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22 फरवरी 2025 को कहलगांव में गंगा मुक्ति आंदोलन की वर्षगांठ मनाई जा रही है। सन 1982 में गंगा मुक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी।आज से 43 साल पहले शुरू हुए इस आंदोलन की निरंतरता आज भी कायम है। गंगा की जमींदारी के खिलाफ शुरू हुआ यह आन्दोलन 1987-88 आते आते बिहार के सम्पूर्ण गंगा क्षेत्र में फैल गया था और इसमें लाखों लोग शामिल हो गए थे। जब कुर्सेला से पटना तक(लगभग 500 किलोमीटर)नौका जुलूस निकाला गया तो गंगा तट के गांव गांव में स्त्री पुरुषों की भागीदारी और उनका उत्साह देखने लायक था। इस नौका जुलूस के बाद जब बिहार के सम्पूर्ण गंगा क्षेत्र में जलकर(मछली पकड़ने के एवज में दिया जानेवाला टैक्स) बंद कर दिया गया तो पानी के ठेकेदारों ने अनेक प्रकार के जुल्म ढाए थे लेकिन अन्ततः 1990 के जनवरी में सरकार को बाध्य होकर गंगा समेत बिहार की सभी नदियों की बहती धारा में परम्परागत मछुओं के लिए मछली पकड़ना करमुक्त कर दिया था। गंगा मुक्ति आंदोलन के 42साल और चुनौतियां
1993 के पहले गंगा में जमींदारों की पानीदार थे, जो गंगा के मालिक बने हुए थे। सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाशय घोष की थी। बरारी से लेकी पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमशः मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी। हैरत की बात तो यह थी कि जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है।सन 1908 के आसपास दियारे के जमीन का काफी उलट-फेर हुआ। जमींदारों के जमीन पर आये लोगों द्वारा कब्जा किया गया।
किसानों में आक्रोश फैला। संघर्ष की चेतना पूरे इलाके में फैली; जलकर जमींदार इस जागृति से भयभीत हो गये और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर देवी -देवताओं के नाम कर दिया।जलकर जमींदारी खत्म करने के लिए 1961 में एक कोशिश की गयी; भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इस जमींदारी को खत्म कर मछली बंदोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी। मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे ऑडर मिल गया।1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फैसला सुनाया तथा तर्क दिया कि जलकर की जमींदारी यानी फिशरीज राइट मुगल बादशाह ने दी थी और जल-कर के अधिकार का प्रश्न जमीन के प्रश्न से अलग है क्योंकि जमीन की तरह यह अचल संपत्ति नहीं है। इस कारण यह बिहार भूमि सुधार कानून के अंतर्गत नहीं आता है। बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया जबकि बड़े जमींदार मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को छोड़ दिया गया।
गंगा मुक्ति आंदोलन के अनिल प्रकाश के अनुसार आरंभ में जमींदारों ने इसे मजाक समझा और आंदोलन को कुचलने के लिए कई हथकंडे अपनाये। लेकिन आंदोलनकारी अपने संकल्प ‘‘हमला चाहे कैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा’’ पर अडिग रहे और निरंतर आगे रहे। निरंतर संघर्ष का नतीजा यह हुआ 1988 में बिहार विधानसभा में मछुआरों के हितों की रक्षा के लिए जल संसाधनों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का एक प्रस्ताव लाया गया। कहलगांव के पत्रकार प्रदीप विद्रोही के अनुसार, मछुआ समाज की इस आंदोलन में अग्रणी भूमिका रही है और आज भी बनी हुई है।इसके साथ ही किसानों, मजदूरों, झुग्गीवासीयों, बुनकरों, बुद्धिजीवियों,कलाकारों,कलाकारों,कवियों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण भागीदारी ने इस आंदोलन को सशक्त और व्यापक बनाया था।
