चुनावी रेवड़ी पर नीतिगत निर्णय आखिर कब..?

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चुनावी रेवड़ी पर नीतिगत निर्णय आखिर कब तक..?
चुनावी रेवड़ी पर नीतिगत निर्णय आखिर कब तक..?

कमलेश पांडेय

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 की घोषणा करते वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि ‘चुनावी रेवड़ी’ क्या है, इसे परिभाषित करना मुश्किल है। चूंकि इस मुद्दे पर आयोग के हाथ बंधे हुए हैं, इसलिए कानूनी उत्तर ढूंढे जाएं।” इसलिए अब सवाल उठ रहा है कि चुनावी रेवड़ी पर नीतिगत निर्णय आखिर कब तक होगा क्योंकि सीईसी की इस साफगोई से हमारी संसद और हमारे संविधान के संरक्षक सुप्रीम कोर्ट, दोनों की जिम्मेदारी बढ़ चुकी है कि वो जल्द ही इस मसले पर व्याप्त कानूनी असमंजस को दूर करने की एक नेक पहल करें।  चुनावी रेवड़ी पर नीतिगत निर्णय आखिर कब..?

वहीं, ऐसा नहीं होना निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया पर एक गम्भीर सवालिया निशान छोड़ जाता है क्योंकि यदि इस मसले पर स्पष्ट नियमन होंगे तो इसका उल्लंघन करने वाले राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को कानून के कठघरे में खड़ा किया जा सकेगा। दरअसल, मुख्य चुनाव आयुक्त की बात से स्पष्ट हो चुका है कि आजादी और गणतंत्र बनने के इतने दशकों बाद भी हमारे सत्ता पक्ष या विपक्ष ने कभी इस मुद्दे पर स्पष्ट नियमन बनाने की पहल ही नहीं की ताकि दुविधाजनक कानूनी परिस्थितियों से चुनावी लाभ उठाते रहा जाए। 

मीडिया में इस बारे में जब-तब बहस होती रहती है और सर्वोच्च न्यायालय में भी इस बारे में एक जनहित याचिका दायर है जिस पर दो टूक निर्णय की प्रतीक्षा देशवासियों को हैं लेकिन वर्ष 2018 से अबतक इस पर स्पष्ट निर्णय नहीं हो पाया है। यह गम्भीर बात है, क्योंकि इससे इस अहम मसले पर राजनेताओं और सम्बन्धित पेशेवरों द्वारा जितने मुंह उतनी बातें की जा रही हैं जिससे मतदाता भी असमंजस में हैं। इसके उलट जिन्हें फ्रीबीज यानी मुफ्त की चुनावी रेवड़ी का लाभ मिल रहा है, उनकी तो बल्ले बल्ले है लेकिन जिन करदाताओं की जेबें तरह-तरह के टैक्स के माध्यम से हर रोज काटी जा रही हैं और सरकार प्रदत्त जनसुविधा भी नदारत या नाकाफी दिख रही है, उनके दिलो दिमाग में इस सियासी प्रवृत्ति को लेकर अनेक सवाल उठ रहे हैं।

वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने भी गत दिनों फ्रीबीज मामले पर सख्त टिप्पणी की और कहा कि राज्यों के पास उन लोगों को ‘मुफ्त सौगात’ देने के लिए पर्याप्त धन है, जो कोई काम नहीं करते लेकिन जजों की सैलरी-पेंशन देने के लिए नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “राज्य के पास मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के लिए पैसे हैं, लेकिन जजों की सैलरी-पेंशन देने के लिए नहीं है। राज्य सरकारों के पास उन लोगों के लिए पूरा पैसा है जो कुछ नहीं करते लेकिन जब जजों की सैलरी की बात आती है तो वे वित्तीय संकट का बहाना बनाते हैं।”

बता दें कि जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने यह मौखिक टिप्पणी उस समय की जब अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ से जुड़ी एक याचिका के निपटारे के क्रम में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि ने दलील दी कि सरकार को न्यायिक अधिकारियों के वेतन और सेवानिवृत्ति लाभों पर निर्णय लेते समय वित्तीय बाधाओं पर विचार करना होगा। तब सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी की कि, “राज्य के पास उन लोगों के लिए पैसा है जो कोई काम नहीं करते। चुनाव आते हैं, आप लाडली बहना और अन्य नयी योजनाएं घोषित करते हैं जिसके तहत आप निश्चित राशि का भुगतान करते हैं। दिल्ली में अब आए दिन कोई न कोई पार्टी घोषणा कर रही है कि वे सत्ता में आने पर 2,500 रुपये देंगे।” उल्लेखनीय है कि शीर्ष अदालत ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को पेंशन के संबंध में अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ की ओर से 2015 में दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की।

