आस्था का प्रतीक है सुलतानगंज से देवघर की कांवरयात्रा

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आस्था का प्रतीक है सुलतानगंज से देवघर की कांवरयात्रा
आस्था का प्रतीक है सुलतानगंज से देवघर की कांवरयात्रा
कुमार कृष्णन 
कुमार कृष्णन 

श्रावण के महीने को भगवान शिव का प्रिय मास माना जाता है। यही कारण है कि इस महीने में महादेव की पूजा, आराधना का विशेष महत्व होता है किंतु श्रावण के महीने में बिहार और झारखंड राज्यों में भगवान शिव की पूजा कुछ अलग ही अंदाज में की जाती है। श्रावण मास के प्रारंभ होते ही प्रत्येक वर्ष बिहार और झारखंड का पूरा क्षेत्र केसरिया वस्त्रधारी कांवरियां शिव-भक्तों की आवाजाही व ‘बोल बम’ के नारों से गुंजायमान हो उठता है। कांवरिया बिहार के सुल्तानगंज से जल लेकर 110 किलोमीटर की लंबी पैदल यात्रा तय करते हैं। सुल्तानगंज से जल लेकर नाचते-गाते बाबा बैद्यनाथ के धाम की ओर प्रस्थान करते हैं।  आस्था का प्रतीक है सुलतानगंज से देवघर की कांवरयात्रा

पूरे श्रावण मास में बिहार-झारखंड सहित बंगाल,असम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश के अन्य भागों के अलावे पड़ोसी देश नेपाल आदि से भी प्रतिदिन हजारों की संख्या में कांवरियां शिव-भक्त बिहार के सुल्तानगंज (भागलपुर जिला) नामक स्थान में आते हैं और यहां से उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कांवरों में लेकर नियम-निष्ठापूर्वक खुले पांव पैदल चलकर इसे झारखंड के देवघर स्थित वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर अर्पित कर अपने कष्ट-व्याधियों को दूर करने तथा मनोवांछित फलों की प्राप्ति की कामना करते हैं।

वैद्यनाथधाम स्थित देवघर के ऐतिहासिक विवरण का उल्लेख शिवपुराण में है।यहां के संपूर्ण जीवन के केन्द्र विन्दु बाबा वैद्यनाथ के द्वादश ज्योतिर्लिगों में एक है।शिवपुराण में  वर्णित द्वादश ज्योर्तिलिंगों में इसका ‘वैद्यनाथ चिताभूमि’ के रूप में वर्णन है। यह मात्र संयोग नहीं है कि देवघर भी शिव की चिताभूमि के रूप में जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां माता सती का हृदय गिरा था। शिव पुराण के अनुसार यहीं पर माता के हृदय का दाह-संस्कार किया गया था। और तब बाबा बैद्यनाथ माता सती के वियोग में उसी राख में लोट-लोटकर पूरे अंग को भस्म विभूषित कर लिए थे। इसलिए भस्म का यहां विशेष महत्व है। और आने वाले श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में भस्म भी दिया जाता है। मान्यता यह भी है कि इस भस्म को अपने ललाट पर लगाकर किसी भी कार्य के लिए निकले वह कार्य पूर्ण होता है। मनोवांछित फलों की प्राप्ति भस्म को अपने ललाट पर लगाने से होती है। देवघर के तीर्थ पुरोहित के श्रीनाथ महाराज के मुताबिक सावन और भादो में तीर्थ पुरोहित अपने यजमान को हवन से प्राप्त भस्म देते हैं। भगवान शिव का यह पीठ उर्जा का उदगमस्थल है, शक्ति् का केन्द्र है। देवर्षि नारद ने हनुमान से बैद्यनाथधाम की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि यही एक मात्र स्थान है जहां शिव बिना पात्र — कुपात्र, पापी पुण्यात्मा का विचार किए सबकी कामना पूर्ण करते हैं।

बाबा वैद्यनाथ के प्रादुर्भाव की कथा भी कुछ कौतुहलपूर्ण और अनोखी नहीं है। इस लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार असुरराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा माँगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा। अन्ततोगत्वा वही हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को एक व्यक्ति को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। इधर उन व्यक्ति ने ज्योतिर्लिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया। फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये। जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है। 

