जाति जनगणना: गिनती नहीं पहचान

14
जाति जनगणना: गिनती नहीं पहचान
जाति जनगणना: गिनती नहीं पहचान

भारत केवल एक भूगोल नहीं है। यह संवेदनाओं, विविधताओं, संघर्षों और चेतनाओं की जीवित भूमि है। यहां हर नदी की धारा, हर पर्वत की छाया, हर गांव की मिट्टी में एक कथा छिपी है और इन सब कथाओं को जोड़ने वाली जो सबसे महीन और गहरी रेखा है, वह है जाति। जाति यह शब्द जितना साधारण दिखता है, उतना ही जटिल है इसकी गुत्थी। यह किसी व्यक्ति के नाम के साथ चलती है, कभी उसके आगे तो कभी उसके पीछे, परंतु उससे अलग कभी नहीं होती। यह उसके खाने, पहनने, बोलने, चलने, बैठने, यहां तक कि स्वप्न देखने के अधिकार को भी निर्धारित करती है। ऐसे में अगर कोई कहे कि भारत को जाति जनगणना की आवश्यकता नहीं, तो यह वैसा ही होगा जैसे कोई आंखें मूंदकर सूरज को नकार दे। जातियों की गणना कोई नया विचार नहीं है। ब्रिटिश भारत में 1931 में अंतिम बार व्यापक जातिवार जनगणना हुई थी। उसके बाद भारत स्वतंत्र हुआ, संविधान बना, लोकतंत्र आया, लेकिन जातियों का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हुआ। वे हमारे सामाजिक व्यवहार में बनी रहीं। किसी के आंगन की चौखट तक सीमित तो किसी के सपनों की ऊंचाई तक पहुंचने में बाधा बनीं। जाति जनगणना: गिनती नहीं पहचान

इसलिए जब हम जाति जनगणना की बात करते हैं तो हम महज आंकड़ों की नहीं, बल्कि उन कहानियों की बात करते हैं जो आंकड़ों के पीछे छुपी हैं। वंचना की कहानियां, उपेक्षा की पीड़ाएं और संघर्ष की ज्वालाएं। क्या यह आवश्यक नहीं कि हम जानें, कौन-कौन से समाज अब भी अधूरे हैं? कौन-से वर्ग अब भी हाथ में पात्र लेकर अवसरों की भिक्षा मांग रहे हैं? भारत ने संविधान में वादा किया था। सबको समान अवसर मिलेगा। पर बिना यह जाने कि कौन कहां खड़ा है, यह समानता महज़ एक कविता बन जाती है सुंदर लेकिन असंभव।

जाति जनगणना उसी कविता को गद्य में बदलने का पहला कदम हो सकती थी। जब तक हमें यह न पता चले कि किस जाति की कितनी जनसंख्या है, उनका आर्थिक स्तर क्या है, वे शिक्षा से कितनी दूर हैं। तब तक उनकी समस्याओं का समाधान कैसे संभव है? मान लीजिए, एक गांव में पांच जातियां हैं। एक ऊंची जाति, जो वर्षों से सब संसाधनों पर अधिकार रखती आई है, और चार वे जो छाया बनकर जीती रही हैं। यदि सबको समान रूप से योजनाएं दी जाएँ, तो क्या यह वास्तव में न्याय होगा? जाति जनगणना एक ऐसी दृष्टि प्रदान करती जिससे योजनाएं अंधेरे में तीर चलाने के बजाय सटीक निशाने पर उतरतीं।

भारतीय लोकतंत्र जाति से अनभिज्ञ नहीं है। हर चुनाव, हर टिकट, हर नारा कहीं न कहीं जाति की गणित में उलझा रहता है। राजनीतिक दल जब ‘बहुजन हिताय’ की बात करते हैं, तो उनका गणना तंत्र जातियों के अनुमानों पर आधारित होता है, न कि ठोस आंकड़ों पर। अगर जाति जनगणना होती, तो इस अनुमान का स्थान ज्ञान ले लेता। कौन जातियां अभी भी प्रतिनिधित्व से दूर हैं? किन्हें बार-बार सत्ता में हिस्सेदारी मिली और किन्हें केवल नारे? यह जानना आवश्यक है।

बिहार द्वारा 2023 में किये गए जातीय सर्वेक्षण से जब यह सामने आया कि राज्य की 84 प्रतिशत आबादी ओबीसी, ईबीसी और एससी एसटी में आती है, तो मानो समाज ने खुद को आईने में देखा। ऐसा ही आईना पूरे देश के सामने भी आ सकता था, अगर जाति जनगणना राष्ट्रस्तर पर की जाती। कुछ लोग यह आशंका प्रकट करते हैं कि जाति जनगणना से समाज में विघटन बढ़ेगा, जातीय पहचान और मजबूत होगी। यह तर्क सतही रूप से आकर्षक लगता है पर गहराई में देखें तो यह वैसा ही है जैसे कोई यह कहे कि बीमारी की जांच से बीमारी बढ़ जाती है।

सच तो यह है कि जाति की मौन उपस्थिति से ही अन्याय जन्म लेता है। जब तक जाति की गिनती नहीं होगी, तब तक जाति का शोषण छिपा रहेगा। जनगणना से यह छिपा हुआ अन्याय उजागर होगा और तभी सच्चे समाधान की दिशा तय होगी। भारत जातियों का संगम है। कोई महानदी है, कोई सूखी नाली, कोई समुद्र जैसा गहरा, तो कोई झील-सा शांत। पर हर प्रवाह में जीवन है, हर बूंद में अधिकार है। जाति जनगणना उस जीवन की माप थी, उस अधिकार की पहचान थी। यह केवल आंकड़े नहीं, यह आत्मस्वीकृति थी। यह स्वीकार करना था कि हमारी विविधता ही हमारी शक्ति है, और हर समुदाय, चाहे वह कितना ही पिछड़ा क्यों न हो, वह इस राष्ट्र की गरिमा का हिस्सा है।

जाति जनगणना भारत के लिए एक दर्पण होगी, एक ऐसा दर्पण, जो हमें हमारा असली चेहरा दिखायेगा । शायद कुछ चेहरों पर धूल हो, कुछ पर घाव परंतु इन सबको देखकर ही तो हम उन्हें धो सकते हैं और भर सकते हैं । शायद इसीलिए, जाति जनगणना भारत के लिए ज़रूरी है , बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी आत्मा को अपने ही अस्तित्व को समझने के लिए एक गहरी सांस जरूरी होती है। जाति जनगणना: गिनती नहीं पहचान