वहीं, अटार्नी जरनल आर वेंकटरमणि ने कहा कि वित्तीय बोझ की वास्तविक चिंताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले कहा था कि यह ‘दयनीय’ है कि उच्च न्यायालय के कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को 10,000 रुपये से 15,000 रुपये के बीच पेंशन मिल रही है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी ऐसे वक्त में आई है, जब दिल्ली चुनाव में फ्रीबीज की बहार है। आम आदमी पार्टी ने वादा किया है कि उसकी सरकार बनी तो महिलाओं को 2100 रुपए हर महीने मिलेंगे जबकि कांग्रेस 2500 रुपए देने की बात कह रही है। वहीं, भाजपा भी इसी तरह का ऐलान करने वाली है।

उधर, दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले ही पूरे दिल्ली में ‘रेवड़ी पर चर्चा’ अभियान की शुरूआत कर दी थी। इस मौके पर उन्होंने दो टूक कहा था कि “जनता का पैसा, जनता की रेवड़ी, तो उस पर हक़ भी जनता का ही है।”

 केजरीवाल ने कहा कि, ‘पीएम मोदी ने कई बार कहा है कि केजरीवाल मुफ़्त की रेवड़ी दे रहे हैं और इसे बंद किया जाना चाहिए। केजरीवाल खुलेआम कह रहा है कि हम ये रेवड़ी दे रहे हैं। दिल्ली के लोगों को तय करना है कि उन्हें ये रेवड़ी चाहिए या नहीं। अगर बीजेपी जीतती है तो वे ये योजनाएं बंद कर देगी। बीजेपी ने अपने और अपने गठबंधन द्वारा शासित राज्यों में ये रेवड़ियां लागू नहीं की हैं। ये “मुफ़्त की रेवड़ी” नहीं हैं बल्कि ये करदाताओं के पैसे से लागू की गई योजनाएं हैं।’

वहीं, चुनाव अभियानों में राजनीतिक पार्टियों के मुफ़्त चीज़ें और पैसे देने के वादों से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘एक गंभीर मुद्दा’ बताया है। वर्ष 2022 में ही एक याचिका पर सुनवाई करते हुए तत्कालीन चीफ़ जस्टिस एनवी रमन्ना और जस्टिस कृष्ण मुरारी की बेंच ने कहा था कि- “ये एक गंभीर मुद्दा है। जिन्हें ये मिल रहा है, वो ज़रूरतमंद हैं और हम वेलफ़ेयर स्टेट हैं। कुछ टैक्सपेयर कह सकते हैं कि इसका इस्तेमाल विकास के लिए किया जाए। इसलिए ये गंभीर मुद्दा है। अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और वेलफ़ेयर में बैलेंस की ज़रूरत है। दोनों ही पक्षों को सुना जाना चाहिए।”

उल्लेखनीय है कि इस बाबत जनहित याचिका दायर करने वाले बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने गुज़ारिश की है कि केंद्र सरकार और चुनाव आयोग राजनीतिक पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र को नियंत्रित करने और उनके वादों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने से जुड़ा क़ानून लाए और बिना सोच समझकर अतार्किक वादे करने वाली पार्टियों को बैन करे। उनका कहना है कि मुफ़्त चीज़ों की घोषणा करते वक़्त राजनीतिक पार्टियां सरकार पर पड़ रहे कर्ज़ के बोझ का ध्यान रखें और बताएं कि इसके लिए पैसा किसकी जेब से आ रहा है।

इस बारे में अश्विनी उपाध्याय ने बताया था कि, “हमने कोर्ट से यही कहा है कि इस समय केंद्र और राज्य सरकारों पर 150 लाख करोड़ रुपये का कर्ज़ हो चुका है। अगर इसे नहीं रोका गया तो आने वाले समय में स्थिति बहुत ख़राब हो जाएगी। हमें न विश्व बैंक, न अमेरिका, न जापान कर्ज़ देगा। स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी। केंद्र सरकार ने भी हमारी जनहित याचिका का समर्थन किया है और कहा है कि जन कल्याणकारी योजनाएं तो चलनी चाहिए लेकिन मुफ़्तखोरी की योजनाएं बंद होनी चाहिए। हमने अपनी ओर से सात सदस्यों की एक समिति का प्रस्ताव दिया है। यह समिति बताए कि मुफ़्तखोरी को कैसे रोका जाए और राज्यों पर जो कर्ज़ बढ़ रहा है, उसे कैसे कम किया जाए।”

