

संस्कृति मनुष्यता के सत्कर्मों का शिव और सौंदर्य है। यह राष्ट्र की आत्मा होती है। राष्ट्र किसी सुनिश्चित भूमि पर लोगों के रहने के आधार पर ही नहीं बनते। भूमि, जन और राजव्यवस्था से राज्य बनते हैं। लेकिन राष्ट्र निर्माण का महत्वपूर्ण घटक संस्कृति है। संस्कृति का मूल आधार दर्शन होता है। राष्ट्र का दार्शनिक चिंतन ही राष्ट्रजीवन का बीज है। यही संस्कृति को विकसित होने की प्रेरणा देता है। कुछ विद्वान दर्शन को बौद्धिक कार्रवाई कहते हैं। प्रत्यक्ष, प्रमाण, अनुमान, तर्क, संशय, संदेह और सकारात्मक चिंतन के मूल उपकरण हैं। भारतीय दर्शन की प्रतिष्ठा समूचे विश्व में है। दार्शनिक विकास भी 100-50 वर्ष का काम नहीं है। भारत में हजारों वर्ष पीछे से सांस्कृतिक निरंतरता का प्रवाह है। इस सांस्कृतिक विकास को दर्शन और विज्ञान की धाराओं ने लगातार मजबूत किया है। दुनिया के अधिकांश देशों में सांस्कृतिक विकास के पहले दर्शन नहीं था। समाज ने उन्नति की। पंथ और संप्रदाय ने समाज जीवन को नियंत्रित किया। शुभ और अशुभ की विभाजक रेखाएं विकसित हुईं। पंथिक विकासके क्रम में विश्वास का वातावरण बना। इस विकास में तर्क और संशय नहीं थे। पंथ और विश्वास बढ़ते गए। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को स्वीकारने का साहस नहीं हुआ। विचार अंधविश्वास हो गए। संस्कृति मनुष्यता के सत्कर्मों का शिव और सौंदर्य
भारत में ऐसा नहीं हुआ। भारत में दर्शन का जन्म जिज्ञासा से हुआ है। आदिम समाज में धरती, आकाश, सूर्य, और चन्द्र के प्रति जिज्ञासा थी। इस जिज्ञासा ने सोच, विचार और अध्ययन के नए रास्ते खोल दिए। तर्क चले। कुतर्क भी चले। लेकिन दर्शनाभिलाषी सतर्क रहे। तर्क ही यहाँ मार्गदर्शक रहा है। मूर्ति देव प्रतीक होती हैं। यह साधारण पत्थर या मिटटी नहीं है। इसलिए मंदिर में जाने को दर्शन करना कहा जाता है। सतत् विवेचन से दर्शन की प्रतिष्ठा बढ़ी। विज्ञान और दर्शन में अंधविश्वास को जगह नहीं है। संकीर्णता के लिए भी कोई स्थान नहीं है। पूर्वजों ने समूचे अस्तित्व को एक इकाई जाना था। वैदिक काल में दार्शनिक चिंतन की सुस्पष्ट धारा दिखाई पड़ती है। ऋग्वेद का नासदीय सूक्त अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय रहा है। इस सूक्त के प्रत्येक शब्द में जिज्ञासा का अमृतघट उफनाता दिखाई पड़ता है। सूक्त के रचयिता ऋषि पपरमेष्टिन हैं। कहते हैं, ”तब न सत् था, न असत्। न दिवस था न रात्रि। कौन जानता है कि पहले क्या था? सृष्टि का अध्यक्ष भी नहीं जानता होगा कि सबसे पहले क्या था?” यह सूक्त सृष्टि रहस्यों की जिज्ञासा से जुड़ा है। तब से लेकर प्राचीन भारतीय दर्शन में तर्क, बहस और शास्त्रार्थ जीवंत परंपरा है। गीता और उपनिषदों में यही परंपरा आज तक जारी है। यह धारा बेशक किसी न किसी कालखण्ड में मध्यम भी रही है।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि, ”यह ज्ञान मैंने सूर्य को, सूर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था। समय के अंतराल में यह ज्ञान लुप्त हुआ। अब मैं तुमको वही ज्ञान दे रहा हूं।” ज्ञान सदा रहता है। सनातन है ज्ञान का तत्व। भारत की धरती पर मूल ज्ञान को युग अनुसार बनाए रखने वाले महानुभावों की लम्बी परंपरा है। यह ज्ञान सबसे पहले ऋग्वेद में, फिर उपनिषदों में, दार्शनिक चिंतन में, गीता और ब्रह्मसूत्र में दिखाई पड़ता है। रामायण में इसी ज्ञान के प्रतिरूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम हैं। गीता में श्रीकृष्ण हैं। बुद्ध, महावीर भी इसी धारा के शीर्ष व्यक्तित्व हैं। सांख्य दर्शन के ऋषि कपिल हैं। योग