

करुणा के बदलते चेहरे पर एक कठोर सच। करुणा की नई चाल: इंसानों से डर, जानवरों से प्यार। जब कुत्ता बेटा बना और माँ वृद्धाश्रम गई
हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ पशु-प्रेम को करुणा का शिखर और मानव-ममत्व को बोझ समझा जाने लगा है। कुत्ते के बाल कटाने पर गर्व और माँ के इलाज में अनिच्छा-यह सिर्फ एक व्यक्तिगत प्राथमिकता नहीं, एक सामाजिक मनोवृत्ति बनती जा रही है। यह लेख उसी मानसिक ‘रेबीज’ की पड़ताल करता है, जहाँ प्रेम का मतलब केवल उन प्राणियों से लगाव बन गया है जो हमसे कुछ नहीं मांगते और जिनसे कुछ मांगने की उम्मीद हो, उनसे दूरी ही भली लगती है। यह संवेदना की उलटी उड़ान है जहाँ करुणा पालतू तक सीमित रह गई और इंसान अकेला हो गया।
कभी माँ की गोद सबसे सुरक्षित जगह होती थी और बेटा उसके जीवन का सहारा। लेकिन अब दृश्य बदल गया है — कई घरों में माँ वृद्धाश्रम में है, और बेटे के घर में कुत्ता ‘बेटा’ बनकर मखमली बिस्तर पर सो रहा है। क्या यह करुणा है या संवेदना की विकृति..? आज हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ पशु-प्रेम को मानवीयता का प्रतीक और मानव-ममत्व को बोझ माना जा रहा है। कुत्ते-बिल्लियों के लिए बर्थडे पार्टीज़, स्पा, फैशन कपड़े और केक आम हो गए हैं, लेकिन घर में बुज़ुर्ग माँ के लिए समय, दवा और सहानुभूति दुर्लभ हो गई है।
आज का समाज तेजी से बदल रहा है — तकनीक, सोच, प्राथमिकताएँ और भावनाएँ। लेकिन इस बदलाव की एक अजीब-सी कीमत चुकाई जा रही है: इंसानों से दूरी और जानवरों से करीबी। यह बात तब और चुभती है जब कोई अपने पालतू कुत्ते को “बेटा” कहता है, और उसी सांस में यह स्वीकारता है कि माँ अब वृद्धाश्रम में रह रही है। यह एक भावनात्मक असंतुलन है, जिसे आधुनिकता, स्वतंत्रता और ‘अलग सोच’ का नाम दिया जा रहा है। परंतु इसकी जड़ में मानव संबंधों से बचने की प्रवृत्ति, उत्तरदायित्व से पलायन, और करुणा का दिशाहीन विस्तार छिपा है।
करुणा या सुविधा..?
पालतू जानवरों से प्रेम करना कोई अपराध नहीं। वे भी सजीव हैं, और प्रेम के हकदार हैं। लेकिन जब यह प्रेम मानव संबंधों की उपेक्षा का कारण बनने लगे, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह करुणा है, या सुविधा की भावना? जानवर कुछ नहीं माँगते -न जवाबदेही, न तकरार, न सवाल। शायद यही वजह है कि वे इंसानों को ज्यादा आकर्षित करने लगे हैं। वे “स्नेह देते हैं”, बिना बदले में कोई अपेक्षा किए। जबकि इंसानी रिश्ते-माँ, पिता, भाई, बहन-संवाद चाहते हैं, समझौते की माँग करते हैं, और जीवन की वास्तविकता में भागीदार बनते हैं।
सामाजिक दिखावा बनता पशु-प्रेम
आज पशु प्रेम एक सोशल ट्रेंड बन गया है। कुत्तों के लिए फैशन शो, सालगिरह, जिम और होटल हैं। वहीं दूसरी ओर, कई बुज़ुर्ग माँ-बाप अकेलेपन, उपेक्षा और चिकित्सा अभाव से जूझ रहे हैं। यह पारिवारिक विडंबना नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विघटन है। अक्सर कहा जाता है कि “कुत्ता सबसे वफादार होता है”-यह बात सही है, पर यह भी समझना जरूरी है कि वफादारी का स्थान उन रिश्तों को नहीं देना चाहिए, जिनमें जीवन की नींव रखी गई हो।
