हिन्दुत्व रूपी शतरंज के मोहरे रहे हैं दलित और ओबीसी। वोट के लिए ओबीसी,एससी हिन्दू, अधिकार के लिए वंचित। आज नित-नए अशोक, बलवीर और सुरेश पैदा हो रहे हैं, जो अतीत से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं और न ही अपने महापुरुषों के इतिहास को जानने के इच्छुक ही हैं। हिन्दुत्व रूपी शतरंज के मोहरे रहे हैं दलित और ओबीसी
कई वर्ष पहले तथाकथित बाबरी मस्जिद ढांचे के ढहाए जाने के बाद ‘आउटलुक’ पत्रिका के मुखपृष्ठ पर सिर पर भगवा वस्त्र लपेटे हुए एक व्यक्ति की तस्वीर छपी थी, उसने बहुत सुर्खियां बटोरी थीं। आपकी यह जानने की इच्छा जरूर होगी कि आख़िर हिन्दुत्व के लिए ‘पोस्टर ब्वॉय’ के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त यह युवक कौन था? जी हां, मैं अशोक परमार उर्फ अशोक मोची की बात कर रहा हूं। यह वही युवक है जो बाबरी ढांचा के विध्वंस से लेकर गोधरा काण्ड तक एक कट्टर हिन्दू चेहरा था। यह वही युवक था, जिसे बाबरी मस्जिद ढांचे का दूसरा गुम्बद तोड़ने का श्रेय प्राप्त हुआ था। यह युवक वर्षों से जूते पालिश करने का काम कर रहा था। लेकिन गुजरात के ‘ऊना कांड’ में हुई दलित उत्पीडन की घटना के बाद उस युवक के दिलो-दिमाग में हिन्दू धर्म के प्रति नफ़रत इस कदर बढ़ गई कि उसे अपने अतीत पर ग्लानि होने लगी। कुछ समय बाद उसने एक जूतों की दुकान खोली। गुजरात दंगों का पीड़ित एक मुस्लिम व्यक्ति, कुतुबुद्दीन अंसारी, जिसका रोता हुआ चेहरा, गोधरा के दंगों के दौरान, अखबारों की सुर्खियां बना था, के द्वारा तात्कालिक कट्टर हिन्दू अशोक परमार ने अपनी दुकान का उद्घाटन करवाया था। अशोक, कुतुबुद्दीन से गले मिलकर अपने अतीत पर शर्मिन्दा भी हुआ था। ऊना काण्ड से दुःखी होकर वह गुजराती नेता जिग्नेश मेवानी के साथ आ गया था और उसके लिए काम करने लगा।
बाबरी ढांचा के विध्वंस के बाद तत्कालीन हिंदूवादी नेता अशोक सिंघल और मण्डल कमीशन लागू होने से पिछड़ी जातियों में बनी एकजुटता से चिन्तित लालकृष्ण आडवाणी, जो आजकल बीजेपी के अन्य वयोवृद्ध नेताओं के संग बीजेपी के ‘मार्गदर्शक मण्डल’ की शोभा बढ़ा रहे हैं, आबाद हो गए थे, लेकिन वे तीन नाम, जिन्होंने बाबरी मस्जिद ढांचे को ढहाए जाने के लिए बहुत सुर्खियां बटोरी थीं, पूरी तरह बर्बाद हो गए। प्रश्न उठता है कि,वे अब कहां हैं? उनका क्या भविष्य है? आइए जानते हैं।
बाबरी मस्जिद के ढांचे का पहला गुम्बद ढहाने वाला युवक बलवीर था, जो ‘चमार’ जाति से था। वह और उसका परिवार बहुत गरीब था। उसका परिवार सड़क पर आ गया था। कुछ मुस्लिमों ने उस पर दया दिखाते हुए उसकी आर्थिक मदद की।