इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोहराया, विवाहित बेटियां अनुकंपा नियुक्ति की पात्र; कानून की किताब में कोई संशोधन आवश्यक नहीं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि यूपी रिक्रूटमेंट ऑफ डिपेंडेंट ऑफ गवर्नमेंट सर्वेंट्स डाइंग इन हॉर्नेस रूल्स, 1974 के तहत अनुकंपा नियुक्ति के लिए बेटी का आवेदन खारिज करने का एकमात्र कारण विवाह की स्थिति नहीं हो सकती है।
जस्टिस जेजे मुनीर की सिंगल बेंच ने कहा कि श्रीमती विमला श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य, रिट सी नंबर 60881/2015 में हाईकोर्ट की डिविजन बेंच यह मान चुकी है कि 1974 के नियमों के नियम 2 (c) में दिए शब्द ‘परिवार’ के दायरे से विवाहित बेटियों को बाहर करना असंवैधानिक है। बेंच ने माना था कि उक्त नियमों के नियम 2 (c) (iii) में ‘अविवाहित’ शब्द, संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के उल्लंघन है और उस शब्द को हटा दिया था।
जज ने कहा कि नियम 2 (c) (iii) सभी उद्देश्यों के लिए पूर्णतया अप्रभावी हैं और यह सामान्य दायित्व के रूप में संचालित है।
उन्होंने कहा, “घोषणा पूर्ण और अनर्ह है, इसके बाद नियमों के नियम 2 (c) (iii) में शामिल ‘अविवाहित’ शब्द को औपचारिक आदेश द्वारा रद्द कर दिया गया है। सिद्धांत बखूबी तय है कि एक बार कानून, विशेष रूप से, एक संविधानोत्तर कानून, अनुच्छेद 13, खंड (2) द्वारा शासित, को मौलिक अधिकार के उल्लंघन के कारण असंवैधानिक घोषित किया जाता है तो यह शून्य हो जाता है। यह सभी उद्देश्यों के लिए पूर्णतया अप्रभावी हो जाता है, भले ही यह संविधि पुस्तक में एक मृत शब्दों के रूप में घूमता रहे।”
पृष्ठभूमि
मामले में कोर्ट के समक्ष प्रश्न था कि कि क्या श्रीमती विमला श्रीवास्तव (सुप्रा) के फैसले में, नियमों के नियम 2 (c) (iii) में ‘अविवाहित’ शब्द को हटा देना, विवाहित बेटी को अनुकंपा नियुक्ति के उसके दावे पर, राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों में संशोधन के बिना, विचार करने के लिए हकदार बनाता है, जिसमें स्पष्ट रूप से नियम 2 (C) के तहत परिभाषित ‘परिवार’ में ‘विवाहित बेटी’ सहित शामिल है?
यह मुद्दा एक मृतक सरकारी कर्मचारी की बेटी मंजुल श्रीवास्तव द्वारा दायर याचिका से पैदा हुआ था, जिसका डाइंग ऑफ हार्नेस रूल्स, 1974 के तहत अनुकंपा नियुक्ति का दावा, जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी, प्रयागराज द्वारा खारिज कर दिया गया था, मात्र एक आधार पर कि मृतक शासकीय सेवक की विवाहित पुत्री ‘परिवार’ की परिभाषा में शामिल नहीं है।
बहस
याचिकाकर्ता ने श्रीमती विमला श्रीवास्तव (सुप्रा) पर भरोसा किया और दलील दी गई कि एक बार नियमों के नियम 2 (c) (iii) में शामिल ‘अविवाहित’ शब्द को असंवैधानिक करार दिया जाने के बाद, यह प्रभावी नहीं रह जाता है, भले ही यह अब संविधि पुस्तक में बचा रहे। तदनुसार, नियम, जैसा कि वे हैं, विवाहित बेटी को अनुकंपा नियुक्ति के अधिकार पर विचार करने के लिए किसी और संशोधन की आवश्यकता नहीं है।
सरकार की ओर से पेश वकील ने हालांकि यह कहा कि – उच्च न्यायालय द्वारा की गई घोषणा के बावजूद कि धारा 2 (c) (iii) असंवैधानिक है और इस हद तक शून्य है कि वह ‘अविवाहित’ शब्द को वहन करती है, जो ‘बेटी’ शब्द को योग्य बनाती है, एक अविवाहित बेटी पर अनुकंपा नियुक्ति के लिए विचार नहीं किया जा सकता है, जब तक कि राज्य इस अदालत के निर्णय के अनुसार नियम 2 (c) के प्रावधानों को उचित रूप से संशोधित नहीं करता है।