लंकापति रावण के द्वारा स्थापित होने के कारण ये ‘रावणेश्वर वैद्यनाथ’ भी कहलाते हैं। शुद्ध हृदय से पूजा करने पर ये बड़ी सहजता से प्रसन्न हो उठते हैं और भक्तों  की मनोकामनाएं पूरी करते हैं।इस कारण मनोकामना लिंग के नाम से भी इनकी प्रसिद्धि है। बाबा वैद्यनाथ की पूजा अत्यंत सरल है। निर्मल हृदय फूल और बेलपत्र के साथ शिवलिंग पर उत्तरवाहिनी गंगा का जल अर्पित करो और बाबा प्रसन्न। तभी तो श्रावण मास के आते ही भक्तगण देश के कोने-कोने से कातर भाव से यहां शिवपूजन हेतु खिंचे चले आते हैं। देवघर तो आधुनिक नाम है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘देवताओं का घर’। पर संस्कृत ग्रंथों में हृदपीठ, रावण वन, हरितिकी वन या वैद्यनाथ मिलता है। अघोर साधना का महत्वपूर्ण स्थान होने के कारण देवघर का तांत्रिक साधना के लिए कामाख्या के बाद स्थान आता है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव को जल अत्यंत प्रिय है। फिर सुल्तानगंज में आकर गंगा उत्तरवाहिनी हो जाती जो कि बहुत ही पवित्र मानी जाती है। यही कारण है कि अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने हेतु प्रति वर्ष बड़ी संख्या में कांवरियां शिव-भक्त सुल्तानगंज से जल लेकर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करने हेतु यहां आते हैं। सुल्तानगंज से जल उठाकर देवघर में अर्पित करने की परम्परा काफी पुरानी है। ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम भगवान श्री रामचन्द्र ने सुल्तानगंज से जल लेकर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर अर्पित किया था और तब से ही इस परम्परा की शुरुआत हो गई जो आजतक जारी है।

सावन का महीना शुरू होते ही देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिदिन हजारों शिव-भक्तों की आवाजाही सुल्तानगंज में शुरू हो जाती है। सुल्तानगंज से लेकर देवघर तक के 110 किमी के क्षेत्र में बिहार राज्य के भागलपुर, मुंगेर व बांका जिलों के तथा झारखंड राज्य के देवघर व दुमका जिलों के क्षेत्र पड़ते हैं। पूरे श्रावण मास में बिहार-झारखंड की राज्य सरकारें और संबंधित जिला प्रशासन दिन-रात शिव भक्तों की सुविधा एवं सुरक्षा, आवासन, पेयजल, चिकित्सा, परिवहन आदि की व्यवस्था में लगी रहती हैं। पूरे 110 किमी लम्बे कांवरियां मार्ग पर भक्ति की डोर में बंधे श्रद्धालुओं की अटूट श्रृंखला निरंतर चलायमान रहती जो लोक-आस्था के महामेले का स्वरूप धारण कर लेता है जो अपने आप में अनूठा है।

सुल्तानगंज आकर भक्तगण सर्वप्रथम यहां की उत्तरवाहिनी गंगा में स्नान करने के बाद अपने कांवरों की साज-सज्जा करते हैं। फिर कांवर की पूजा कर अजगैबीनाथ महादेव के दर्शन करते हैं। तत्पश्चात अपने कंधे पर कांवर लेकर ‘बोल बम’ और हर-हर महादेव का उद्घोष करते हुए देवघर की ओर प्रस्थान करते हैं। शिवभक्ति से ओतप्रोत इन कांवरियां श्रद्धालुओं में गजब का उत्साह देखने को मिलता है।

 सुल्तानगंज से चलने के बाद 110 किमी के मार्ग में बिहार के भागलपुर, मुंगेर और बांका जिलों के असरगंज, कुमरसार, जिलेबिया, अबरखा, इनारावरण और गोड़ियारी नामक स्थान पड़ते हैं। इसके बाद वे पहाड़ी गोड़ियारी नदी पार कर झारखंड की सीमा  में प्रवेश करते हैं जहां से देवघर की दूरी 17 किमी है। देवघर स्थित वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग पर गंगा के पवित्र जल के अर्पण के बाद भक्तों की कांवर यात्रा पूरी होती है। सामान्यतः भक्तगण तीन से चार दिनों में देवघर की पैदल-यात्रा तय करते हैं। ऐसे यात्री रास्ते में विश्राम करते हुए चलते हैं पर कुछ लोग अनवरत दौड़ लगाते हुए चौबीस घंटे में यह दूरी तय करते हैं जो ‘डाक बम’ कहलाते हैं।

प्रत्येक वर्ष बिहार और झारखंड के क्षेत्र में लगनेवाले यह महामेला सिर्फ भक्ति व श्रद्धा का धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं वरन् यह हमें शहरों के शोरगुल तथा प्रदूषण से दूर कुछ पल प्रकृति के साहचर्य में गूजारने का मौका भी देता है, जो हममें एक नयी ताजगी और ऊर्जा भर देता है। सुल्तानगंज की पवित्र उत्तरवाहिनी गंगा से प्रारंभ होनेवाली यह यात्रा देवघर की शिव गंगा में जाकर पूर्ण होती है जिसके बीच मार्ग में बाग-बगीचे, हरे-भरे खेत व मैदान, पर्वत-पहाड़, नदी-नाले, पशु-पक्षी सभी मिलते हैं। बीच-बीच में सावन की रिमझिम फूहारें। श्रावणी मेले की कांवर यात्रा में जहां एक ओर मन को एक अपूर्व भक्तिमिश्रित शांति मिलती है, वहीं तन में एक नयी ऊर्जा का संचार हो जाता है जो इसमें शरीक होकर ही महसूस किया जा सकता है। आस्था का प्रतीक है सुलतानगंज से देवघर की कांवरयात्रा