जियो,जीने दो और जीवन दो

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जियो,जीने दो और जीवन दो
जियो,जीने दो और जीवन दो

डॉ.वेदप्रकाश

    जियो,जीने दो और जीवन दो। ये तीनों शब्द अथवा शब्द युग्म भिन्न-भिन्न भाव रखते हैं। पहला स्व केंद्रित है तो दूसरा दूसरे के जीवन में दखल की मनाही करता है वहीं तीसरा दूसरों के जीवन में सकारात्मक दखल करते हुए उनके जीवन को दुख एवं संकटों से मुक्त करते हुए सुखमय अथवा सुगम बनाने का विचार है। सृष्टि का प्रत्येक जीव ईश्वर की कृति है। उसी में प्रकृति-पर्यावरण की संरचना के हिसाब से कुछ जीव पूरी तरह से मांसाहारी हैं। वे अपने आहार के लिए एक दूसरे पर ही निर्भर हैं, लेकिन मनुष्य एकमात्र ऐसा जीव है जो पूरी तरह से शाकाहार के जरिए भी स्वस्थ और दीर्घायु जीवन प्राप्त कर सकता है। कुछ स्थानों पर शाकाहार की अनुपलब्धता अथवा जलवायु की भिन्नता आदि कारणों से मांसाहार पर मनुष्य की निर्भरता हो सकती है,लेकिन शाकाहार की खूब उपलब्धता के उपरांत भी यदि मनुष्य मांसाहार पर निर्भर रहे तो यह सर्वथा अनुचित है। मनुष्य से इतर जीवों में समझने की शक्ति भिन्न है। यही कारण है कि मनुष्य को ईश्वर की सर्वोत्तम कृति माना गया है। इसलिए उसका यह दायित्व है कि वह दूसरे मनुष्यों सहित सभी जीवधारियों के अस्तित्व और उनके जीवन के अधिकार हेतु चिंतन करे। जियो,जीने दो और जीवन दो

  भारतीय ज्ञान परंपरा आत्मवत् सर्व भूतेषु अर्थात् सभी प्राणियों को समान मानती है। संतों ने कहा- ईश्वर के सब अंश हैं, कीरी कुंजर दोए। इससे भी स्पष्ट है कि सृष्टि का छोटा या बड़ा सभी जीव समान हैं, उनमें ईश्वर का वास है। विश्व ज्ञान के प्रथम ग्रंथ वेदों में भी लिखा है- सर्वे भवंतु सुखिन: अर्थात् सभी सुखी हो। देवभूमि ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन निरंतर राष्ट्रीय और वैचारिक चिंतन का केंद्र बनता जा रहा है। हाल ही में मां गंगा आरती के समय अपने उद्बोधन में परमार्थ निकेतन ऋषिकेश के अध्यक्ष, स्वामी चिदानंद सरस्वती जी ने कहा कि- जियो और जीने दो इतना ही पर्याप्त नहीं है। आज यह भी आवश्यक है कि हम स्वयं तो जिए ही, दूसरों को जीवन भी दें। उन्होंने कहा कि कभी-कभी हम अपने खानपान अथवा अच्छी सेहत आदि के लिए दूसरों का जीवन ले लेते हैं, क्या यह ठीक है? क्या हम यह संकल्प कर सकते हैं कि मैं अपने मजे के लिए किसी का जीवन नहीं लूंगा? पिछले कई दशकों से परमार्थ निकेतन में देश-विदेश के ऐसे लोग जुट रहे हैं जो स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छता, प्रकृति-पर्यावरण की रक्षा आदि के माध्यम से मानवता के कल्याण के लिए काम कर रहे हैं।

स्वामी जी की चिंता बहुत सार्थक एवं महत्वपूर्ण है। विचार करने पर हम पाते हैं कि भारतीय चिंतन सेवा परमो धर्म के लिए भिन्न-भिन्न रूपों में उपदेश एवं प्रेरणा देता रहा है। आज अनेक व्यक्ति एवं संस्थाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण काम कर रही है। गांधीजी प्राय: नरसी मेहता के प्रसिद्ध पद- वैष्णव जन तो तेने कहिए, जो पीर पराई जाने रे को भजन के रूप में गाते थे, क्या आज हमें दूसरों को जीने दो और जीवन देने के विचार को संकल्प नहीं बनना चाहिए? क्या मनुष्य की अधिकाधिक प्राप्त करने की इच्छा दूसरों के जीवन के लिए खतरा नहीं बन रही है? प्रकृति और पर्यावरणीय संसाधनों का तेजी से दोहन किया जा रहा है। अधिकाधिक उत्पादन की होड़ में विकसित देश अधिकाधिक कार्बन उत्सर्जन के साथ-साथ पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। क्या प्रकृति और पर्यावरणीय संरचनाओं का यह अंधाधुंध दोहन और उसे कुरूप करना जीने दो और जीवन दो के विचार के विपरीत नहीं है? आज अनेक नदियां लुप्त हो चुकी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक जीव लुप्त होते जा रहे हैं, क्या यह चिंता का विषय नहीं है?

मांसाहार की बढ़ती प्रवृत्ति की पूर्ति हेतु पशुपालन निरंतर बढ़ रहा है। आंकड़ों के अनुसार अकेले उतरी अमेरिका में यदि पशुपालन के लिए काम में लाया जाने वाला आहार 10 प्रतिशत कम कर दिया जाए तो विश्व के अनेक देशों में भूखे लोगों की भूख मिट सकती है। इसी प्रकार अकेले अमेरिका में प्रतिवर्ष केवल मुर्गी पालन हेतु 96.5 बिलियन गैलन पानी की खपत होती है। यह पानी मनुष्य की बड़ी जल आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। जब हम जियो, जीने दो और जीवन दो के सूत्र पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि इसका मूल करुणा है। आज विश्व के कई देश युद्धरत हैं। आतंकवाद, नस्लभेद, विस्तार की इच्छा एवं वर्चस्व की भावना मनुष्य को मनुष्य के खून का प्यासा बना रही है। आज हमें गंभीरता से यह विचार करने की आवश्यकता है कि यदि हमें जीने का अधिकार है तो क्या प्रत्येक जीव को जीने का अधिकार नहीं है? आज  सांप्रदायिक उन्माद भी तेजी से बढ़ रहा है। जिसका कारण करुणा का अभाव कहा जा सकता है। क्योंकि बिना करुणा के धर्म हिंसा ही करवाता है और करुणा से समन्वित धर्म परहित की चिंता और मानवता के कल्याण का मार्ग खोलता है।आइए हम स्वयं भी जिए, दूसरों को जीने दें और प्रत्येक जीव को जीवन देने की ओर अग्रसर हों। ध्यान रहे मनुष्य में ही अपरिमित ऊर्जा,अतुल्य सामर्थ्य,ओज और तेज आदि पारमार्थिक विभूतियां विद्यमान हैं। जीवन देने का विचार मनुष्य के भीतर की दिव्यता के जागरण का विचार है। जियो,जीने दो और जीवन दो