डॉ.नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी
जो बच्चे बचपन में ही अपनी शक्ति और निष्ठा को संभाल लेते है, उनकी शक्ति और तेज जीवन भर काम आते है। वर्तमान समय में बढ़ते वैचारिक प्रदूषण के कारण छोटे-छोटे बच्चों में भी बुढ़ापे के लक्षण दिखने लगे हैं। आंखें धंसी हुई, चेहरों पर झुर्रियां ,बालों में सफेदी, कमर आगे झुकी हुई,शरीर से कमजोर, कुपोषण जैसे हालात देखकर ऐसे बच्चों को हम कैसे युवा कह सकते हैं…? वैचारिक प्रदूषण से बच्चे असमय हो रहे बुढ़ापा के शिकार
पिछले दो-तीन दशकों में हुए इलेक्ट्रॉनिक्स क्रांति ने युवाओं को कमजोर निस्तेज बनाकर रख दिया है। पूर्व काल में जो बुढ़ापे के लक्षण 60- 70 वर्ष के उम्र में दिखाई देते थे वही लक्षण आज 16 से 20 साल के बच्चों में भी दिखने लगे हैं। कभी-कभी यह समझ में नहीं आता है कि हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं या विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ दशक पूर्व जो बच्चों की जवानी 18 साल की उम्र में आती थी, वह आज 10 – 12 साल की उम्र में आने लगी है जिसके दुष्प्रभाव के कारण जो बच्चा पांच – छह साल पहले जवान होगा, वह 20 – 30 वर्ष पहले बूढ़ा भी हो जाएगा। बच्चों में जितनी जवानी देर से आएगी, बुढ़ापा भी उतना ही देर से आता है। ऐसे में आवश्यकता है कि बच्चों को अपनी शक्ति को कैसे संभाले? इस पर वे विचार करें। जिस शक्ति का लोहा संपूर्ण विश्व मानता था वह आज निस्तेज बनता जा रहा है।
आधुनिक सभ्यता ने व्यक्ति को कमजोर और निस्तेज बनाकर रख दिया है। बढ़ते फास्ट फूड के प्रचलन के कारण बच्चे बचपन से ही विभिन्न बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। यदि हम अभी नहीं संभले तो हो सकता है बहुत देर ना हो जाए। पिछले तीन दशकों में आये परिवर्तनों को देखकर लगता है कि अब बचपन से ही युवाओं को कुंठा व शक्तिहीन बनाने की साजिश चल रही है। तीन दशक पूर्व जब भारतीयों में सुविधा का घोर अभाव था तो लोग 50 किलो अनाज की बोरी सर पर उठाकर एक-दो किलोमीटर तक आराम से लेकर चले जाते थे। आज किसी युवा को 50 किलो उठा कर चलने को कहा जाए तो वह उठा भी नहीं पायेगाऔर चलने की बात तो दूर की है ।
यह कैसा विकास हो रहा है? जो विकास हमारे आने वाली पीढ़ी को बर्बादी के मार्ग पर ले जाए वह विकास नहीं महाविनाश है। कहावत हैं कि मुख से किया गया भोजन तो 24 घंटे में शरीर में पच जाता है लेकिन आंखों एवं कानों से किया गया बिष भोजन सात जन्मों तक बेकार कर देता है। जो बच्चे आज आंखों से रात – रात भर जागकर मोबाइल पर अश्लील चीजों को देख रहे हैं, उसके दुष्प्रभाव से कैसे बचा जा सकता हैं ?
भारतीय संस्कृति में चार आश्रमों में प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य अपना तेज अपनी शक्ति संभालने के लिए की गई थी जिसकी उम्र 25 वर्ष है। यदि व्यक्ति अपने जीवन के प्रारंभिक 25 वर्षों तक अपनी शक्ति को संग्रहित कर लेता है तो आगे उसका गृहस्थ जीवन एवं वानप्रस्थ सन्यास जीते हुए प्रेम से 100 वर्ष गुजार देता था। वर्तमान समय में ब्रह्मचर्य एक मजाक बनकर रह गया है। जिस शक्ति को बढ़ाने की उम्र 25 वर्ष थे । उस शक्ति को बच्चे अब 10-12 साल की उम्र में ही गवाने लगे हैं। ऐसी स्थिति में ऐसे बच्चे 50 साल भी स्वस्थ जीवन नहीं जी सकते। बच्चों का बचपन यदि कमजोर होगा तो उसको जीवन भर कमजोरी व हताशा में ही जिंदगी गुजारनी पड़ेगी। यहीं कारण है कि चार-पांच दशक पूर्व जब बीमार व्यक्ति को ढूंढना मुश्किल था वहीं आज पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति को ढूंढना मुश्किल हो गया है। पिछले चार-पांच दशकों में इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है कि व्यक्ति की औसत आयु 20-30 साल कम हो जाए तो हमें यह विश्वास कर लेना चाहिए कि मोबाइल का लत एवं उस पर परोसे जा रहे अश्लील सामग्री हमें विनाश के गर्त में ले जा रही है। यदि हमें संसार को जीतना है तो पहले स्वयं को जीतना पड़ेगा। अपनी शक्ति को संरक्षित करना पड़ेगा। तभी हम काल को भी परास्त कर सकते हैं । इसलिए हमें बचपन से बच्चों के क्रिया कलाप पर ध्यान देने की आवश्यकता है, तभी हमारा बचपन बचेगा और युवा शक्ति के रूप में उभरेगा। वैचारिक प्रदूषण से बच्चे असमय हो रहे बुढ़ापा के शिकार