उन मुस्लिमों के अहसान तले दबकर और हिन्दू धर्म से घृणा हो जाने के कारण आवेश में आकर उसने ‘इस्लाम’ धर्म कबूल कर लिया और एक सामान्य जिन्दगी जीने लगा। अपने अतीत को याद करते हुए वह कहीं खो जाता है और उन चालाक हिन्दू नेताओं को जी भरकर कोसने लगता है। दूसरा युवक यूपी राज्य का निवासी कारसेवक ‘सुरेश बघेल’ था, जो अनूसूचित जाति में खटीक जाति से सम्बंध रखता है। यह युवक बाबरी मस्जिद ढांचे को ढहाए जाने के वक्त मात्र 23 वर्ष का था। ऐसा कहा जाता है कि बाबरी मस्जिद ढांचे को ढहाने के लिए इसी युवक ने अपनी जान जोखिम में डालकर जिलेटिन की छड़ें मुहैय्या कराई थीं। हजारों दलित- पिछड़े नौजवानों के साथ उसने आडवाणी जी के साथ गिरफ्तारी भी दी थी। आज वह मायूस है। अपने अतीत को यादकर वह सिहर उठता है। सहारनपुर हिंसा में सवर्ण हिन्दुओं(संगीत सोम) द्वारा दलितों पर ढाए कहर को याद कर गुस्से से लाल हो उठता है। कट्टर हिन्दू बनकर बाबरी मस्जिद ढांचे को ढहाए जाने की घटना को लेकर उसे खुद पर ग्लानि होती है। उसका परिवार बिखर गया है। उसकी पत्नी अपने मायके चली गई है और वहां रहकर किसी तरह अपनी गुजर- बसर कर अपने बच्चों का पेट पाल रही है। सुरेश बघेल के बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है।
गुजराती दलित लेखक राजू सोलंकी ने गिरफ्तारियों के तौर तरीकों का गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने एक निबन्ध लिखा, जिसका शीर्षक है – “Blood Under Saffron – The Myth Of Dalit Muslim Confrontation.” उन्होंने लिखा कि, दंगों के दोषी जिन 1567 हिन्दुओं की गिरफ्तारी हुई थी, उनमें से 747 दलित और 797 ओबीसी के लोग थे। इसके साथ ही अन्य लोग गिरफ्तार हुए थे, उनमें 19 पटेल, 2 वैश्य और 2 ब्राह्मण थे। उन्होंने यह भी दावा किया कि मुस्लिमों का नरसंहार गुजरात के कई गाँवों और शहरों में हुआ लेकिन यह नरसंहार उन इलाकों में नहीं हुआ, जहां दलित और मुस्लिम एक साथ रहते थे।बाबरी मस्जिद विध्वंस में हिन्दू बनने वाले में केवट, मल्लाह सबसे आगे थे।
मशहूर लेखिका अरुंधति राय की लिखी हुई एक पुस्तक ने बहुत सुर्खियां बटोरी थीं। उन्होंने यह पुस्तक अंग्रेजी भाषा में लिखी है, इसका शीर्षक है – ‘ The Doctor And The Saint’ जिसका बाद में दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर डॉ.रतन लाल के सौजन्य से हिन्दी में अनुवाद किया गया। इस पुस्तक के पृष्ठ संख्या 135 में वे बताती हैं कि,”गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, जिनके मुख्यमंत्रित्व काल में गोधरा काण्ड और उसके बाद नरसंहार हुआ, उसके बाद वे लगातार तीन बार चुनाव जीत चुके हैं। एक पिछड़ी जाति (वर्णव्यवस्था क्रम में शूद्र वर्ण) का होने के बावजूद उन्होंने दक्षिणपंथी हिन्दुओं को खुद का प्रिय बना लिया है, क्योंकि वे अन्य भारतीय राजनेताओं के मुकाबले में अधिक बेरहम और खुले तौर पर मुस्लिम विरोधी हैं।”
आज प्रश्न वही है कि जिन दलितों और पिछड़ों का अयोध्या में राम मन्दिर से लेकर सरकार की नीति तक भरपूर इस्तेमाल हुआ, वे आज कहां हैं? क्या उन्हें शासन-प्रशासन में उनकी संख्या के अनुपात में हिस्सेदारी मिली…? या फिर उद्देश्य पूर्ति के बाद, उन्हें दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक दिया गया, जिन्होंने बाबरी मस्जिद के गुम्बद तोड़े और जो गोधरा के हीरो बने, वे या तो आज कहीं जूते पोलिश कर रहे हैं, या फिर कष्टपूर्ण जिन्दगी जीने को अभिशप्त हैं, क्यों?
