्कार निर्माण हुए। उन्होंने पहला उपन्यास उर्दूभाषा में ‘‘सोजेवतन’’ लिखा जिसे अंग्रेजी सरकार ने जप्त कर लिया। उनके अन्य महत्वपूर्ण उपन्यासों में कर्मभूमि, निर्मला, गोदान, गबन, सेवासदन आदि हैं। संवेदनाओं से परिपूर्ण कहानी ‘‘सवासेर गेंहू’’ व ठाकुर का कुआ मानी जाती है। उनकी सबसे अच्छी कहानीयों में ‘‘बड़े घर की बेटी’’ थी। मुंशी प्रेमचन्द का भारत देश के लोकजन में संस्कार निर्माण में बहुत बड़ा योगदान रहा है।
वर्तमान पांच दशक के हिन्दी के दलित पत्रकारों व लेखकों में अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, गिर्राजकिशोर, मधुकर सिंह, मोहनदास नैमीसराय तथा रमैय्याराम के.पी. के नामों का उल्लेख किया जा सकता है किन्तु इनके लेखन में वह अनुभूति की प्रमाणिकता तथा भाषा का तीखापन नहीं है। जो दलित साहित्य को प्रमुख धारा से अलग पहचान बनाता है। इस मामले में हिन्दी साहित्य अभी काफी पीछे है। वर्तमान दलित पत्रकारिता के अनेक नामचीन लेखकों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
वर्तमान में दलित लेखन पर बहुत कार्य हो रहा है। किन्तु उनकी राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर पर स्वयं का मीडिया नहीं होने से पहचान नहीं बन पाती और उनके लेखन के प्रचार-प्रसार के अभाव में उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता है। हालांकि दलित लेखकों में परिवेश एवं संवेदनात्मक लेखन में जागरूकता की कमी नहीं है। राजस्थान मूल के दलित लेखक व पत्रकारों में आर.के.आंंकोदिया, अभिजीत कुमार, एम.एल. परिहार, यादरामसिंह यादव, सीताराम स्वरूप, डा.हेेेमलता आंकोदिया, कुशालचन्द रैगर, श्यामसुन्दर बैरवा, सुरेश बुन्देल, व भंवर मेघवंशी का ‘‘दीक्षा दर्पण’’ अखबार की दस साला रिपोर्ट के अनुसार अव्वल लेखन का दर्जा दिया है। क्यांकि दलित विषयोों पर लेखक गत तीन दशक से लेखन कर रहे है ओर दलितों में जागृति पैदा कर रहे है।
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लोकतन्त्र और पत्रकारिता अपने आप में ही आधुनिक अवधारणायें हैं। स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व के मूल्य इसमें समाहित हैं। भारत का सामाजिक प्रभु-वर्ग इनकी आधुनिकता को जबरन दबाये रखने के लिए निरन्तर सक्रिय रहा है। पत्रकारिता को लोकतंत्र में आजादी मिली है। हमें देखना चाहिए कि उसकी इस आजादी का उपयोग कौन अपने हित की सूचनाओं के प्रसारण के लिए कर रहा है….?
सरस्वती पुरूस्कार से सम्मानित हिन्दी के प्रमुख दलित विषयक साहित्यकार व लेखक सुरेश पंडित अलवर ने डॉ.अम्बेडकर की पत्रकारिता पर अपने विचार लिखे हैं, जो राजस्थान पत्रिका में 11 मई 1997 को प्रकाशित हुए हैं के अंश उदृत करना उचित समझता हूॅ- डॉ.अम्बेडकर ने सभी पिछड़ी, शोषित, वंचित जातियों को अपने मानवीय अधिकार पाने के लिए और चातुर्वर्ण व्यवस्था का विरोध करने के लिए संगठित होने का आव्हान किया। अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। महात्मा बुद्ध की जांत-पांत विहीन समाज व्यवस्था ने उन्हें आकर्षित किया।दलित पत्रकारिता के आयाम, शूद्र या हरिजन जातियों को वे दलित कहना पसन्द करते। क्योंकि यह शब्द उन्हें सदियों से इतिहास की याद दिलाता है। जिससे व उच्च वर्णों के अन्याय व अत्याचार के शिकार बनाये जाते रहे हैं। वे मानते थे कि उनमें किसी तरह की कमी नहीं होने पर भी उन्हें जानबूझकर नीच, हीन, हेय व अपृश्य बनाकर रखा गया है।
अम्बेडकर कहते है कि (1) हिन्दुओं को चाहिए थे ‘‘वेदपुराण’’ इसलिए उन्होंने व्यास को बुलाया जो सवर्ण नहीं थे। (2) हिन्दुओं को चाहिए था एक महाकाव्य इसलिए उन्होंने बाल्मीकी को बुलाया जो अछूत थे। (3) हिन्दुओं को चाहिए था एक संविधान, और उसके लिए मुझे बुलाया गया। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म प्रत्येक आत्मा को परमात्मा का अंश मानता है। प्राणी मात्र के प्रति करूणा प्रदर्शित करने की सिफारिश करता है। उसी के अनुयायी एक वर्ग को मनुष्य तक मानने से इन्कार करते है। वे गाय, सर्प, बैल की यहां तक वृक्षों की पूजा करते है। लेकिन दलित को बराबरी का दर्जा देने में आज भी हिचकिचाते हैं। पहिले दलित अलग-अलग अत्याचारों के शिकार होते थे किन्तु अब दलितों में साहस एवं एकता पैदा हो जाने से सवर्ण इनकी सामूहिक रूप से हत्या करते है। ठोका पीटा जाता है। दलित पत्रकारिता के आयाम,बलात्कार किया जाता है। अपनी सामाजिक पहचान बनाने व सम्मानपूर्ण अस्तित्व पाने के लिए दलितों के संघर्ष का इतिहास रक्त में सना हुआ है। जिसका बेरहम सिलसिला अभी भी जारी है। इस प्रकार अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते हुए जूझने का नाम ही दलित पत्रकारिता का इतिहास है। जिसमें स्वयं का प्रिन्ट या इलेक्ट्रानिक मीडिया होने पर ही स्वतंत्र पहचान बनायी जा सकती है। जो आज की अहम आवश्यकता है जिसके तेवर डॉ.अम्बेड़कर पूर्व में ही दे चुके हैं। दलित पत्रकारिता का भविष्य काफी उज्जवल प्रतीत होता है।
“भारतीय लोकतंत्र यदि कमजोर है तो हमें कारणों की तलाश करनी चाहिए। लोकतंत्र के चार खंभों में से विधायिका तो एक हद तक सामाजिक रूप से समावेशी बनती जा रही है। और आरक्षण के बूते कार्यपालिका भी अब नितांत एकपक्षीय नहीं है, लेकिन न्यायपालिका और मीडिया के बारे में क्या कहा जाएगा? और इसी प्रसंग में मेरा मानना है कि जब तक लोकतंत्र का चौथा खंभा सामाजिक रूप से सर्वसमावेशी नहीं होगा, तब तक विरोधी मत रखने वाले विचारों, समानता और बंधुत्व के लिए उसमें जगह नहीं होगी। और इसके बिना इसके आधुनिक हो चुकने की सभी बातें बेमानी रहेंगी।”
भारत में दलित पत्रकारिता के आयाम