तंत्र-मंत्र और चंद्रयान: दो ध्रुवों पर खड़ा भारत

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तंत्र-मंत्र और चंद्रयान: दो ध्रुवों पर खड़ा भारत
तंत्र-मंत्र और चंद्रयान: दो ध्रुवों पर खड़ा भारत
अवनीश कुमार गुप्ता
अवनीश कुमार गुप्ता

भारत “तंत्र-मंत्र” और “चंद्रयान” जैसे दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़ा है, यह एक विरोधाभासी स्थिति है। एक तरफ, देश में वैज्ञानिक प्रगति, विशेष रूप से चंद्रयान जैसे अंतरिक्ष मिशनों में, तेजी से बढ़ रही है, वहीं दूसरी तरफ, अंधविश्वास और “तंत्र-मंत्र” जैसी प्रथाओं का भी प्रचलन है। यह स्थिति भारत की आधुनिकता और पारंपरिक मान्यताओं के बीच के संघर्ष को दर्शाती है।वही क्षण था जब चंद्रयान‑3 ने चाँद की सतह पर भारत का झण्डा स्थापित कर विज्ञान की नई ऊँचाइयों को छू लिया, लेकिन उसी समय भारत के ही एक गाँव में, कुछ लोगों ने एक परिवार के पाँच सदस्यों को “डायन” कहकर जिंदा जला दिया। यह दो घटनाएं किसी कल्पना की उपज नहीं, बल्कि हमारे समय और समाज की दो परस्पर विरोधी सच्चाइयों का आईना हैं। एक ओर अंतरिक्ष में विजय, दूसरी ओर अंधविश्वास की भट्टी में झुलसती मानवता। तंत्र-मंत्र और चंद्रयान: दो ध्रुवों पर खड़ा भारत

बिहार के पूर्णिया जिले के टेटगामा गाँव में तीन महिलाओं और दो पुरुषों को “डायन” बताकर पीटा गया और पेट्रोल छिड़ककर जिंदा जला दिया गया। इस अमानवीय कृत्य में लगभग 150 लोगों की भीड़ शामिल थी। यह केवल एक हत्या नहीं, बल्कि उस तार्किक चेतना की हार थी जो हमारी संस्कृति और संविधान दोनों में प्रतिष्ठित है। यह घटना केवल एक गाँव या राज्य की समस्या नहीं, यह उस सोच का परिणाम है जहाँ विज्ञान का दीपक जलाए बिना ही हम आधुनिक बनने का भ्रम पालते हैं।

रिपोर्टों के अनुसार, 2000 से 2016 तक बिहार में 2,500 से अधिक डायन-हत्या की घटनाएँ हो चुकी हैं। यह आँकड़ा केवल आँकड़ा नहीं, बल्कि एक सवाल है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं? क्या तकनीक की प्रगति का लाभ केवल चंद महानगरों और उच्च वर्ग तक ही सीमित रहेगा? क्या गाँवों तक वैज्ञानिक सोच, संवेदनशीलता और मानवाधिकारों की चेतना पहुँची है? या फिर आधुनिकता केवल मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा तक सिमट गई है?

यह घटना न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि संविधान और कानून की विफलता भी है। जब पूरा गाँव एक अमानवीय कृत्य में शामिल हो, और पुलिस-प्रशासन निष्क्रिय बना रहे, तो सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र के स्तंभ क्या केवल चुनावों और भाषणों तक सीमित रह गए हैं? पुलिस की निष्क्रियता और प्रशासन की उदासीनता इस पूरे तंत्र पर एक गहरी चोट है, जो यह दिखाती है कि संवैधानिक ढाँचे के भीतर भी बहुत सी दरारें हैं, जिन्हें भरने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं, पूरे समाज की है।

हमारे पूर्वजों की परंपरा में तर्क, विज्ञान और विवेक का बहुत महत्त्व था। आर्यभट, वराहमिहिर, चरक, सुश्रुत जैसे नाम केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि भारतीय बौद्धिक परंपरा की नींव थे। लेकिन क्या आज उनके विचारों की छाया हमारे गाँवों और कस्बों तक पहुँची है? यदि किसी महिला के बीमार हो जाने पर भी उसका इलाज अस्पताल में कराने की बजाय उसे डायन कहकर जलाया जाता है, तो इसका मतलब है कि हमारा समाज अतीत के किसी अंधेरे कुएं में जा गिरा है।

मीडिया की भूमिका भी इस पूरे विमर्श में संदिग्ध है। आज की मीडिया सिर्फ सनसनी पर केंद्रित है। घटना की संवेदनशीलता को समझने के बजाय वे इसे टीआरपी की दौड़ में बदल देते हैं। क्या कोई समाचार संस्था यह बताती है कि इस तरह की घटनाएँ क्यों हो रही हैं? क्या वे समाज को इस ओर मोड़ने का प्रयास कर रहे हैं कि अंधविश्वास, अज्ञानता और पाखंड का समूल नाश हो? नहीं। वे केवल क्लिप बनाते हैं, भावनाओं को भड़काते हैं, पर कोई वैचारिक आंदोलन नहीं चलाते।

