
डॉ.प्रियंका सौरभ
तोड़ रहीं हैं बेड़ियां सब, मुक्त गगन में उड़ चलीं।
वर्षों की जंजीरों से अब, आशा की धुन गुनगुन चलीं।
दहलीज़ों की धूल झाड़कर, सपनों के पथ चुन चलीं।
भीगी आंखों से नहीं अब, ज्योति-सी जगमग बन चलीं।
मौन नहीं, स्वर बनकर अब, अर्थ नया गढ़ने लगीं।
अंधियारे को चीर उजाले, दीप-सी जलने लगीं।
अस्मिता की ओस सजा कर, फूल-सी खिलने लगीं।
जिन पंखों को बाँधा जग ने, वे नभ में ढलने लगीं।
अब हर पीड़ा गीत बनी है, हर घाव कहानी कहती।
जीवन की इस कठोर भूमि पर, आशा की क्यारी रहती।
गौरव की वंदनवार बनीं, बढ़ रहीं हैं लड़कियां।
