परिणाम
शुरुआत में, अदालत ने उत्तरदाता के उस तर्क को खारिज कर दिया कि उच्च न्यायालय के आदेश को प्रभावी करने से पहले नियमों को उचित रूप से संशोधित करने की आवश्यकता है। सगीर अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य, AIR 1954 SC 728 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए और अन्य कई मिसालें का हवाला देते हुए सिंगल बेंच ने कहा,
“आपत्तिजनक हिस्से के खात्मे ने धारा 2 (c) (iii) के शेष हिस्सों को प्राधिकार के अधीन कर दिया है, यह लिंग के आधार पर भेदभाव के दोष को समाप्त करता है। जो बच गया है ,वह एक व्यावहारिक प्रावधान है और इसे इस तरह से समझा जाना चाहिए कि एक बेटी, उसकी वैवाहिक स्थिति के बावजूद, मृत सरकारी कर्मचारी के परिवार के सदस्य मानी जाती है, जैसे कि एक बेटा, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित। यह अदालत, इसलिए मानती है कि मृतक के परिवार की परिभाषा में ‘बेटी’ शब्द को, बेटी की वैवाहिक स्थिति की अनर्हता द्वारा पढ़ा जाना चाहिए, और मृतक सरकारी कर्मचारी की बेटी के अधिकार को नियमों के तहत प्रभावी बनाने के लिए सरकार द्वारा नियमों में कोई और संशोधन की आवश्यकता नहीं है। “
अदालत की घोषणा सामान्य दायित्व के रूप में संचालित
एकल न्यायाधीश का विचार था कि यदि उत्तरदाताओं द्वारा की गई प्रस्तुतियां किसी भी गंभीर विचार के लायक होतीं, तो यह न्यायालय के अधिकार क्षेत्र, भाग III के अधिकार के उल्लंघन के लिए एक असंवैधानिक कानून या वैधानिक प्रावधान को शून्य घोषित करने, में लगभग दुर्गम निषेध को स्वीकार करने के बराबर होता।
“अदालत के एक फैसले में मौलिक अधिकार के उल्लंघन के लिए एक कानून को शून्य घोषित करना, एक घोषणा को खुद की शक्ति देता है, प्रावधान को अमान्य करार देता है; यह सभी इरादों और उद्देश्यों के लिए प्रभावी है; इसे प्रभाव देने के लिए निश्चित रूप से एक विधायी अनुपालन की आवश्यकता नहीं है।”
उन्होंने कहा कि नियमों के नियम 2 (c) (iii) में शामिल है ‘अविवाहित’ शब्द को हटाने के बाद यदि प्रावधान व्यावहारिक हो गया होता तो उत्तरदाताओं के प्रस्तुतिकरण का कुछ कुछ अर्थ हो सकता था।
“लेकिन यह नहीं हो पाया है। अविवाहित शब्द को हटा दिया गया है…जिसे हमेशा सुप्रीम कोर्ट के आधिपत्य की मंजूरी मिली है।
इस प्रकार, धारा 2 (c) (iii) में शामिल ‘परिवार’ की परिभाषा में, ‘बेटी’ शब्द को ‘अविवाहित’ की पूर्व-निर्धारित योग्यता बिना पढ़ा जाना है। इसलिए, घोषणा का प्रभाव यह है कि नियम 2 (c) (iii) में ‘बेटी’ पढ़ा जाना है, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित।”
इन अवलोकनों के साथ बेंच ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के आदेश को रद्द कर दिया और दो महीने की अवधि के भीतर याचिकाकर्ता के, उसकी वैवाहिक स्थिति के संदर्भ के बिना, अनुकंपा नियुक्ति के दावे पर विचार करने के निर्देश दिया।
इस बिंदु पर ध्यान देना उचित है कि राजस्थान उच्च न्यायालय ने 2019 में अनुकंपा नियुक्ति का लाभ उठाने से विवाहित बेटियों को बाहर करने के खिलाफ दायर एक याचिका को खारिज कर दिया था।
केस टाइटिलः मंजुल श्रीवास्तव बनाम यूपी राज्य और अन्य।