टिलता के ऊबड़ खाबड़ और लम्बे रास्ते से
सरपट भागा जा रहा हूँ मैं।
मेरे चारों ओर उन युवाओं की लाशें कराह रही हैं
जो अपनी आशा के पौधों को बृक्ष होने के पहले ही
इस मिट्टी में कुचलते हुए देख
घायल होसलों और अधजले आत्मविश्वास पर
सढ़े-गले घावों को लेकर फिर एक बीज की तलाश में
मिट्टी पर अपनी बिखरी हस्ती फिर से बंटोरने
सड़क दर सड़क भटकते हुए
रोज पूंजीवादी व राजनीति के पहियों तले आ जाते हैं।
मैं रूक जाता हूँ और तभी कोई चुपके से आकर
मेरे कानों में कह जाता है—
हमें स्वतंत्रता मिल गई है ना !!
मैं वहां से भागता हूँ…..
कुछ दूरी पर मेरे ही सामने
मंदिर के आगे बाढ़ और मस्जिद के अंदर भूकम्प आ जाता है ।
आकाश का रंग अचानक नीले से काला
और फिर धीरे-धीरे पीला बन जाता है ।
दशों दिशाओं में मानवता को कुचलकर
भाई-भाई के लाल रंग से सने झंडे
बारुदनुमा गंध लेकर उग आते हैं और
बच्चों , बूढों व अवलाओं की चीख
ग्रामोफोन की तरह बजने लगता है ;
जगह दर जगह कर्फ्यू छाने लगता है,
आँसू गैस बरसने लगता है ;
मैं सहम जाता हूँ, डर जाता हूँ ,
आँखें बन्द कर जी जान से चीखने लगता हूँ…।
मेरे पैरों तले की मिट्टी थर-थर काँप जाती है,
मेरा अन्तरमन रो पड़ता है ,तभी कोई चुपके से आकर
मेरे कानों में कह जाता है–
हमें स्वतंत्रता मिल गई है ना !!
मैं फिर वहां से सरपट भागता हूँ..
सहसा मेरे पैरों को दो भूखे नंगे हाथों से
चिथड़ों में लिपटी स्वतंत्रता का गीत गाती हुई
किसी ने पकड़ लेती है—-बाबूजी, दो दिनों से भूखी हूँ….;
सचमूच, ना यह गरीबी हटी और ना ही गरीब !
फुटपाथ के उसपार मनुष्य और कुत्तों में
छीनाझपटी हो रही है ….
कुत्तें मनुष्य को नोच रहे हैं अपने पंजों से
फिर भी लहुलुहान मनुष्य
डष्टविनों से निकली जूठी पत्तलों को
पहले से भी अधिक जोर से जकड़ कर
भाग निकलने में सफल हो जाता है ।
मैं सहम जाता हूँ, मेरी आँखें गीली हो जाती हैं
और तभी किसीने मेरी पीठ थपथपाकर
कानों में कह जाता है—
हमें स्वतंत्रता मिल गई है ना ?
मैं अंधेरे में उसे देख नहीं पाता
पर महसूस करता हूँ…..
शायद हमें स्वतंत्रता मिल गई है…..।
(यह रचना मौलिक है।)