मुस्लिम किसके :- सपा के या बसपा के,नगर निगम परिणाम से साफ होगी स्थिति। बसपा ने 13 मुस्लिम मेयर प्रत्याशी घोषित कर भाजपा की की है मदद…..? आखिर मुस्लिम मतदाता किसके
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में वाराणसी, प्रयागराज, गोरखपुर, अयोध्या, लखनऊ, कानपुर, झाँसी, आगरा, फ़िरोज़ाबाद, मथुरा वृन्दावन, बरेली, मुरादाबाद, मेरठ, गाज़ियाबाद, नोयडा, सहारनपुर,अलीगढ़ आदि 17 नगर निगम हैं। जिसमें 1-1 मेयर पद अनुसूचित जाति पुरुष व महिला एवं 2-2 मेयर पद पिछडी जाति पुरुष व महिला के लिए आरक्षित तथा 11मेयर पद पुरुष व महिला के लिए अनारक्षित हैँ।नगर निगम मेयर पद के लिए सपा ने जहां ब्राह्मण पर जोर दिया है, वही बसपा ने मुस्लिम पर दांव चला है। झाँसी व आगरा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है।बसपा ने कानपुर व वाराणसी की सामान्य मेयर सीट पर निषाद जाति के प्रत्याशीयों को उम्मीदवार बनाया है,वही 9 अनारक्षित व 4 पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित मेयर सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतार कर सपा की राह में पेंच फंसा दिया है। सपा ने वाराणसी से राजपूत , प्रयागराज से कायस्थ, गोरखपुर से जैन ब्राह्मण(काजल निषाद ) को उम्मीदवार बनाया है।
नगर निगम चुनाव में बसपा जीतती है या दूसरे नंबर पर रहती है तो सपा के लिए भविष्य की राजनीति कठिन हो जाएगी।पहली बार मुस्लिम मतदाताओं ने एकमुस्त विधानसभा चुनाव में सपा को वोट दिया था। सपा शुरू से ही एम वाई फैक्टर (मुस्लिम यादव ) को लेकर चलती आ रही है। मुस्लिम वोट पर दावा तो बसपा भी करती रही है, पर विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाताओं ने बसपा पर भरोसा न कर सपा पर किया। बसपा ने 7 दर्जन से अधिक मुस्लिम प्रत्याशी उतारा था, पर एक भी जीत नहीं सका, वही सपा से 34 मुस्लिम प्रत्याशी जीत हासिल करने में सफल रहे।
विधानसभा चुनाव -2022 में बसपा अपने मूल जातिगत वोट तक सीमित होकर 12 प्रतिशत वोट शेयर पर खिसक गयी, वही सपा ने अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन करते हुए अकेले 36 प्रतिशत का वोट शेयर हासिल किया।विगत लोकसभा चुनाव में बसपा का सपा से गठबंधन था और उसने शून्य से अपनी सीटों को बढ़ाकऱ 10 तक पहुंचाया, लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे रसड़ा (बलिया )की एकमात्र सीट पर जीत मिली, वैसे यह उमाशंकर सिंह की व्यक्तिगत जीत माना जा सकता है। कभी राजभर, पाल, कुशवाहा बसपा के परम्परागत वोट माने जाते थे, वे 2007 के चुनाव के बाद साथ छोड़ दिए। बसपा ने विधानसभा चुनाव के बाद भीम राजभर को हटाकर विश्वनाथ पाल को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, पर अन्य कोई जाति बसपा से जुड़ती नहीं दिख रही है, पाल भी जुटता नहीं दिख रहा।
सपा के लिए नरेश उत्तम की प्रदेश अध्यक्षी शुभ साबित नहीं हो रही। ज़ब से यह प्रदेश अध्यक्ष बने हैं, सपा लगातार चुनाव हारती जा रही है। नरेश उत्तम सपा के लिए अनुत्तम व बेअसर साबित ही हुए हैं। हार पर हार के बाद भी इन्होने नैतिकता के आधार इस्तीफा देना उचित नहीं समझे और न पार्टी नेतृत्व बदलाव का दोहमत ही उठा पाया। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जनेश्वर मिश्र पार्क में ज़ब नरेश उत्तम को पुनः प्रदेश अध्यक्ष का प्रस्ताव रखे,आधे से अधिक कार्यकर्ता गाली देते हुए कार्यक्रम स्थल से उठकर चल दिए।
