

भारत उत्सवधर्मा राष्ट्र है। यहां प्रतिदिन उत्सव हैं। प्रतिदिन उल्लास और हर समय आनंद की वर्षा। अभी बहुत समय नहीं हुआ, नाग पूजा का पर्व नागपंचमी बड़े उल्लास के साथ मनाया गया। हनुमान जयंती के अवसर पर श्रद्धालु हिंदू घर से निकल पड़ते हैं। सामाजिक आयोजन में हिस्सा लेते हैं। सावन में शिवार्चन और रुद्राभिषेक चलते हैं। इसके पहले रामनवमी के उत्सवों की श्रृंखला लंबे समय तक चली है।भारत के सभी उत्सवों में कोई न कोई संदेश अवश्य रहता है। पूर्वजों ने पर्व और उत्सवों की रचना पूरे मनोयोग से की है। लोकमंगल को पर्व का ध्येय बनाना था। पिछले महीने वायुमंडल तप रहा था। अब रिमझिम वर्षा हो रही है। घर से निकले वर्षा होने लगी। सब कुछ भीग गया। तन भीगा, मन भीगा। वन उपवन भी वर्षा के साथ झूम रहे हैं। भारत संस्कृति और परंपरा से सजा उत्सवों का देश
भारत प्राचीन देश है। विशाल भूखण्ड है। क्षेत्रीय विविधताएं हैं। अनेक बोलियां हैं। अनेक भाषाएं हैं। इसलिए उत्सव और पर्व मनाने का ध्येय एक होने के बावजूद आयोजनों में विविधता है। आनंद के इस अतिरेक को लगातार बांटने और राष्ट्रजीवन की पंक्ति में गरीब वर्ग को भी सामूहिकता के रस रंग में झूमते हुए नृत्य करने का अवसर मिलना चाहिए। हमारा प्राचीन साहित्य वर्षा, सावन और उत्सवों के उल्लेख से भरा पूरा है। सिनेमा में भी सावन और वर्षा के गीतों की बहार है। वर्षा में आनंद मगन होने के लिए किसी खास तैयारी की आवश्यकता नहीं होती। यहां कोई आरक्षण नहीं है। वर्षा गरीब अमीर में भेद नहीं करती है। सावन किसान के लिए भी नृत्य मगन होने का अवसर है। शहर से दूर ग्रामीण अंचल में भी सावन आता है और पूर्वजों द्वारा गढ़े गए उत्सवों के बीच हम सबको पुलकित करता है। ऐसे ही तमाम उत्सवों में से एक उत्सव है रक्षाबंधन।
भारत रत्न पी. वी. काणे ने ’धर्मशास्त्र का इतिहास’ खंड चार (पृष्ठ 53) में लिखा है, ”श्रावण की पूर्णिमा को अपराह्न में एक कृत्य होता है, जिसे रक्षाबंधन कहते हैं। श्रावण की पूर्णिमा को सूर्योदय के पूर्व उठकर देवों, ऋषियों और पितरों का तर्पण करने के उपरांत अक्षत, तिल, धागों से युक्त रक्षा बनाकर धारण करना चाहिए।” रक्षाबंधन प्राचीन पर्व है। क्षेत्रीयता के प्रभाव में पर्व के मनाए जाने का तरीके अलग-अलग हैं। उत्तर भारत के बड़े हिस्सों में बहनें अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधती हैं। मिठाई खिलाती हैं। भाई-बहन के मध्य प्राकृतिक आत्मीयता होती है। भाई इस अवसर पर बहन को हमेशा रक्षक बने रहने का आश्वासन देता है। पश्चिमी भारत विशेषतया कोंकण और मालाबार में सभी वर्गों के लोग समुद्र तट पर जाते हैं। समुद्र को पुष्प और नारियल अर्पित करते हैं।

पी. वी. काणे ने बताया है कि, ”सावन की पूर्णिमा को समुद्र में तूफान कम आते हैं, इसीलिए समुद्र देवता को नारियल चढ़ाया जाता है, कि वे व्यापारी जहाज को सुविधा दे सकें।” साधारणतया उत्सवों में राजा नहीं जाते थे, लेकिन रक्षाबंधन के दिन राजा एक भवन में बैठता था और पुरोहित मंत्र पढ़ते थे। पी. वी. काणे ने बताया है, ”राजा के लिए महल में एक वर्गाकार भूमि स्थल पर जल पात्र रखा जाना चाहिए। उसे मंत्रियों के साथ आसन ग्रहण करना चाहिए। लगातार गीतों और आशीर्वचनों का तांता लगा रहना चाहिए। विद्वानों और ज्ञानियों को सम्मान देने के बाद राजपुरोहित को बुलाना चाहिए और यह मंत्र पढ़ते हुए राजा के हाथों में रक्षा सूत्र बांधना चाहिए-येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलरू। तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल-अर्थात मैं आपको यह रक्षा सूत्र बांधता हूं, जिसमें दानवों के राजा बलि बांधे गए थे। हे रक्षासूत्र हमारी रक्षा के लिए यहां से न हटो।” रक्षासूत्र के लिए यह मंत्र सर्वत्र पढ़ा जाता है।