आंदोलन से जुड़े उदय बताते हैं कि ‘जातिप्रथा के जहर के खिलाफ चेतना जाग्रत करना हमारे आंदोलन का अभिन्न हिस्सा रहा है।1983 में आयोजित एकलव्य मेला से इस आंदोलन शुरुआत की गई थी। 1984 में इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के खिलाफ जब सिख विरोधी उत्पात शुरू हुआ था तो साथियों ने आगे बढ़कर उसे रोका था।भागलपुर और पटना में साम्प्रदायिक दंगे और तनाव हुए थे तो गंगा मुक्ति आंदोलन के लोगों ने जान पर खेलकर उसे रोकने की कोशिश की थी।यह सब गंगा मुक्ति आंदोलन की व्यापक वैचारिक दृष्टि के कारण ही सम्भव था।’
अनिल प्रकाश के अनुसार -जब गंगामुक्ति आंदोलन ने फरक्का बराज को विनाशकारी बताया था तो बहुतों ने खिल्ली उड़ाई थी।जब कहलगांव सुपर थर्मल पावर स्टेशन का गंगा मुक्ति आंदोलन ने विरोध किया था तो हमे आंदोलन विकास विरोधी बताया गया था।जब हमसब ने रासायनिक खादों और जहरीले रासायनिक कीटनाशकों पर रोक लगाने की मांग की थी तब भी हमारा मजाक उड़ाया गया था।सुन्दर लाल बहुगुणा और उनके साथी टिहरी बांध के निर्माण का विरोध कर रहे थे तो गंगा मुक्ति आंदोलन भी उनके साथ था।
आज साबित हो रहा है कि हम सही रास्ते पर थे और दूसरों से आगे देख रहे थे।आज नदियां और ज्यादा जहरीली हो गई हैं,हमारे खेत जहरीले हो रहे हैं,उसमें उगनेवाले अनाज,फल और सब्जियां जहरीली हो रही हैं,हमारी मछलियां भी जहरीली होती जा रही हैं।यहां तक कि सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा भी शहरों में नहीं मिलती। आंदोलन 1980 के दशक की शुरुआत से ही चीख चीखकर कह रहे थे।मनुष्य और प्रकृति के मधुर सम्बन्धों की बुनियाद पर समता मूलक लोकतांत्रिक समाज बनना हमारा लक्ष्य है।हमसब इस दिशा में निरन्तर प्रयत्नशील रहे हैं और आगे भी रहेंगे।आंदोलन के वैज्ञानिक सलाहकार डॉक्टर के एस बिलग्रामी ने ठीक ही कहा था कि इकोलॉजी और इकॉनोमिक्स के बीच संतुलन बिठाकर चलना पड़ेगा। फरक्का बराज के कारण हमारी मछलियां समाप्त प्राय: हो गईं,लाखों लोगों की रोजी रोटी छीन गई और सामान्य जन के लिए सुलभ पौष्टिक भोजन(प्रोटीन,विटामिन)की कमी हो गई।
मछुआरों का कहना है कि पहले गंगा में तमाम किस्म की मछलियां मिलती थीं, जैसे हिलसा, झींगा, पंगास, सौकची, कुर्सा, कठिया, गुल्ला, महसीर, कतला, रेहू, सिंघा, जो अब मुश्किल से ही दिखती हैं। हिलसा तो फरक्का के ऊपर लगभग लुप्त हो गई है। यह मछली प्रजनन के लिए समुद्र से नदी के मीठे पानी में जाती है। फरक्का ने हिलसा का रास्ता रोक दिया है। मछलियों के लुप्त होने के लिए यहां के निवासी बैराज के अलावा नदी किनारे बने ईंट के भट्टे, रेत खनन, प्रदूषण, गलत तरीके से मछली पकड़ने और विदेशी मछलियों को भी जिम्मेदार मानते हैं।गंगा और इसकी सहायक नदियों में मिट्टी बालू भर गया और बाढ़ तथा जल जमाव की समस्या बढ़ती चली गई। जलकर जमींदारी के खत्म होने बाद भागलपुर के गंगा नदी में सुल्तानगंज के जहांगीरा ( घोरघट पुल ) से पीरपैंती के हजरत पीरशाह कमाल दरगाह तक बिहार सरकार के पशुपालन एवं मत्स्य विभाग ने अपने ज्ञापांक 2294 /मत्स्य / पटना दिनांक 11 दिसंबर 1991 द्वारा पारंपरिक मछुओं हेतु शिकारमाही के लिए निःशुल्क घोषित किया है।
