फिलहाल भाजपा के पास क्रांतिकारी कदम उठाने का अनुकूल समय नहीं है। विरोधियों को अनावश्यक मौके ऐसे ही परोस देना फिर से भारी पड़ सकता है। भाजपा के पास क्रांतिकारी कदम उठाने का समय नहीं
डॉ.अरविन्द मिश्रा
व्यावहारिक जीवन में काठ की हांडी भले ही दुबारा न चढ़े, राजनीति में यह भी संभव हो सकता है जैसा कि प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर आभास मिलने लगा है। जो भी झूठे नैरेटिव फैलाये गये थे, फिर उसी को हवा दी जा रही है और ऐसा ‘सु’अवसर और कोई नहीं बल्कि रुलिंग पार्टी ही तश्तरी में परोस कर दे रही है जबकि दो राज्यों में चुनावों की घोषणा हो चुकी है। चाहे उत्तर प्रदेश में नजूल जमीन संबंधी विधेयक को विधानसभा में पारित कराने के बाद भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया हो या फिर केंद्र स्तर पर लगातार वक्फ बोर्ड विधेयक और लैटेरल इंट्री से ब्यूरोक्रैट चयन के कदम जोशो-खरोश के साथ बढ़ाये गये हों , फिर सहसा फिर कदम वापस भी खींच लिये गये। यह समझ में नहीं आता कि क्या इनसे जुड़ी संभावित स्थिति परिस्थितियों पर ठीक से मंथन नहीं किया गया था। आखिर भाजपा नीत सरकार अभी भी क्यों गंभीर नहीं है जबकि मामले को तूल देने वाले तत्वों का मनोबल निरंतर हाई बना हुआ है।
और जरा टाईंमिंग तो देखिये। महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा के चुनावों की घोषणा भी हो गयी और कई अन्य राज्यों में चुनाव उपचुनाव आसन्न हैं। ऐसे में आ बैल मुझे मार वाली रणनीति अपनाना? इसलिये ही लगता है कि भाजपा के थिंक टैंक में कोई मैलवेयर तगड़ा घुसपैठ कर चुका है। उसका मीडिया सेल तो पहले ही नकारा साबित हो चुका है। जब मुद्दों को लपक लेने को एक विपक्षी फौज तैयार खड़ी हो, फूंक फूंक कर कदम उठाने चाहिये मगर यहां तो एक बिल्कुल बेपरवाह कदमताल चल रही है।
लैटेरल इंट्री से नियुक्ति के मामले को राहुल गांधी ने लपक लिया। फिर वही काठ की हांडी चढ़ा दी गयी जिसमें संविधान बदल देने, आरक्षण खत्म कर देने, दलितों वंचकों के साथ अन्याय करने की पंचमेल खिचड़ी दुबारा पकने लग गयी। आखिर क्यों ऐसी अदूरदर्शिता की गई जिसका नाजायज फायदा तड़ से उठा लिया गया। हर नीतिगत नये निर्णयों को लेने का एक उपयुक्त समय होता है। यह तो बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय वाली स्थिति ही हो गयी। भले ही काठ की हांडी अभी चढ़ी ही थी कि उसे बुझाने का कदम उठा लिया गया मगर डैमेज तो हो चुका है,अब लाख बातें बनाई जांय – कांग्रेस को ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाय, मेसेज तो लक्ष्य समूहों तक पहुंचा ही दिया गया है।
जब केंद्र में अकेले बहुमत की सरकार नहीं है तो संभल कर ही चलना होगा । कब कौन सा पार्टनर बगावत कर दे, कोई गारंटी नहीं है। वैसे भी बिहारी राजनेताओं का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं रहा। और राजनीति में दूध के धुले कितने हैं ? एक पलटू राम के नाम से सुविख्यात हैं तो दूसरे ने भी अपना असली चेहरा दिखा दिया है। मतलब मोदी के हनुमान मान लिये गये बिहार के एक उदीयमान राजनीतिक चिराग जो बहुत झुक झुक कर मोदी का चरण स्पर्श करते दिखे थे, अब असली झलक दिखला दिये हैं।
तुलसी बाबा की एक अर्धाली याद आ गई – नवनि नीच की अति दुखदाई. यह भी वही हैं- येट टू ब्रूटस। राजनीति में यह कोई नयी बात नहीं। इनसे आगाह रहने का यह सबक है। इससे अच्छी तो टीडीपी निकली जो अप्रत्याशित रुप से गठबंधन धर्म निभा रही हैं। वक्त की पुकार यह है कि सारा ध्यान चुनावों को जीतने में लगाईये, फिलहाल भाजपा के पास क्रांतिकारी कदम उठाने का अनुकूल समय नहीं है । होशोहवास दुरुस्त रखने का समय है। विरोधियों को अनावश्यक मौके ऐसे ही परोस देना फिर से भारी पड़ सकता है। भाजपा के पास क्रांतिकारी कदम उठाने का समय नहीं