
नारी मूरत प्यार की, ममता का भंडार। लुटती नारी द्वार पर…
सेवा को सुख मानती, बांटे ख़ूब दुलार॥
अपना सब कुछ त्याग के, हरती नारी पीर।
फिर क्यों आँखों में भरा, आज उसी के नीर॥
रोज कहीं पर लुट रही, अस्मत है बेहाल।
खूब मना नारी दिवस, गुजर गया फिर साल॥
थानों में जब रेप हो, लूट रहे दरबार।
तब ‘सौरभ’ नारी दिवस, लगता है बेकार॥
सिसक रही हैं बेटियाँ, ले परदे की ओट।
गलती करे समाज है, मढ़ते उस पर खोट॥
नहीं सुरक्षित आबरू, क्या दिन हो क्या रात।
काँप रहें हम देखकर, कैसे ये हालात॥
महक उठे कैसे भला, बेला आधी रात।
मसल रहे हैवान जो, पल-पल उसका गात॥
जरा सोच कर देखिये, किसकी है ये देन।
अपने ही घर में दिखे, क्यों नारी बेचैन॥
रोज कराहें घण्टियाँ, बिलखे रोज़ अजान।
लुटती नारी द्वार पर, चुप बैठे भगवान॥
नारी तन को बेचती, ये है कैसा दौर।
मूरत अब वह प्यार की, दिखती है कुछ और॥
नई सुबह से कामना, करिये बारम्बार।
हर बच्ची बेख़ौफ़ हो, पाये नारी प्यार॥ लुटती नारी द्वार पर…
-डॉ.सत्यवान ‘सौरभ’