मैंने छत्तीस वर्ष पूर्व जब प्रयागराज में औपचारिक रूप से ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ का आयोजन शुरू किया था तो लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया था। ऐसा ही वर्ष 1961 में जब मैंने देश का प्रथम हास्य कविसम्मेलन आयोजित किया था, उस समय भी हुआ था। मेरे ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ आयोजन का मूल उद्देष्य उत्तर प्रदेष की एकता एवं अखण्डता की रक्षा करना था। इसलिए जो लोग उत्तर प्रदेश का बंटवारा चाहते थे, उन्होंने मेरे प्रयास का विरोध किया। वास्तविकता यह है कि प्रदेष का विभाजन ऐसे थोड़े लोग चाहते हैं, जिन्हें विधायक व मंत्री बनने का लालच होता है। आम जनता विभाजन नहीं चाहती। जब उत्तराखण्ड बना था, उससे पहले मैंने कुमाऊं व गढ़वाल का व्यापक सर्वेक्षण किया था तो यह तथ्य देखने को मिला था। विभाजनकारी तत्व सब्जबाग दिखलाकर आम जनता को बरगलाते हैं।
24 जनवरी, 1950 को उत्तर प्रदेश राज्य के गठन की अधिसूचना जारी हुई थी, इसलिए वह तिथि हमारे प्रदेष की जन्मतिथि है और इस वर्श उत्तर प्रदेश 71 वर्ष का हो गया। 36 वर्ष पूर्व इलाहाबाद(अब प्रयागराज) के परीभवन में स्थित केसर सभागार में ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ की नींव डाली गई थी। उस भव्य एवं गरिमापूर्ण आयोजन में मुख्य अतिथि हिन्दी की महान साहित्यकार महादेवी वर्मा थीं तथा अध्यक्षता इलाहाबाद उच्चन्यायालय के वरिश्ठ न्यायाधीष न्यायमूर्ति हरिष्चंद्रपति त्रिपाठी ने की थी। वे दोनों हमारी ‘रंगभारती’ के सदस्य थे। बाद में जब ‘रंगभारती’ का मुख्यालय इलाहाबाद(प्रयागराज) से लखनऊ हो गया तो हम वह आयोजन भी लखनऊ ले आए। प्रतिवर्ष विभिन्न विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले व्यक्तित्वों को सम्मानित किया जाने लगा।
मैं अनेक वर्षों से मांग कर रहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार पूरे प्रदेश में ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ का आयोजन करे, लेकिन मेरी सुनवाई नहीं होती थी। उड़ीसा के जो अफसर उत्तर प्रदेश में हैं, उन्होंने तिकड़म करके लखनऊ में ‘उड़ीसा दिवस’ को सरकारी आयोजन करा लिया था, लेकिन ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ के सम्बंध में मेरी मांग पूरी नहीं की जा रही थी। ‘उड़ीसा दिवस’ आयोजन का सारा व्यय व व्यवस्थाएं उत्तर प्रदेष सरकार वहन करने लगी, मगर आयोजन पर वर्चस्व उन अफसरों का ही रहा।
तीन वर्ष पूर्व मेरे अनुरोध एवं पूर्व-राज्यपाल राम नाईक की संस्तुति पर योगी सरकार ने मांग स्वीकार की तथा सरकारी तौर पर आयोजन करने लगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार जिस रूप में आयोजन कर रही है(अंग्रेजी-प्रेमी अफसरों ने उसका नाम शायद ‘यूपी दिवस’ कर दिया है), उस रूप में मैंने कभी नहीं चाहा था। मैं चाहता था कि उत्तरप्रदेश सरकार प्रदेश के समस्त जनपदों में स्थित सभी शिक्षण-संस्थानों, सरकारी व गैरसरकारी कार्यालयों आदि में उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस का आयोजन करे, ताकि उत्तर प्रदेश की अखंडता को बल मिले तथा प्रदेश के विभाजन की मांग करने वाले हतोत्साहित हों।
राम नाईक जब राज्यपाल होकर लखनऊ आ गए थे तो ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ के अपने आयोजन में आमन्त्रित करने के लिए मैं उनके पास गया था। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया था कि यह आयोजन प्रदेश सरकार नहीं करती है। मैंने उन्हें बताया था कि मुख्यमन्त्री के पास मैं हर साल अनुरोधपत्र भेजता हूं, लेकिन सुनवाई नहीं होती है। राम नाईक ने मेरे सामने मुम्बई में ‘उत्तर प्रदेष दिवस’ के आयोजक अमरजीत मिश्र को फोन कर मेरा उल्लेख करते हुए बताया था कि मैं यहां तीन दशकों से उक्त आयोजन कर रहा हूं। बाद में अमरजीत एक बार लखनऊ आए थे तो मुझसे मिलने आए थे।
महाराष्ट्र में ‘उत्तर प्रदेश दिवस’ मेरे आयोजन के कई वर्ष बाद शुरू हुआ। धनवालों के महानगर के उक्त आयोजन में तथा मेरे द्वारा अपने संसाधनों से शुरू किए गए आयोजन में मूलभूत अंतर है। यहां तो किसी को पता भी नहीं था कि महाराष्ट्र में उक्त आयोजन होता है। रामनाईक ने जब उल्लेख किया तो लोगों को पता लगा।
राज्यपाल राम नाईक ने मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव को राजभवन बुलाकर मेरे आयोजन का उल्लेख करते हुए यह आयोजन सरकारी स्तर पर करने के लिए कहा था। अखिलेश यादव मान गए थे, लेकिन बाद में मुकर गए। एक जानकार ने बताया कि उन्हें आजम खां ने यह कहकर भड़का दिया था कि रामनाईक की बात मानी तो श्रेय भाजपा को मिल जाएगा।
बाद में जब योगी आदित्यनाथ मुख्यमन्त्री बने तो मैंने अपने अनुरोध का उल्लेख करते हुए राम नाईक को फिर घेरा और मेरा प्रयास सफल हुआ। यह बात और है कि मुझे सरकारी आयोजन में मुखिया बनाने के बजाय दूध में मक्खी की तरह परे कर दिया गया। मुझे तो आयोजन में आने का आमन्त्रण तक नहीं मिलता। इस बार भी अनेक लोगों ने मुझसे पूछा कि उत्तर प्रदेश सरकार ‘उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस’ का जो आयोजन करती है, उसका आमंत्रण मुझे मिला…?
मेरी पत्रकारिता को साठ वर्ष हो रहे हैं तथा मैं दलाली या चाटुकारिता वाली पत्रकारिता नहीं करता, इसलिए यदि उक्त आयोजन हेतु मुझे पूछा जाय या मेरे प्रति सम्मान प्रदर्शित किया जाय तो कलयुग कैसे माना जाएगा….? इसीलिए उसका बुरा नहीं मानना चाहिए। जोरदार चर्चा है कि उत्तर प्रदेश के राजभवन में भी कलियुग की पैठ हो रही है तथा चाय का खर्च बचाने के लिए वास्तविक प्रतिश्ठित लोगों को वहां नहीं पूछा जा रहा है तथा राम नाईक के समय के तमाम लोगों को वहां से हटा दिया गया है। जय हो कलियुग महाराज की ! ‘मुहरें लुटें कोयले पर छाप ’ वाला मुहावरा कलियुग में ही चरितार्थ होता है !