पूर्वजों ने समाज के चिंतन में उत्सवों का रस घोल दिया है। रक्षासूत्र केवल राजा के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं था। साधारण जन भी अपने किसी परिजन से या गांव के किसी वरिष्ठ जन से रक्षासूत्र बंधवाते थे। भविष्योत्तर पुराण में लिखा है कि, ”इंद्राणी ने इंद्र के दाहिने हाथ में रक्षासूत्र बांधा था। इससे इंद्र की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने असुरों को पराजित कर दिया। रक्षासूत्र आदर्श परंपरा है। रक्षा प्रत्येक जीव की आकांक्षा है। कुछ जीवधारी रक्षा के लिए ही समूह बनाकर चलते हैं। कुछ जीवधारी अपने ऊपर हमला करने वाले से अकेले ही लड़ते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। नियम तोड़ने वालों के विरुद्ध और नियम मानने की पक्षधरता वाले समाज प्रगतिशील होते हैं।
आत्मरक्षा मनुष्य सहित सभी प्राणियों की जिजीविषा है। राष्ट्र रक्षा के लिए अर्पित रहना उत्कृष्ट जीवन मूल्य है। भारत में यह परंपरा और राष्ट्र रक्षा का विचार ऋग्वेद के रचनाकाल के समय ही प्रकट हो गया था। इसी विचार परंपरा में रक्षासूत्र की बात चली होगी। रक्षासूत्र कोई कवच नहीं है। यह साधारण धागा नहीं है। हमारे देश में सभी मांगलिक अवसरों पर रक्षासूत्र की परंपरा है। मंदिरों में पुरोहित रक्षासूत्र बांधते हैं। विवाह आदि अवसरों पर भी रक्षासूत्र का चलन है। प्रगाढ़ भावना से बांधे गए रक्षासूत्र हमारे अंतःकरण में सकारात्मक रासायनिक परिवर्तन लाते हैं।
राष्ट्र की रक्षा राजा का प्रथम कर्तव्य है। पुरोहित रक्षासूत्र बांधकर उसे प्राथमिक कर्तव्य का स्मरण कराता था। यहां पुरोहित का अर्थ सामान्य प्रवचनकर्ता या कथावाचक नहीं है। पुरोहित का अर्थ है ’पुर का हितैषी’। पुरोहितों की परंपरा के विस्तार से राष्ट्रजीवन को लाभ हुआ। फिर यही परंपरा बहनों द्वारा भाई को रक्षासूत्र बांधने के रूप में भी व्यापक हो गई। रक्षा सूत्र का मूल आधार प्रेम और कर्तव्य है। बहनों द्वारा भाइयों को रक्षासूत्र बांधना ठीक है। शिष्य द्वारा आचार्य को और छात्र द्वारा अध्यापक को रक्षासूत्र बांधने का क्रम चलना चाहिए। कितना सुंदर हो कि शिष्य रक्षासूत्र लेकर आगे बढ़े, आचार्य के श्रीचरणों में निवेदन करे, ”मैं आपको यह रक्षासूत्र समर्पित करता हूं। आपके हाथों को सुसज्जित करता हूं। यह रक्षासूत्र मेरी भी रक्षा करे और आपकी अभिरक्षा में हम ज्ञान प्राप्त करें।
आधुनिक भारत में ज्ञान विज्ञान और तकनीकी का अद्भुत प्रयोग चल रहा है। राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्नति हुई है। समूचे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। लोगों की आय बढ़ी है। व्यय करने की क्षमता बढ़ी है। कारें बढ़ी हैं। गगनचुंभी भवन बढ़े हैं। बाजार में रक्षासूत्रों की बहार है। तरह तरह के रंग हैं। सोने चांदी के भी रक्षासूत्र हैं। परंपरा बाजार की चेरी बनाई जा रही है। हमारी प्रतिष्ठा बाजार तय कर रहा है। हमारे जीवन में कोई कमी जरूर है। कोई छिद्र है, जिससे उल्लास रस रिसता है और हम तमाम संपन्नता के बावजूद रीते रीते बने रहते हैं। आनंदरस का घट उफनाता नहीं। इस रिक्तता की पूर्ति उत्सव कर सकते हैं। रक्षाबंधन का अवसर यही प्रतीति दे सके, तो जन गण मन स्थायी रूप से आनंदित रहेगा। शुभकामना बधाई। भारत संस्कृति और परंपरा से सजा उत्सवों का देश