हाल ही में शीतकालीन सत्र में संसद में(बाहर और भीतर) जो हुआ, उससे लगता है कि संसद की गरिमा खतरे में है। यह विडंबना ही है कि संसद परिसर में धक्का-मुक्की और हाथापाई तक की नौबत आ गई। बहुत ही दुखद है कि धक्का मुक्की और हाथापाई में सांसदों को आईसीयू तक में भर्ती कराना पड़ा। वास्तव में यहां यह मानना कठिन है कि यह धक्का-मुक्की अनजाने में हुई। नेता प्रतिपक्ष का कहना है कि उन्हें संसद में प्रवेश करने से रोका गया। वो धक्के की बात से अस्वीकार कर रहे हैं। विपक्ष बाबा साहेब के अपमान पर माननीय गृह मंत्री से इस्तीफे की मांग कर रहा है और माफी मांगने की बात कह रहा है। वहीं दूसरी ओर सत्ता पक्ष ने भी विपक्ष पर आरोप लगाए हैं। मसलन, यह कहा है कि नेता प्रतिपक्ष का घटना के बाद भी अहंकार नहीं टूटा है। नेता प्रतिपक्ष खुद को कानून से ऊपर समझते हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि नेता प्रतिपक्ष जानबूझकर सत्ता पक्ष के सांसदों के बीच पहुंचे और धक्का मुक्की ही नहीं, गुंडागर्दी भी की। सत्ता पक्ष ने यहां तक कह दिया है कि नेता प्रतिपक्ष, नेता प्रतिपक्ष बनने के लायक नहीं है। तार-तार लोकतंत्र
बहरहाल, संसद में जो कुछ भी हुआ है वह शर्मनाक होने के साथ ही बहुत ही दुखद भी है। संसद की प्रतिष्ठा और गरिमा का हनन हमारे देश और समाज की प्रतिष्ठा और छवि पर भी निश्चित ही असर छोड़ता है। संसद देश और समाज के विभिन्न मुद्दों पर तार्किक बहस और कानून निर्माण के लिए बनी है, न कि लड़ाई-झगड़े, आपसी विवाद, धक्का मुक्की और हाथापाई के लिए। लोकसभा में विपक्ष के नेता पर पुलिस ने मामला भी दर्ज कर लिया है। क्या यह चिंतनीय और संवेदनशील नहीं है कि संसद अब विवाद और आरोप-प्रत्यारोप की जगह बनती जा रही है ? पता नहीं सत्ता पक्ष और विपक्ष के आरोपों में कितनी सच्चाई है लेकिन इसमें कोई भी संदेह नहीं कि उक्त घटना संसद ही नहीं, पूरे देश को शर्मसार करने वाली है। राजनीति का स्तर इतना ओछा व तुच्छ नहीं होना चाहिए कि वह मर्यादा विहीन दिखने लगे। सच तो यह है कि आज राजनीति का स्तर दिन-ब-दिन गिरता ही चला जा रहा है। आलोचना करने का भी एक गरिमामयी तरीका होता है, मर्यादा होती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज संसद में आलोचना और निंदा, चर्चा और अपमान में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ रहा है। आज सांसदों में आपसी राजनीतिक कटुता लगातार पनपनी चली जा रही है और इसकी बेल लगातार और अधिक जहरीली होती चली जा रही है।
विभिन्न मुद्दों पर चर्चाओं का भी एक शालीन और सभ्य तरीका होता है। सदन में बात पूरे सलीके और एक दूसरे के सम्मान, आदर-सत्कार के साथ रखी जाती है। यह ठीक है कि आलोचना में, देश और समाज के मुद्दों पर आपसी बहस में हल्की-फुल्की तकरार, हल्का-सा गुस्सा, तेवर कभी-कभार संभव हो सकते हैं लेकिन तकरार और गुस्से का यह मतलब तो कतई नहीं है धक्का-मुक्की, हाथापाई तक की ही नौबत आ जाए। राजनेताओं को यह बात याद रखनी चाहिए कि मर्यादा विहीन राजनीति हमेशा केवल धिक्कार की ही पात्र होती है। यह शर्मनाक है कि डा. अंबेडकर के नाम पर पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे को कोसने में लगे हुए हैं और संविधान के नाम पर होने वाली चर्चा भी आज अपने निम्न स्तर पर चली गई है जिसमें पक्ष रखने की बजाय एक-दूसरे को बदनाम करने की ओर रुझान ज्यादा है। सच तो यह है कि आज आपसी विचार-विमर्श, संवाद की परिभाषा तो जैसे ही समाप्त हो गई है। सच तो यह है कि आज राजनीति और राजनेता अपने छिछले स्तर पर आ गए हैं। एक समय था जब राजनीति और राजनेताओं की अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा थी, अब ऐसा लगता है कि यह धीरे-धीरे धूमिल सी होती चली जा रही है।