दर्शन के पतंजलि हैं। इसी परंपरा में विवेकानंद, दयानंद जैसे महान व्यक्तित्व हैं। इन सब के बीच अद्वैत दर्शन के प्रचारक शंकराचार्य हैं। शंकराचार्य ने अपने शोध, बोध व आचरण से वैदिक दर्शन को भारतीय स्वाभिमान का सनातन तत्व पाया है। उन्होंने अल्प आयु में ही गीता, ब्रह्मसूत्र और तमाम उपनिषदों का भाष्य किया है। पूरे देश की यात्राएं की। वेदांत दर्शन पर तमाम तर्क हुए। विद्वानों ने तमाम प्रश्न पूछे। शंकराचार्य ने सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। ईश्वर और मोक्ष जैसे गूढ़ और जटिल विषयों पर उनकी व्याख्या अद्भुत है।
शंकराचार्य की दार्शनिक अनुभूति का प्रभाव तत्कालीन समाज पर पड़ा ही था। उन्होंने लम्बी दूरी की यात्राएं की। व्यापक जनसम्पर्क किया। उन्होंने शास्त्रार्थ में बौद्ध विद्वानों को भी प्रभावित किया। शंकराचार्य के समय बौद्ध पंथ का प्रभाव फैल रहा था। राज्याश्रयी होने के कारण बुद्ध विचार के प्रचार का काम भी सरल था। वेदांत का तत्व विवेचन आसान नहीं पर आचार्य शंकर ने शब्द गर्भ में पैठकर सार और असार का अनावरण किया है। दर्शन का अर्थ है-सत्यानुभूति, लेकिन सत्य की अनुभूति आसान नहीं। यह प्रवचन से असंभव है। मेधा शक्ति भी आत्म तत्व तक नहीं पहुँचती है। तर्क से भी बात नहीं बनती। सामान्यतया भक्ति, सन्यास और योग कर्म ईश्वर की प्राप्ति के उपकरण माने जाते हैं, लेकिन शंकराचार्य इनमें से किसी उपकरण को ब्रह्म अनुभूति का साधन नहीं मानते।
शंकराचार्य के वास्तविक समय के सम्बंध में मतभेद है। वैसे अधिकांश विद्वानों के अनुसार उनका समय 788 ई. से 820 ई. तक माना जाता है। इसका मुख्य ग्रंथ ब्रह्मसूत्र है। उनके दर्शन से भारतीय ज्ञान साधना ने आकाश जैसी ऊंचाई पाई। वेदांत दर्शन भारतीय राष्ट्रभाव का प्रतिनिधि दर्शन है। ब्रह्मसूत्र ब्रह्म जिज्ञासा से प्रारंभ होता है। दार्शनिक परंपरा में ब्रह्म को लेकर काफी तर्क चले हैं। शंकराचार्य ने ब्रह्म को सत्य बताया है और संसार को मिथ्या। वेदांत दर्शन के जानकारों के लिए यह कोई नई बात नहीं है लेकिन विराट को प्रकट करने के लिए शब्द अर्थ ही पर्याप्त नहीं होते।
शंकराचार्य का ब्रह्म समूचे अस्तित्व में कण कण में व्याप्त है। इसका न जन्म होता है और न मृत्यु। यह अजन्मा है। सदा से है। सदा रहता है। शंकर ने इसे नित्य कहा है। नित्य का अर्थ है कि इस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता है। ब्रह्म काल के भीतर भी है और बाहर भी है। काल अबाधित है। इसका बोध भक्ति से नहीं होता। इसके विपरीत संसार के प्रत्येक पदार्थ कालाधीन हैं। काल प्रभाव में है। नदियां अपने संगीत में बहती हैं। नदी का जन्म शिखर ऊंचाई पर पत्थर की खोह से निकले जल से होता है। जल अपनी प्रकृति में रसपूर्ण और प्रवाहमान है। सदा ऊपर से नीचे की ओर बहता है। नदी नाद आनंददायी है। लेकिन नदियां नित्य नहीं अनित्य हैं। काल के अधीन हैं। वैदिक ऋषियों की दृष्टि में नदीतमा रही सरस्वती भयावह जल प्रलय के समय खण्डों में टूट गई। संसार की प्रत्येक वस्तु काल के अधीन है। जीवन की भी अवधि होती है। इसलिए सारी वस्तुएं पदार्थ और प्राणी अनित्य हैं। वे ब्रह्म की तरह नित्य नहीं हैं। ब्रह्म नित्य हैं, जगत् अनित्य है। जगत् को शंकर ने मिथ्या कहा है। मिथ्या का अर्थ अस्तित्वविहीन होना नहीं है। जो क्षणभंगुर है, वही शंकराचार्य की दृष्टि में मिथ्या है और जिस पर भूत, भविष्य, वर्तमान का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जो सभी कालों, दशाओं और दिशाओं में उपस्थित रहता है, वह ब्रह्म है। संस्कृति मनुष्यता के सत्कर्मों का शिव और सौंदर्य