समय की मांग है कि हिन्दुत्व के नाम पर साम्प्रदायिक दंगों में एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल होने वाले गुमराह युवक मंथन करें। आज नित-नए अशोक, बलवीर और सुरेश पैदा हो रहे हैं, जो अतीत से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं और न ही अपने महापुरुषों के इतिहास को जानने के इच्छुक ही हैं। उनका ‘ब्रेन वॉश’ किया जा चुका है। उन्हें इस पर भी विचार करना चाहिए कि उनके बच्चों का भविष्य क्या है? क्या उन्हें अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और सरकारी नौकरियों एवं व्यवसायों में उचित अवसर मिल रहे हैं? यदि नहीं मिल रहे हैं, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? गुमराह युवकों को इस पर भी विचार करना चाहिए कि, क्या कारण है कि राजनेताओं और अधिकांश सवर्ण जातियों के बच्चे किसी साम्प्रदायिक जुलूस या दंगों का हिस्सा नहीं होते हैं? बड़े लोग और राजनेता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा के लिए विदेश में पढ़ाते हैं, और गरीब दलितों और पिछड़ों के बच्चों को अपने ही देश में न ही अच्छी शिक्षा मिलती है, और न ही अच्छी स्वास्थ्य सुविधा ही मिलती है। क्यों? धर्मयुद्ध लड़ने के लिए गरीब दलित और पिछड़े युवक और शासन- प्रशासन चलाने में अहम भूमिका किसी एक खास वर्ग की, क्यों? साम्प्रदायिक दंगों में अग्रणी भूमिका दलितों और पिछड़ों की मुकर्रर की जाती है, और मुश्किलें आने पर राजनेता अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, क्यों?इसके फलस्वरूप दलित और पिछड़े सालो-साल जेलों में सड़ते रहते हैं और उनकी जमानत के लिए कोई आगे नहीं आता है, क्यों? लगता है कि धर्म की लड़ाई की अगुआई दलित और पिछड़े करेंगे और शासन-प्रशासन की अगुआई वे करेंगे, जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं और जो शैक्षिक, सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक रूप से संपन्न भी हैं।
कैसी विडम्बना है कि राजतंत्र में तो मजबूरी थी कि राजा, रानी की कोख से पैदा होता था, लेकिन अब तो भारत में लोकतंत्र है, फिर भी राजा उसी वर्ग का या उनकी ही पसन्द का बनता है, जबकि बहुजनों के पास वोट की ताकत है। कारण साफ है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े अपने वोट की कीमत ही नहीं जानते हैं, और अपने वोट को क्षणिक लाभ के लिए अपने शोषकों की झोली में डाल देते हैं। फिर याचक की भूमिका में शासकों से अपने हकों के लिए सालों-साल गिड़गिड़ाते रहते हैं। यही इनकी नियति बन चुकी है। आज देखना है तो देख लीजिए,कांवड़ उठाने वाले, दुर्गा पंडाल सजाने वाले,शिव चर्चा कराने वाले, सरस्वती प्रतिमा स्थापित, हनुमान जयंती आयोजित कराने वाले चमार को छोडकर निषाद, यादव, कुर्मी, कुशवाहा, शाक्य, पाल, प्रजापति, विश्वकर्मा, साहू, नाई, बारी, लोधी, कम्बोज, सोनार आदि ही मिलेंगे, कोई सवर्ण ब्राह्मण आदि नहीं मिलेगा। हिन्दुत्व रूपी शतरंज के मोहरे रहे हैं दलित और ओबीसी
राष्ट्रीय प्रवक्ता-भारतीय ओबीसी महासभा