ग्राम्य लोकजीवन की धार्मिक लोक आस्था पत्थरों में बसती है। लोग अपनी आस्था व भक्ति के सजीव मूर्त रूप का दर्शन पाषाण-खंडों में करते हैं; और इसी जनविश्वास के चलते गाँवों को विभिन्न देवी-देवताओं का निवास स्थल माना जाता हैं, जिनमें साँहाड़ा देव एक है। “साँहड़ा” साँड़ (साँड) शब्द का अपभ्रंश शब्द है, जिसका प्रतीकात्मक अभिप्राय “नंदी” से है जो देवाधिदेव भगवान महादेव का वाहन माना जाता है।
साँहड़ा देव का स्थापत्य स्थल :-
साँहड़ा देव का स्थापत्य स्थल “गौठान” कहलाता है, जिसके समीपस्थ विशाल बरगद वृक्ष का दृश्य बड़ा मनोरम लगता है। यही स्थल “साँहड़ा-ठऊर” होता है। साँहड़ादेव मूलतः शिलाखंड के रूप में होता है। आधुनिकता के चलते हर गाँव में इस पाषाण-खंड से सटाकर श्वेत वर्ण साँड़ का मूर्तरूप स्थापित किया जाता है। प्रतिस्थापित साँहड़ादेव की सुंदर नयननक्श, डीलडौल एवं आकर्षक प्रतिमा बिल्कुल साँड़ सा प्रतीत होता है। अनेक गाँवों में साँहड़ादेव की प्रतिमा ईंट, सीमेंट-रेत से बनी होती है। इसका व्ययभार गाँव की किसी आर्थिक संपन्न व्यक्ति, क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि या ग्राम्य-मद की राशि से उठाया जाता है। इसकी स्थापना तीज-त्यौहार या विशेष धार्मिकोत्सव को ग्राम्यजनों के द्वारा पूजा-पष्टकर की जाती है।
लोकमान्यता :-
साँहड़ादेव के प्रति लोगों की अटूट श्रद्धा होती है। मान्यता है कि गाँवों में पशुवंश वृद्धि, उत्तम स्वास्थ्य सुख समृद्धि दे सहारा दे की विशेष कृपा होती है। साँहाड़ादेव ग्राम्य पशुओं की मौसमी बीमारियों से रक्षा करता है। प्राकृतिक विपत्तियों से बचाता है। लोग अपने जन-विश्वास को कायम रखते हुए साँहड़ादेव की आत्मिक-सजीवता के साथ एक स्वस्थ बछड़े को पशुप्रधान के रूप में चयन करते हैं जो बड़ा होकर “गोल्लर” (साँड़) कहलाता है। इससे गौ-पशु के नस्ल में सुधार होता है। इस देवतुल्य साँड़ पर लोग अपार श्रद्धा रखते हैं।
साँहड़ादेव का धार्मिक-संयोजन :-
भोले-भाले ग्राम्य जन भगवान शिव जी को बिल्कुल “भोला” भगवान मानते हैं। शांत, कोपरहित व दयालु देव के रूप में पूजते हैं। यह भी मानते हैं कि शिव जी की कृपा सदा रहती है, इसीलिए तो गाँवों में शंकर जी की कई जगहों में विराजित शिवजी की प्रति अटूट विश्वास रखने वाले उनके वाहन नंदी जी को भला कैसे भूल सकते हैं। कहा जाता है कि भगवान भोलेनाथ अपने नंदी पर सवार होकर पूरे जग का भ्रमण करते हैं। लोगों पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखते हैं।
विशेष पूजा-अर्चना :-
वैसे तो ग्रामीण जन सभी धार्मिकोत्सवों में साँहड़ादेव का विनय-अनुनय करते हैं। सत्यनारायण की पूजा, चौका आरती, ज्योत-जंवारा जैसे धार्मिक अनुष्ठानों में साँहड़ादेव का पूजापाठ कर अपना काम-काज पूर्ण करते हैं, पर दीपावली के अवसर पर विशेष पूजा अर्चना की जाती है। लक्ष्मी-पूजन रात्रि को गाँव के राऊतप्रमुख हूम-धूप देते हैं। दीये जलाते हैं। गोवर्धन पूजा के दिन सुबह साँहड़ा स्थल को गोबर से लीपा जाता है। शाम को ग्राम-प्रमुख एवं राउतों द्वारा पूजा-अर्चना की जाती है। नारियल तोड़ा जाता है। सुहाई चढ़ाई जाती है। एकाध श्वेत वर्ण बछिया को खिचड़ी खिलाने का रस्म भी करते हैं। गोवर्धन खुँदवाते हैं। साँहड़ादेव का परिक्रमा करते हुए राउत-मुखिया दोहा पारता है।
“पूजा करै पुजेरी संगी, धोवा चाऊँर चढ़ाई।
पूजा होत हे गोबरधन के, सेत धजा फहराई।।”
साथ ही, गाँव में मँड़ई-मेले के सफल आयोजन पर साँहड़ादेव की विशेष कृपा मानी जाती है। इस तरह साँहड़ादेव का आशीष ग्राम्यजन व पशुधन पर सदैव बनी रहती है।