मानव अभिलाषा और जिजीवीषा का इतिहास रूचिपूर्ण है। ऋग्वेद इतिहास का प्रथम शब्द साक्ष्य है। प्राचीन भारतीय इतिहास का सत्य है और करोड़ों की श्रद्धा। वैदिक काव्य को ईश्वरीय भी कहा जाता है। श्रद्धालु वैदिक मंत्रों को भगवान की वाणी कहते हैं। अनेक विद्वान ऋग्वेद के प्रत्यक्ष भौतिकवाद की उपेक्षा करते हैं। कुछेक विद्वान वेदों को पंथिक आस्था के ग्रन्थ कहने में भी संकोच नहीं करते। श्रद्धा को अंधविश्वास बताते हैं। वे वेदों के सांसारिक यथार्थवाद और दार्शनिक यथार्थवाद की उपेक्षा करते हैं। ऋग्वेद में भरापूरा संसार है। संसार कर्मभूमि है। कर्म अपरिहार्य हैं। पुरूषार्थ से मिलती हैं उपलब्धियां
वैदिक पूर्वज सुंदर घर और आनंदमगन परिवार चाहते हैं। वे दूध, दही, अन्न की समृद्धि चाहते हैं। वे देवों से वैराग्य या मोक्ष नहीं मांगते। वे देवों को भी अपने घर बुलाने का निमंत्रण देते हैं। देवों पर प्रश्न भी उठाते हैं। संसार को आनंदित बनाने के लिए कर्म को जरूरी बताते हैं। यहां जांचा परखा वैज्ञानिक विवेक है। वैदिक काल में दर्शन का जन्म और विकास हुआ। सृष्टि रहस्यों की जिज्ञासा भी ऋग्वेद में है। विश्व को एक विराट इकाई देखने की अनुभूति ऋग्वेद में है। दर्शन और विज्ञान की सूक्ष्म विवेचना है। मुख्य बात है प्रत्यक्ष सांसारिक यथार्थ। यहां खेती, उद्योग, पशु पालन, घर परिवार और ऋद्धि सिद्धि समृद्धि की सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के प्रयत्न हैं।
कृषि प्राथमिक सूची में है। हल जोतने के लिए अश्विनि देवों की प्रशंसा है, “आप हल से भूमि जोतते हैं।” (8.22.66) देवताओं का हल जोतना ध्यान देने योग्य है। इस प्रतीक का अर्थ सुस्पष्ट है कि बड़े-बड़े भी हल जोतते थे। कृषि कर्म हेय नहीं था। एक जुएं की लत से पीड़ित जुआरी पश्चाताप करता है। ऋषि का परामर्श है कि खेती करो-कृषि कृषस्य। कृषि कर्म प्रतिष्ठा का कार्य है। ऋग्वेद में पांच बड़े जनसमूह हैं। उन्हें ‘पंचजनाः’ कहा गया है। जान पड़ता है कि पांचो जनसमूह खेती भी करते थे। उन्हें ‘पंच कृष्टयाः’ भी कहा गया है। कृषि अन्न देती है। अन्न उत्पादन का आधार है जल। सिंचाई। वर्षा न हो तो कृषि कर्म निष्फल। वैदिक स्तुतियों में वर्षा के उल्लेख हैं। वर्षा के अनेक देवता हैं। सर्वाधिक स्तुतियां इन्द्र की हैं। नदियों के प्रवाह का श्रेय भी इन्द्र को दिया गया है। इन्द्र ‘वृत्रहन्ता’ हैं। मैकडलन ने ‘वैदिक माइथोलोजी’ में वृत्र को ‘सूखे का दानव’-दि चीफ डेमन आफ ड्राट बताया है। इन्द्र ने वृत्र को मारा। इसका अर्थ सूखे के दानव को मारना या बांध अवरोधक हटाना दोनों ही हो सकता है। पूर्वजों के हृदय में संपूर्ण जलराशि के प्रति ममत्व भाव है। वे जल को ‘जलमाताएं’ कहते हैं। जलमाताओं को विश्व की जननी भी बताते हैं।
ऋग्वेद में प्रत्यक्ष सांसारिक कर्तव्य पालन पर ढेर सारे मंत्र हैं। कृषि कर्म समृद्धिसूचक है। पशुपालन सहज व्यवसाय है। पूर्वजों को गायें प्रिय हैं। पूर्वज उनकी सेवा करते हैं। उन पर हिंसा को अपराध बताते हैं। ऋषि का अनुरोध है “हे मित्रों! गायों पशुओं के पानी पीने के बहुत स्थान बनाओ।” (10.101) आर्य अश्व प्रिय भी हैं। घोड़े पालते हैं। छायादार पेड़ घोड़ों के विश्राम का सुन्दर स्थल है। पीपल का वृक्ष ऐसा ही है। ऋग्वेद में उसे घोड़े के नाम से जोड़कर ‘अश्वथ’ कहा गया है। वैदिक साहित्य में उद्योगों का भी उल्लेख है। कुल्हाड़ी का उल्लेख कई बार हुआ है। परशु, फरसा जैसा हथियार हो सकता है। वे परशु से वृक्ष काटते थे। (1.130.4) त्वष्टा कारीगरों में श्रेष्ठ भी बताये गए हैं। अग्नि और इन्द्र बड़े देव हैं। इन्द्र प्रकृति की शक्ति हैं। अग्नि प्रत्यक्ष हैं। वे हमारे भीतर हैं, सूर्य में है, बादलों में हैं। यत्र तत्र सर्वत्र हैं। जैसे इन्द्र का सम्बन्ध प्रायः जल से है। वर्षा से और कृषि से है वैसे ही अग्नि का सम्बंध ताप, ऊष्मा और गतिशीलता से है। उद्योगों के विकास से भी है।
