हम सभी का गांव

34
हम सभी का गांव
हम सभी का गांव

डॉ. नीरज भारद्वाज

बालक के शारीरिक-मानसिक विकास में घर, समाज, विद्यालय आदि सभी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बालक ही युवा बनकर देश का भाग्य बदलते हैं। परिवार बच्चे के  सद्गुणों की पाठशाला है तो विद्यालय-महाविद्यालय-विश्वविद्यालय संस्कृति और संस्कार के मंदिर हैं। हमें बचपन में विद्यालयी परीक्षा में कहानी या कविता पर प्रश्न पूछे ही जाते थे, साथ ही लेखक या कवि परिचय भी जरूर याद कराया जाता था। बालक बुद्धि में बहुत से प्रश्न उठते लेकिन कुछ के उत्तर मिल जाते और कुछ के नहीं मिलते। खेल-कूदकर अगले दिन की फिर शुरूआत हो जाती थी। जब विश्वविद्यालय में आए और साहित्य से नजदीक का रिश्ता बना तो पता चला कि देश के बालकों को लेखक या साहित्यकार का परिचय पढ़ना कितना आवश्यक है।विश्वविद्यालय में ही मेरी वर्तमान हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और स्तंभकार आदरणीय डॉ. वेदप्रकाश जी से भेंट हुई। इनसे साहित्य-समाज-संस्कृति को लेकर चिंतन हुआ, जो आज भी निरंतर जारी है। हम सभी का गांव

साहित्य की इसी खोज में देश के पूर्व शिक्षामंत्री और सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी से भी मिलना हुआ। इनकी सरलता, सहजता और आत्मीयता ने तो अपना ही बना लिया। एक साहित्यकार की संवेदना कितनी गहरी होती है, किसी साहित्यकार से मिलने के बाद ही पता चलती है। निशंक जी के साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने के साथ। इनके साहित्य पर चर्चा करने का अवसर मिला। साहित्य की इन महान विभूतियों से मिलने से पता चला कि साहित्य का रास्ता इतना सरल नहीं है। लेखक का चिंतन बहुत बड़ा होता है।

जब हम स्वतंत्रता से पूर्व के लेखकों का परिचय पढ़ते-जानते-समझते हैं तो पता चलता है कि इन साहित्य सेवियों ने कितने ही संघर्षों को सहन किया है। देखा-समझा जाए तो स्वतंत्रता की एक मशाल इन्हीं के हाथ में थी। कोई नाम बदलकर लिखता रहा तो कोई अपनी पहचान छिपाकर लिखता रहा। किसी ने स्वयं से पत्रिका चलाने का कार्य किया तो किसी ने पाक्षिक, मासिक समाचारपत्र चलाने का काम किया। कोई लाभ कमाने के लिए नहीं, केवल सच्ची मानव और साहित्य सेवा के लिए यह कार्य किया। यह महान विभूतियाँ स्वयं में ही एक संस्था रहे। ये महान विभूतियाँ लेखक-पत्रकार-संपादक आदि सभी गुणों से संपन्न रहे। अंग्रेजी शासन के कठोर नियमों के कारण जेलों में आना-जाना इन लेखकों के लिए सामान्य सी बात हो गई थी। यह सभी स्वतंत्रता सैनानी रहे। कलम के सच्चे सेवक यह लेखक, साहित्य सेवी, पत्रकार ना रूके, ना ही थके और देश के लोगों में अपनी कलम तथा विचार शक्ति से संचार और ऊर्जा भरते रहे।

लेखकों का उत्साह स्वतंत्रता के बाद भी बराबर बढ़ता रहा है। लेखक अपनी गति से लिख भी रहे हैं, समाज को रोशनी भी दिखा रहे हैं। लेकिन स्वतंत्रता के बाद लेखन के स्वरूप में बहुत बड़ा परिवर्तन भी हुआ है। विदेशीपन की छाप भारतीय साहित्य का अंग बन गया है। विदेशी समाज और उसका खुलापन लिखना मानों लेखकों ने अपना कार्य मान लिया है। यह बात सभी पर लागू नहीं होती पर ऐसा भी हो रहा है। सेवा से चलने वाला यह कार्य कब व्यापर की दृष्टि में चला गया, यह सोचने की बात है। बहुत से साहित्यकार, लेखक, पत्रकार आज भी सच्ची साहित्य सेवा के साथ काम कर रहे हैं, लेकिन कई बार परिस्थितियों के वशीभूत वह अपने लेखन का प्रकाशन और आर्थिक कमजोरी के कारण किसी मंच तक नहीं पहुंच पाते हैं। यह सोचने-विचारने की बात है।

देश में लेखकों की स्थिति, सेवा, कार्य को देखते हुए, देश के पूर्व शिक्षामंत्री और हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी ने देहरादून में एक लेखक गांव बनाने का संकल्प लिया, जो आज पूरा होने जा रहा है। यह लेखक गांव देश ही नहीं पूरे विश्व में सबसे अनूठा उदाहरण होगा। इस लेखक गांव में किसी भी भाषा-भाषी, देसी-विदेशी लेखकों के रहने-सहने, खाने-पीने की व्यवस्था का पूरा ख्याल रखा जायेगा। लेखकों के कार्य को प्रकाशित करवाया जायेगा। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साहित्यकारों की बात को रखा जायेगा। लेखक गांव अपने आप में मील का पत्थर साबित होगा। लेखक गांव साहित्य-संस्कृति-कला का संगम बनेगा। लेखक गांव यह आपका गांव, मेरा गांव हम सभी का गांव होगा। गांव व्यक्ति के चरित्र का दर्पण है तो यह लेखक गांव विश्व के चरित्र का दर्पण बनेगा और वैश्विक विचारों को वैश्विक मंच प्रदान करेगा। हम सभी का गांव