निःशुल्क शिकारमाही की घोषणा के पूर्व ही पर्यावरण विभाग बिहार पटना द्वारा 22 अगस्त 1990 को सुल्तानगंज से कहलगांव तक विक्रमशिला गांगेय डॉल्फिन आश्रयणी क्षेत्र घोषित किया जा चुका था।सरकार ने निःशुल्क शिकारमाही के अधिकार को किसी भी आदेश से निरस्त नहीं किया है। वन विभाग मौखिक रूप से जबरन कहता है कि उपरोक्त क्षेत्र में मछली पकड़ना मना है ।मछली पकड़ने से रोकने के लिए तरह तरह का बेबुनियाद, झूठ और मनगढ़ंत आरोप मछुओं पर लगाया जाता है हकीकत ये है कि गैर मछुओं और सोसाइटी द्वारा गंगा में अवैध जाल चलाया जाता है और जिंदा धार में बाड़ी बांधा जाता है उसे वन विभाग कुछ नहीं कहता है।
सवालिया लहजा में लोगों का कहना है कि वन विभाग नगर निगम / नगर परिषद / नगर पंचायत और एनटीपीसी पर गंगा को प्रदूषित कर डॉल्फिन मारने पर कोई कारवाई या मुकदमा क्यों नहीं करती? वन विभाग डॉल्फिन पर नगर निगम के कचरे और एनटीपीसी के कचरे से होने वाले नुकसान पर मुंह क्यों खोलता ? वन विभाग उम्र पूरा होने या प्रदूषण से मरने वाले सोंस की संख्या सार्वजनिक क्यों नहीं करता ?
मत्स्य विभाग मछुओं को निःशुल्क शिकारमाही का परिचय पत्र निर्गत करने में आना कानी और टाल मटोल करता है।वन विभाग अवैध रूप से बाड़ी (जो डॉल्फिन के लिए हानिकारक है )बांधने पर कोई कारवाई क्यों नहीं करता ? फरक्का के कारण गंगा अब ज्यादा रफ्तार से अपना रास्ता बदल रही है, जिससे कटाव बढ़ा है। जब नदी उथली होती है तो फैलने लगती है और अपने किनारों पर दबाव डालती है। बिहार जैसे गरीब राज्य को 1,058 करोड़ रुपए जमीन के कटाव और बाढ़ के तत्काल प्रभाव को रोकने पर खर्च करने पड़े हैं।
सिर्फ फरक्का का सवाल ही नहीं एनटीपीसी का सवाल गंभीर है। भागलपुर जिले के कहलगांव स्थित एनटीपीसी के इस कोल पावर प्लांट का निर्माण 1985 में शुरू हुआ था और इससे विद्युत उत्पादन 1992 में शुरू हुआ। शुरुआत से ही गंगा मुक्ति आंदोलन और स्थानीय पर्यावरणविदों ने इसके निर्माण पर आपत्ति जताई थी। गंगा नदी के किनारे बसा यह इलाका खेती के लिहाज के काफी उर्वर है। प्रदूषण के कारण यहां पेड़ों की हरियाली समाप्त हो गई है। पेड़ के पत्तों पर राख की मोटी परतें बिछी हुई हैं। और तो और प्रदूषण के कारण लोगों में सांस फूलने की समस्या और विकलांगता बढ़ी है। यह धना, आम और पान का इलाका रहा है। मगर एनटीपीसी की वजह से सब नष्ट हो गया। गंगा बेसिन के इलाकों के महत्वपूर्ण सवाल को लेकर दो दिनों तक 22 फरवरी 2025 को गंगा मुक्ति आंदोलन के वर्षगांठ पर कागजी टोला कहलगांव , भागलपुर में पुनः देश भर से परिवर्तनवादी जुटेंगे और आगे की योजना बनाएंगे। इस लिहाज़ से आंदोलन का शंखनाद दो दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। एक तो शासन तंत्र पर दबाव बनाने लिए, दूसरे सांगठनिक मजबूती के लिए। गंगा मुक्ति आंदोलन के 42साल और चुनौतियां