ऐसी घटनाओं में भीड़तंत्र को तो जिम्मेदार ठहराया ही जाना चाहिए, लेकिन उससे भी अधिक ज़िम्मेदार हैं वे संस्थाएँ जो समाज को दिशा देने के लिए बनी हैं—शिक्षा संस्थान, धार्मिक संगठन, पंचायतें और प्रशासनिक तंत्र। अगर इन सबकी चुप्पी किसी एक क्रिया को संभव बनाती है, तो वह केवल सह-अपराध नहीं, बल्कि मानसिक अपराध भी है। संवैधानिक जिम्मेदारी का अर्थ केवल कुर्सी पर बैठना नहीं, बल्कि समाज को विवेक की ओर ले जाना भी है।

गाँवों में वैज्ञानिक चेतना के लिए हमें केवल विद्यालय नहीं, बल्कि सामाजिक संवाद और व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा। स्कूलों में विज्ञान पढ़ाने के साथ-साथ पुस्तकालय, विज्ञान क्लब, नाट्य दल और लोकगीतों में तर्क के तत्वों का समावेश करना होगा। जब तक हम तर्क को लोक जीवन में उतार नहीं देते, तब तक केवल पाठ्यक्रम से कोई बदलाव नहीं आएगा।

डायन हत्या जैसी घटनाओं में जवाबदेही तय करना आवश्यक है। केवल गिरफ्तारियाँ और मुकदमे नहीं, बल्कि संबंधित अधिकारियों की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। थाना प्रभारी, ग्राम प्रधान, पंचायत सदस्य और क्षेत्रीय पुलिस को इस बात का उत्तर देना चाहिए कि जब 150 लोगों की भीड़ किसी को जलाती है, तो वे उस समय कहाँ थे? क्या समाज में केवल भीड़ की सुनवाई होगी, या न्याय की आवाज़ भी सुनी जाएगी?

मीडिया, प्रशासन और न्यायपालिका को मिलकर एक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए। टीवी चैनल केवल सास-बहू के ड्रामे दिखाने के बजाय “डायन प्रथा खत्म करो” जैसे अभियान को प्राथमिकता दें। पंचायतों में हर महीने तर्क आधारित संवाद हों। स्कूलों में छात्रों को केवल परीक्षा की तैयारी नहीं, सामाजिक चेतना का पाठ पढ़ाया जाए। डॉक्टरों, शिक्षकों और धार्मिक नेताओं को मिलकर ग्रामीणों के बीच यह सन्देश फैलाना चाहिए कि कोई भी बीमारी डायन नहीं, बल्कि एक चिकित्सीय स्थिति होती है।

सनातन परंपरा का मूल तत्व ही है करुणा, विवेक और ज्ञान। हमारे मंदिर, गुरुकुल और धार्मिक संस्थान यदि केवल चंदा इकट्ठा करने और सामाजिक प्रभाव बनाने का केंद्र बन जाएँ, तो वह अपने वास्तविक उद्देश्य से भटक जाते हैं। धर्म का कार्य भय फैलाना नहीं, बल्कि विवेक पैदा करना है। यदि समाज में धर्म के नाम पर ही हिंसा होती है, तो वह धर्म नहीं, अधर्म है। हमें सनातन के उन मूल्यों की पुनः स्थापना करनी होगी जो हर जीव में आत्मा का दर्शन कराते हैं, न कि उसे जला देते हैं।

जब चंद्रयान‑3 भारत की तकनीकी क्षमता का प्रतीक बनकर चाँद पर उतरता है, तो उसके साथ भारत की आत्मा भी आसमान छूने की आकांक्षा करती है। लेकिन जब किसी गाँव में एक महिला को डायन कहकर जिंदा जलाया जाता है, तो वह आत्मा चीत्कार करती है। यह हमारे समय का सबसे बड़ा विरोधाभास है—एक ओर विज्ञान, दूसरी ओर अंधविश्वास; एक ओर अंतरिक्ष में सफलता, दूसरी ओर सामाजिक अधपतन।

यह लेख केवल आलोचना नहीं, चेतावनी भी है। भारत का भविष्य तभी सुरक्षित होगा जब विज्ञान और विवेक का उजाला हर गाँव, हर घर और हर मन में पहुँचेगा। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” केवल श्लोक नहीं, एक सामाजिक अभियान होना चाहिए—अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, हिंसा से करुणा की ओर और भीड़ से विचार की ओर। तभी हम सच्चे अर्थों में एक समृद्ध, विवेकशील और मानवता-सम्मत भारत बना सकेंगे। तंत्र-मंत्र और चंद्रयान: दो ध्रुवों पर खड़ा भारत