वहीं, चुनाव आयोग ने भी इस मुद्दे पर कहा था कि जिसे आप सामान्य भाषा में ‘फ्रीबीज़’ यानी मुफ़्त की चीज़ें कह रहे हैं, वे महामारी जैसे दौर में लोगों की जान बचा सकती हैं। हो सकता है एक वर्ग के लिए जो अतार्किक हो वो दूसरे वर्ग के लिए ज़रूरी हो। 

वैसे प्रधानमंत्री मोदी भी ये मुद्दा बार-बार उठा चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक पार्टियों और मुफ़्त में सुविधाएं दिए जाने का ज़िक्र करते हुए कहा, “इस तरह के वादे करके वोटरों को लुभाना राष्ट्र निर्माण नहीं बल्कि राष्ट्र को पीछे धकेलने की कोशिश है।” तब पीएम मोदी ने कहा था कि, “अगर राजनीति में ही स्वार्थ होगा तो कोई भी आकर पेट्रोल-डीज़ल भी मुफ़्त देने की घोषणा कर सकता है। ऐसे क़दम हमारे बच्चों से उनका हक़ छीनेंगे। देश को आत्मनिर्भर बनने से रोकेंगे। ऐसी स्वार्थभरी नीतियों से देश के ईमानदार करदाता का बोझ भी बढ़ता ही जाएगा। ये नीति नहीं ‘अनीति’ है। ये राष्ट्रहित नहीं, ये राष्ट्र का अहित है।”

वहीं, पीएम मोदी ने बुंदेलखंड-एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए उत्तर प्रदेश के जालौन में भी यही कहा था कि, “आजकल हमारे देश में मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। रेवड़ी कल्चर वालों को लगता है कि जनता जनार्दन को मुफ़्त की रेवड़ी बांटकर उन्हें ख़रीद लेंगे। हमें मिलकर रेवड़ी कल्चर को देश की राजनीति से हटाना है।”

यूँ तो भारत में इससे पहले भी सब्सिडी के मुद्दे पर विचार-विमर्श होता रहा है। सब्सिडी के औचित्य आदि पर गंभीर चर्चाएं हुई हैं लेकिन इस मुद्दे पर इस तरह राजनीतिक दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप ने नए सुलगते हुए सवाल खड़े किए हैं। वह यह कि क्या मुफ़्त में चीजें या सेवाएं देना उचित है? क्योंकि राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ़्त में चीज़ें या सुविधाएं देने का वादा हमेशा से करती रही हैं, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या ये किया जाना उचित है?

इस विषय पर राजनीतिक मामलों के जानकार बताते हैं कि जब आप वोट मांगने जाते हैं तो इस तरह की बातें कहनी होती हैं लेकिन इसमें एक फ़र्क है कि सामान्य रूप से ये कहना कि हम सबका ध्यान रखेंगे और स्पेसिफिक रूप से कहना जैसे ’15 लाख आएंगे और हम सबको दे देंगे।’ उन्हें लगता है कि इस तरह स्पेसिफिक वादे करना ग़लत होता है। ये कहना भी ग़लत है कि हम जब आएंगे तो बिजली के बिल में दो या तीन रुपये माफ़ कर देंगे या बिलकुल ही ख़त्म कर देंगे। दरअसल, ये प्रवृत्ति किसी एक दल की नहीं है बल्कि सभी दलों की होती है लेकिन ये प्रवृत्ति रुकनी चाहिए। अगर आप कुछ करना चाह रहे हैं तो उसके लिए भी नियम कानून होने चाहिए कि उसे किस तरह होना चाहिए। इसकी जवाबदेही भी होनी चाहिए।