लकड़ी के भीतर गुप्त ऊष्मा की उपस्थिति है। ऋषियों ने काष्ठ लकड़ियों को अग्नि की माता कहा है। एक ऋषि हैं-अंगिरा। उन्हें प्राचीन पितर कहा गया है। ऋग्वेद में अंगिरा को ही लकड़ी के भीतर अग्नि पहचानने व प्रकट करने का श्रेय दिया गया है। (5.11.6) अंगिरा की ही तरह इन्द्र को भी अग्नि पहचानने का श्रेय दिया गया है। अंगिरा ने लकड़ी के भीतर छुपी अग्नि की खोज की तो इन्द्र ने दो पत्थरों के टकराने से पैदा अग्नि का साक्षात्कार किया। अग्नि जैसे मूलतत्व की जानकारी संसारी है। इन्द्र और अग्नि की अनुकम्पा संसारी है।
संसार कर्म प्रधान है। उपलब्धियां पुरूषार्थ से मिलती हैं। अच्छे समाज और राज्य पुरूषार्थ और कर्म का अवसर व वातावरण बनाते हैं। ईश्वर या देवताओं को कर्मफल का दाता कहा जाता है। दैवी सिद्धांत में भी कर्म की महत्ता है। भाग्यवाद या नियतिवाद में धारणा है कि भाग्य में जो कुछ है, वही मिलेगा। न इससे ज्यादा और न इससे कम। लेकिन ऋग्वेद में कर्म व पुरूषार्थ की महत्ता है। ऋषि देवों को कर्मशील बताते हैं। देवता भी श्रम से मुक्त नहीं। बताते हैं कि अग्नि की खोज भी ‘थके पांव’ ही संपन्न हुई थी। देवों की स्तुतियों का आनंद एक तरफ और परिश्रम की महत्ता का आदर्श एक तरफ।
वैदिक समाज परिपूर्ण लोकतंत्री था। सामान्य विचार विमर्श में और दार्शनिक दृष्टिकोण में भी। ‘सभा और समिति’ जैसी संस्थाएं हैं। सभा में विचार विमर्श होते हैं। अच्छे सभासद की प्रशंसा भी होती है। (10.171.10) प्रार्थना है कि हमारा पुत्र सभा में यशस्वी हो। (1.91.20) सभा में कृषि और पशुपालन भी महत्वपूर्ण विषय रहे होंगे। सभा में भाग लेने वाले सभेय हैं। वे सभ्य हैं, सभेय होने के कारण। सभा जैसी संस्था का विकास किसी पंथिक अंधविश्वास के वातावरण में नहीं हो सकता। वैदिक समाज विचार विविधता से भरापूरा है।
सबके विचार अलग-अलग होते हैं। मन संसारी है। सबके मन भी अलग-अलग होते हैं। वैदिक भौतिकवाद में अग्नि अति विशिष्ट है। ऋग्वेद में सामूहिकता की रस प्यास है। स्तुति है “हे अग्नि! आप सबको जोड़ते हैं, हम सबको संयुक्त करें और प्रीति, प्यार, धन संपदा से भरें।” हम साथ-साथ चलें, सम्यक चलें, सम्यक बोले। साझा सामाजिक गतिशीलता की पुकार इतनी ही नहीं। इस निवेदन और संकल्प में इतिहास की भी प्रामाणिकता है। पूर्वज भी ऐसा ही करते रहे हैं-यथापूर्वे सम् जानाना उपासते। यह संकल्प साझा है। इस संकल्प में अग्निसाक्षी हैं।
वैदिक समाज पिछड़ा नहीं। सिर्फ कृषिजीवी नहीं। यहां धातु उद्योग के विकास के प्रमाण हैं। स्वर्ण वैदिक ऋषियों का आकर्षण था। मरूद्गणों की स्तुतियों में सोने की चर्चा है। वे स्वर्णजणित वस्त्र धारण करने वाले बताये गए हैं। स्वर्ण आभूषणों की भी चर्चा है। देवों के स्वर्ण आभूषण वस्तुतः पूर्वजों की अपनी इच्छा के ही प्रतीक हैं। आधुनिक काल में भी अनेक मंदिरों में सोने के भंडार हैं। मनुष्य की अपनी स्वर्णप्रियता ही देव मंदिरों को सोने से पाटती है। देवता स्वर्ण भेंट से खुश होंगे या नहीं? खुश होकर वे हमकों उपकृत करेंगे या नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न हैं। लेकिन वैदिक समाज कर्म विश्वासी है। ऋग्वेद की निर्णायक घोषणा है कि परिश्रम न करने वाले व्यक्ति की सहायता देवता भी नहीं करते। संसार कर्म क्षेत्र है, परिश्रम और पुरूषार्थ ही कामनाओं की प्राप्ति के उपकरण हैं। साथ-साथ चलने और आनंदित रहने की स्तुतियां हैं। पुरूषार्थ से मिलती हैं उपलब्धियां