मानसिक रेबीज: एक चेतावनी
हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हम अपने ही जैसे इंसानों से डरने लगे हैं -क्योंकि वहाँ टकराव है, जटिलता है, गहराई है। और इसलिए हम उन्हें छोड़कर उन प्राणियों की शरण में जा रहे हैं, जो मौन हैं, सरल हैं और सिर्फ सिर हिलाकर हमारी भावनाओं की पुष्टि कर देते हैं। यह एक तरह का ‘मानसिक रेबीज’ है-एक ऐसी अवस्था जहाँ इंसानों से दूर रहना मानसिक सुरक्षा लगता है, और जानवरों से जुड़ाव सामाजिक प्रतिष्ठा। लेकिन यह दीर्घकालिक रूप से संवेदना के तंतु तोड़ देता है, और एक असामाजिक करुणा का निर्माण करता है – जो भावुक तो है, पर मानवीय नहीं।
कुत्ते वाकई वफादार होते हैं, पर माँ की ममता और इंसान की जरूरतों की बराबरी नहीं कर सकते। अगर हमारी करुणा सिर्फ दुम हिलाने वालों के लिए है, और हमारे जैसे इंसानों के लिए नहीं-तो यह करुणा नहीं, एक खतरनाक भ्रम है। आज जरूरत है ‘प्रेम के संतुलन’ की। जहाँ कुत्ता गोदी में हो, और माँ दिल में। जहाँ पक्षी उड़ें भी, और इंसान जीएं भी।
कुत्ते से प्रेम, इंसान से दूरी..?
कुत्ते वफादार होते हैं, इसमें संदेह नहीं। लेकिन क्या हम वफादारी की इतनी पूजा करने लगे हैं कि इंसान से नाता तोड़ना जायज़ हो गया..? पालतू जानवरों से प्रेम गलत नहीं, लेकिन जब वही प्रेम अपने जैसे इंसानों से दूरी का बहाना बन जाए, तो यह खतरनाक संकेत है। बच्चे की स्कूल फीस भारी लगती है, लेकिन पालतू के कपड़ों पर हजारों रुपये खर्च करना ‘ट्रेंड’ बन गया है। वृद्ध माँ-पिता का इलाज बोझ लगता है, लेकिन कुत्ते के लिए विटामिन सप्लीमेंट ‘ज़िम्मेदारी’।

ये करुणा है, या भावनात्मक पलायन..?
कई लोग पालतू जानवरों में अपनी अधूरी भावनाएं पूरी करते हैं-जिन्हें रिश्तों में प्रेम नहीं मिला, वे कुत्ते को “बेटा”, बिल्ली को “जीवनसाथी” कहने लगे हैं। यह करुणा नहीं, एक भावनात्मक पलायन है, जो इंसानी रिश्तों की जटिलताओं से भागकर एकतरफा, जवाब-रहित प्रेम की तलाश करता है। जानवरों से प्रेम करें, लेकिन इंसानों से मुंह मोड़कर नहीं।
संवेदना का बाज़ारीकरण
आज यह “पालतू प्रेम” एक बाजार बन चुका है-करोड़ों का उद्योग जिसमें पशुओं के लिए जूते, बिस्तर, होटल और ब्यूटी पार्लर हैं। लेकिन गरीब पड़ोसी की मदद के लिए लोग अपना चेहरा फेर लेते हैं। सोशल मीडिया पर घायल पक्षी की तस्वीर डालना ‘कूल’ है, लेकिन किसी भूखे इंसान को खाना देना ‘समस्या’ बन जाता है।
असली करुणा क्या है..?
संवेदना वह है जो भेद न करे। जो कुत्ते को खाना देता है और बुज़ुर्ग माँ को सहारा भी। जो पक्षियों के लिए दाना डालता है और अनाथ बच्चे के लिए किताब भी। अगर हम करुणा को केवल “जानवरों के प्रति प्रेम” तक सीमित कर देंगे, तो हम अपने ही समाज की जड़ों को काट रहे होंगे।
कुत्ते वाकई वफादार होते हैं, पर माँ की ममता और इंसान की जरूरतों की बराबरी नहीं कर सकते। अगर हमारी करुणा सिर्फ दुम हिलाने वालों के लिए है, और हमारे जैसे इंसानों के लिए नहीं-तो यह करुणा नहीं, एक खतरनाक भ्रम है। आज जरूरत है ‘प्रेम के संतुलन’ की। जहाँ कुत्ता गोदी में हो, और माँ दिल में। जहाँ पक्षी उड़ें भी, और इंसान जीएं भी। जब कुत्ता बेटा बना और माँ वृद्धाश्रम गई