लेकिन क्या जन कल्याणकारी योजनाओं और हाल ही में सामने आए टर्म ‘मुफ़्त की रेवड़ी’ को एक तरह देखा जा सकता है? इस सवाल पर जानकार बताते हैं कि एक ऐसा समाज जहां आर्थिक और सामाजिक समेत तमाम तरह की विषमताएं हैं, वहां सभी के लिए एक जैसा कदम नहीं उठाया जा सकता। ऐसे में वंचितों और शोषितों का कल्याण करना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन लोकतंत्र में अगर आपका काम बहुसंख्यक समाज को लाभांवित नहीं करेगा तो आप चुनकर नहीं आ सकते। ऐसे में ये कहा जाए है कि हमारी सरकार ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा पहुंचाएगी, यहां तक तो ठीक है लेकिन धीरे-धीरे ये होने लगा है कि जनता से वादे करो और फिर भूल जाओ। ऐसे में पहले जो एक फुंसी थी, उसने अब कैंसर का रूप ले लिया है। इस प्रवृत्ति का नतीजा ये हुआ कि कहा जाने लगा कि हम फ्री बिजली देंगे, पानी देंगे, गैस देंगे, आदि आदि। बताइए कि कोई भी सरकार फ्री बिजली कैसे दे सकती है। आख़िरकार पैसा टैक्सपेयर का है। और फ्री बिजली सबको क्यों मिलनी चाहिए. जो लोग बिजली ख़रीद सकते हैं, उन्हें फ्री में क्यों मिलनी चाहिए।

वहीं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि, “कहा जा रहा है कि अगर सरकारें जनता को फ्री में सुविधाएं देंगी तो सरकारें कंगाल हो जाएंगी। देश के लिए बहुत आफ़त पैदा हो जाएगी। इन सारी फ्री की सुविधाओं को बंद किया जाए। इससे मन में एक शक पैदा होता है कि कहीं केंद्र सरकार की आर्थिक हालत बहुत ज़्यादा खराब तो नहीं हो गयी है। अचानक ऐसा क्या हो गया कि इन सारी चीजों को बंद करने, वापस लेने या इनका विरोध करने की स्थिति आ गई।” 

वहीं, उनका आरोप है कि केंद्र सरकार ने करोड़पति उद्योगपतियों के कर्ज़ माफ़ किए हैं। उन्होंने कहा था कि, “2014 में केंद्र सरकार का बीस लाख करोड़ का बजट होता था। आज केंद्र सरकार का बजट लगभग चालीस लाख करोड़ का है तो ये सारा पैसा जा कहां रहा है। इन्होंने बहुत अमीर लोग जो अरबपति हैं, उनके दस लाख करोड़ रुपये के कर्जे़ माफ कर दिए। अगर ये हज़ारों लाखों करोड़ों रुपये के कर्जे़ माफ़ नहीं किए जाते तो इन्हें खाने-पीने की चीज़ों पर टैक्स लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती।” उल्लेखनीय है कि एक बार कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल का जवाब ट्वीट किया था जिसके अनुसार 2017 से लेकर 2022 के बीच बैंकों ने क़रीब 10 लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ माफ़ किए हैं। तब उनका कहना था कि सरकार मध्यवर्ग के करदाताओं को लूट रही है। इसी का ज़िक्र अरविंद केजरीवाल ने भी किया था जो सही है।

लेकिन सवाल ये उठता है कि सरकारों की किन योजनाओं को ज़रूरी जन-कल्याणकारी योजना कहा जा सकता है और किन्हें ‘फ्रीबीज़’ या मुफ़्त की रेवड़ी की संज्ञा दी जाए। इस बारे में जानकार बताते हैं कि हमारे देश के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसके ज़रिए ये बताया जा सके कि क्या चीज फ्रीबीज़ हैं और क्या नहीं हैं। क्या आप मुफ़्त अनाज बांटने को फ्रीबीज़ कहेंगे। और कहीं किसी राज्य में पहाड़ों पर पानी नहीं पहुंच रहा है और वहां सरकार फ्री में पानी उपलब्ध करवा रही है तो क्या उसे आप फ्रीबीज़ कहेंगे या नहीं। ऐसे में इस पूरे विचार विमर्श में तथ्यों का भारी अभाव है। 

ऐसे में हमारे पास इसे देखने का सिर्फ़ एक ही तरीका है। वह यह कि अब से दस साल पहले तक भारत में तथ्यों के आधार पर चर्चा होती थी जिसमें मेरिट और डिमेरिट सब्सिडी को परिभाषित किया जाता था। तब हमारे पास इसे देखने का यही एक तरीका है जो भारतीय वित्तीय व्यवस्था के अनुरूप है। इस आधार पर फ्री राशन और फ्री शिक्षा मेरिट सब्सिडी है लेकिन अगर किसी छात्र को शिक्षा देना मेरिट सब्सिडी है तो क्या उसे लैपटॉप देना डिमेरिट सब्सिडी है, ये कहना मुश्किल है। 