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि आज राजनेता अपने चूल्हे के नीचे आंच सरकाने से वास्ता रखने लगे हैं, राष्ट्र और समाज से उन्हें कोई लेना-देना नहीं। सांसदों के बीच कटुतापूर्ण और शत्रुतापूर्ण संबंध लोकतंत्र के लिए सही नहीं ठहराये जा सकते हैं। ऐसा होना भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत ही ख़तरनाक है। आज हम दुनिया का विशालतम लोकतंत्र कहलाते हैं लेकिन विशालतम लोकतंत्र में यदि ऐसी घटनाएं घटित होती हैं तो क्या यह विश्व पटल पर हमें और हमारे देश को शर्मशार नहीं करता है ? आज संसदीय वार्तालाप बहुत ही निम्न स्तर का , अभद्र और अशोभनीय हो गया है। यह पहली बार नहीं है जब संसद में ऐसी स्थितियां (हाथापाई, धक्का मुक्की) पैदा हुईं हैं। इससे पहले भी भारत में संसद और राज्य विधानसभाओं में कई बार झड़प की घटनाएं हो चुकी हैं और इस वजह से कई बार अप्रिय स्थिति पैदा हो चुकी है।
बहुत समय पहले तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सदन में हुई घटनाओं को “निंदनीय” बताते हुए चेतावनी दी थी कि अगर ऐसी घटनाएं दोहराई गईं तो ‘सबसे कठोर कार्रवाई’ की जाएगी। उल्लेखनीय है कि 24 नवंबर 2009 को राज्यसभा में अमर सिंह और भाजपा के अहलूवालिया में हाथापाई हो गई थी। 5 सितंबर 2012 को राज्यसभा में एससी, एसटी कोटा बिल पेश किए जाने के दौरान बीएसपी सांसद अवतार सिंह और एसपी सांसद नरेश अग्रवाल के बीच हाथापाई हुई।13 फरवरी 2014 को आंध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक पर भारत की संसद में बड़े पैमाने पर हुए झगड़े ने अध्यक्ष को कक्ष से भागने पर मजबूर कर दिया और कई सांसदों को अस्पताल ले जाया गया।
संसद ही नहीं राज्य विधानसभाओं में भी ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने शर्मसार किया। मसलन बहुत समय पहले जनवरी 1988 में तमिलनाडु विधानसभा में माइक और कुर्सियों का फेंका जाना,26 मार्च 1989 को जयललिता और करुणानिधि के विधायकों के बीच हिंसा भड़क जाना,16 दिसम्बर 1993 को यूपी विधानसभा में 33 विधायकों का घायल हो जाना,21 अक्टूबर 1997 को यूपी विधानसभा में ही पेपरवेट, फर्नीचर चलने पर 50 सदस्यों का घायल हो जाना,11 दिसंबर 2012 को पश्चिम बंगाल विधानसभा हाथापाई, 2013 में तमिलनाडु विधानसभा में बागी विधायकों के साथ हाथापाई,
13 मार्च 2015 को केरल विधायकों द्वारा कुर्सियां तोड़ना, माइक को फेंकना और मेजों पर चढ़ना,18 फरवरी 2017 को तमिलनाडु विधानसभा में राज्य के लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा हिंसा और बर्बरता की घटनाएं,14 मार्च 2018 को गुजरात विधानसभा में थप्पड़ व लात-घूंसे चलना के अलावा हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र , पश्चिमी बंगाल और जम्मू-कश्मीर विधानसभा की घटनाओं ने समाज और देश को शर्मशार किया। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय संविधान ने हमें उच्च मानवीय और राजनीतिक संस्कृति प्रदान की है। संविधान सरकारों को समाज और देश को दिशा दिखाने का कार्य करता है। भारतीय संविधान में संसदीय प्रणाली के प्रमुख तत्व विद्यमान है। यह विडंबना ही है कि आज उसी संविधान के नाम पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का खेल शुरू हो गया है।
असल में संविधान विभिन्न सिद्धांतों और नियमों का समूह है, जो शासन की मर्यादा, स्वरूप और उद्देश्य को स्पष्ट करता है। लोकतंत्र में संविधान की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे देश का संविधान आपसी तालमेल, सहयोग, सह-अस्तित्व, समानता और आपसी संवाद(इंटरेक्शन) की बुनियाद है। संविधान बिना देश कुछ भी नहीं। यह देश का संविधान ही है जो नागरिकों में विश्वास जगाता है। संसद में जो कुछ भी हुआ है, वह बहुत ही निंदनीय और देश को शर्मसार करने वाला है। ईश्वर संसद को चलाने वालों को सद्बुद्धि दे। तार-तार लोकतंत्र