2017 में पारिवारिक उठापटक के दौरान इन्हें प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी अखिलेश यादव द्वारा दी गयी, लेकिन ये अपनी प्रदेश में पहचान बनाने में सफल नहीं हो पाए, ये कार्यक्रम संचालक व एकाउन्टेंट तक ही सीमित रह गए हैं। ये जिस कुर्मी बिरादरी से आते हैं, उसमें इनकी स्वीकार्यता नहीं के बराबर है। यह फतेहपुर के जहानाबाद विधानसभा के जिस गाँव से आते हैं, वह कुर्मी बहुल है, पर ये अपना बूथ तक नहीं जीता पाते। यही हाल समाजवादी पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. राजपाल कश्यप की भी है। समाजवादी पार्टी कहने को पिछड़ा वर्ग आधारित पार्टी है, पर यादव के अलावा अन्य पिछड़ी जातियाँ सपा से जुड़ने में हिचकती हैं।
उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण में आधे से अधिक संख्या पिछड़ी जातियों की है, पर यादव को छोड़कर अन्य सपा से दूर हैं। भाजपा अतिपिछड़ों व अति दलितों को मजबूती से जोड़ने में सफल हो गयी है, जिसका कारण है उसकी सोशल इंजिनियरिंग व माइक्रो सोशल इंजिनियरिंग।
भाजपा की लगातार सफलता का कारण उसका जातिगत समीकरण है और वह हर जाति से बोलचाल वाले नेताओं को तैयार किया है। उसके पास कुर्मी, लोधी, पाल, निषाद, कश्यप, राजभर, प्रजापति, जाट, गुजर, विश्वकर्मा, साहू, कुशवाहा /मौर्य, सैनी जाति के तेजतर्रार नेता हैं, जो सपा की खिंचाई करने में हमेशा तैयार रहते हैं। सपा में 62 प्रवक्ताओं की लम्बी सूची हैं, पर राजकुमार भाटी, उपाध्याय व अनुराग भदौरिया, मनोज यादव के अलावा शेष सिर्फ नाम के प्रवक्ता हैं। यह सच है कि सपा के पास अन्य पार्टियों की अपेक्षा नौजवानों की बड़ी फ़ौज है, पर सपा में दूसरी कतार के नेताओं का अभाव सा है।
लौटनराम निषाद जितनी तेजी से प्रदेश में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए, उतनी ही जल्दी लोगों ने घेराबंदी कर बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके पिछड़ावर्ग प्रकोष्ठ का प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद पिछड़ों, दलितों में उत्साह का संचार हुआ, लोगों को लगा कि उनके बीच के जमीन से जुड़े किसी कार्यकर्ता को सम्मान मिला है। लेकिन पार्टी के प्रति समर्पण व सक्रियता उनके लिए घातक साबित हुई।
लोकसभा चुनाव सपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, जिसकी पटकथा नगर निकाय चुनाव के बाद साफ हो जाएगी। अगर बसपा कुछ नगर निगम सीटों पर जीत के साथ रनर भी रहती है तो सपा के लिए खतरे की घंटी होगी।मुसलमान मतदाता सपा के या बसपा के, इसकी तस्बीर नगर निकाय चुनाव परिणाम के बाद साफ हो जाएगी। बसपा ने शायद यही पता करने के लिए 17 मेयर की सीटों में से 13 पर मुस्लिम प्रत्याशी उतारने का दांव खेला। वही भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता चौ. लौटनराम निषाद ने साफतौर पर कहा की नगर निगम मेयर पद के लिए 13 मुस्लिम प्रत्याशी उतारने के पीछे भाजपा की राजनीति होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
विधानसभा चुनाव में मायावती ने साफ कह दिया था कि जहाँ बसपा जीतने की स्थिति में न हो, वहाँ सपा को हराने के लिए भाजपा को वोट दे देना। मुस्लिम वर्ग सपा के साथ या बसपा के, इसका आंकलन 13 मई को मतगणना के बाद साफ हो जायेगा। अगर मुस्लिम का बहुमत बसपा के साथ गया तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ भी जा सकता है। नगर निगम मेयर पद के लिए सपा गोरखपुर, वाराणसी, कानपुर, मेरठ, फ़िरोज़ाबाद, सहारनपुर, बरेली, मथुरा में अच्छा लड़ रही है और लखनऊ में ब्राह्मणों ने सपा का साथ दिया तो जीत की संभावना बन जाएगी। आखिर मुस्लिम मतदाता किसके