लेकिन सब्सिडी चाहें मेरिट की श्रेणी में आए अथवा डिमेरिट की श्रेणी में, दोनों सूरतों में टैक्सपेयर का पैसा ख़र्च होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश को कल्याणकारी योजनाओं की ज़रूरत होती है और अगर हां तो इसका देश की आर्थिक स्थिति पर क्या असर पड़ता है। इस सवाल पर जानकार बताते हैं कि अगर ऐसी योजनाएं नहीं होंगी तो वेलफेयर स्टेट के विचार को ही चुनौती मिलेगी। आख़िर सरकारें टैक्स किस लिए लगाती हैं? वे वेलफेयर स्टेट चलाने के लिए टैक्स लगाती हैं। इस तरह के राज्य में एक निश्चित स्तर तक आपको लोगों की मदद करनी होती है जिसके बाद वह पैसा कमाते हैं और खपत की श्रेणी में आ जाते हैं। और ये ज़रूरत हर स्टेट की अलग-अलग होती है। सिक्किम जैसा राज्य जहां पहाड़ आदि हैं, वहां की सरकार को लोगों को कुछ सुविधाएं देनी होंगी जो किसी समृद्ध राज्य में नहीं देनी होंगी।

वे आगे बताते हैं कि अगर ये नहीं होगा तो टैक्स से मिले पैसे का क्या इस्तेमाल होगा। भारत में भारी टैक्स लगाया जाता है। आयकर टैक्स को अलग रख दिया जाए तो भी सरकार को अप्रत्यक्ष कर बहुत मिलता है। ऐसे में ये कहना ग़लत है कि राज्यों के बजट की वजह से ये टैक्स से मिले पैसे की बर्बादी है। समस्या ये है कि हमें ये नहीं पता है कि हमें कौन सा काम करना चाहिए। ये बहस इतनी तथ्यहीन है कि हमारे पास ये जानने का ऐसा कोई तरीका नहीं है कि जो पैसा लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाने में ख़र्च किया जा रहा है, उससे लोगों की जीवनशैली में क्या सुधार हुआ है और उसका क्या असर पड़ा है।

इस बीच वर्ष 2024 के जनवरी महीने में सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी रेवड़ियों का वादा करने की प्रथा को चुनौती देने वाली जनहित याचिकाओं को सूचीबद्ध करने के लिए सहमत हो गया क्योंकि एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पार्डीवाला और मनोज मिश्रा की पीठ से आग्रह किया कि मामलों पर आंशिक रूप से सुनवाई हुई है और इन पर निर्णय लेने की आवश्यकता है। इस पर सीजेआइ ने कहा था कि, “हम इसे देखेंगे।” बता दें कि तत्कालीन सीजेआइ यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने 01 नवंबर, 2022 को कहा था कि जनहित याचिकाओं की सुनवाई तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जा सकती है क्योंकि वकील अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका सहित अन्य याचिकाओं में चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहार देने के वादों का विरोध किया गया है।

बता दें कि भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने जनहित याचिका दाखिल कर मुफ्त रेवड़ियों का मुद्दा उठाया है। साथ ही मुफ्त रेवडि़यां बांटने वाले राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। इसमें पार्टी का चुनाव चिन्ह जब्त करना और उसकी मान्यता खत्म करना शामिल है। तब 03 अगस्त 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका का संज्ञान लेते हुए मुफ्त रेवडि़यों के प्रभाव पर विचार करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित करने के संकेत दिये थे। एक हफ्ते के भीतर सभी संबंधित पक्षों से इस संबंध में सुझाव भी मांगे थे।

वहीं, चुनाव से पहले मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से ‘मुफ्त रेवड़ियों’ की घोषणा पर रोक लगाने के उपाय सुझाने के लिए विशेषज्ञ समिति गठित करने के सुप्रीम कोर्ट के प्रस्ताव का चुनाव आयोग ने स्वागत किया था परंतु आयोग खुद इस समिति का हिस्सा नहीं बनना चाहता था। इस बाबत सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में आयोग ने कहा था कि संवैधानिक संस्था होने के नाते उसका विशेषज्ञ समिति में शामिल होना ठीक नहीं रहेगा, विशेष तौर पर तब जबकि समिति में मंत्रालय या सरकारी संस्थाएं शामिल हों। 

चुनाव आयोग ने हलफनामे में कहा है कि पिछले सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से उसको लेकर की गई मौखिक टिप्पणी से उसकी छवि को भरपाई न होने वाला नुकसान पहुंचा है। आयोग ने आदर्श आचार संहिता के संबंध में दिए गए कोर्ट के आदेश का अक्षरश: पालन किया है। गाइडलाइन तय की हैं जो आदर्श आचार संहिता का हिस्सा हैं। उसमें कहा गया है कि राजनीतिक दल चुनावी वादों की तार्किकता बताएंगे और यह भी बताएंगे कि उन वादों को पूरा करने के लिए धन कहां से आएगा। इसके बावजूद ऐसा पेश किया गया जैसे कि मुफ्त रेवड़ियों के मामले को लेकर आयोग गंभीर नहीं है।

तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस बारे में आए कोर्ट के पूर्व फैसले को नौ वर्ष बीत गए हैं लेकिन चुनाव आयोग ने कुछ नहीं किया। कोर्ट ने सुब्रमण्यम बाला जी बनाम तमिलनाडु मामले में 2013 में दिए फैसले की बात की थी। उस फैसले में कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा था कि वह सभी राजनीतिक दलों से विचार विमर्श कर इस बारे में गाइड लाइन तय करे। इस पर प्रस्तावित विशेषज्ञ समिति से अलग रहने की इच्छा जताने वाले चुनाव आयोग ने भी कहा है कि समिति में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं, नियामक, नीति निर्धारक संस्थाएं, वित्त, बैंकिंग सामाजिक न्याय, राजनीतिक दल आदि के प्रतिनिधि शामिल होंगे। विशेषज्ञ समिति के सुझावों से आयोग को बहुत फायदा होगा और चुनावी प्रक्रिया को स्वच्छ रखने के लिए मौजूदा गाइड लाइन को और मजबूत करने में मदद होगी।

वहीं, आयोग ने अपने हलफनामे में यह भी कहा था कि अभी तक मुफ्त रेवड़ियों की कोई स्पष्ट कानूनी परिभाषा नहीं है। यह तय करना मुश्किल है कि किसे अतार्किक रेवड़ियां कहा जाए और किसे नहीं। इस मुद्दे पर व्यापक ढंग से समग्र विचार किए जाने की जरूरत है। मुफ्त रेवडि़यों का परिस्थितियों के मुताबिक समाज, अर्थव्यवस्था और समानता पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए आपदा या महामारी के समय जीवन रक्षक दवाएं, भोजन, पैसा आदि देना जीवन और आर्थिक मदद के लिए जरूरी हो सकता है लेकिन सामान्य समय में इसे मुफ्त रेवड़ियां कहा जा सकता है।

ऐसे में सुलगता सवाल है कि जब भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को पूर्ण रूप से गणतंत्र भी बन गया। उसके बाद भी निष्पक्ष चुनावी कायदे-कानूनों से जुड़े कतिपय अहम सवालों या समय-समय पर उठने वाले सवालों को अनसुलझा क्यों छोड़ दिया गया? क्योंकि इससे पूरी चुनावी प्रक्रिया कुछ लोग के गिरोह द्वारा प्रभावित कर दी जाती है और वैसे लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी नहीं हो पाती है। खासकर जिस प्रकार से देश में रेवड़ी कल्चर बढ़ गया है, विभिन्न प्रकार के चुनाव जीतने के लिए पार्टियां मुफ्त की सौगातों की बौछार कर रही हैं, उससे समय रहते ही सावधान होने की जरूरत है अन्यथा लोकतंत्र का अहित होना स्वाभाविक है। ऐसे में आजादी क्या होती है, स्वतंत्रता का अभिप्राय क्या होता है और सबके लिए कानून का शासन कैसा और कितना असरकारक होता है, यह बात पीड़ितों के समझ से परे है क्योंकि सत्ता पक्ष कहें या शासक वर्ग, वह ‘पिक एंड चूज़’ कार्रवाई करने का अभ्यस्त है। हालांकि अब इससे उबरने की जरूरत है क्योंकि इसके बिना अमृत काल की परिकल्पना व्यर्थ है। चुनावी रेवड़ी पर नीतिगत निर्णय आखिर कब..?