एक घर था कभी, जहाँ हँसी भी गूंजती थी, आज वहीं शून्य की चीत्कार सुनाई देती है। सात सन्नाटे, एक संसार
सात देहें, सात कहानियाँ, सात मौन प्रश्न, और हम सब — अब भी चुप हैं… केवल देखते हैं।
कहते हैं — “क्यों नहीं बताया?” पर क्या कभी हमने पूछा था — “कैसे हो?”
कभी चाय पर बैठकर पूछा होता, तो शायद ज़हर के प्याले तक बात न जाती।
प्रवीण मित्तल और उसका संसार, अब सिर्फ़ अख़बार की एक खबर है।
पर उसकी तकलीफ़… कई दरवाज़ों के पीछे आज भी साँस ले रही है।
क्या हमारे रिश्ते इतने खोखले हो गए हैं, कि दुख बांटना बोझ लगने लगे?
क्या हर आत्महत्या से पहले, हम सब थोड़े-थोड़े हत्यारे नहीं बन जाते?
रिश्ते सिर्फ़ मौकों पर नहीं, मुसीबतों में आज़माए जाते हैं।
और अगर कोई चुपचाप मर गया, तो यक़ीन मानिए — हमने उसे जीने नहीं दिया।
हर पड़ोसी, हर भाई, हर मित्र, आज खुद से पूछे —
क्या मैंने किसी टूटते व्यक्ति को थामने की कोशिश की थी?
या मैं भी उन्हीं में था जो कहते हैं — “उसने क्यों नहीं बताया?”
अब पछतावे की आग में जलने से बेहतर है,
कि आज से हम किसी एक भूखे चेहरे पर,मुस्कान बाँटें, किसी एक थके मन को सहारा दें।
क्योंकि एक छोटा-सा सहारा, कभी-कभी मौत की ओर बढ़ते कदम को ।
ज़िंदगी की ओर मोड़ देता है। तो आइए,
सिर्फ़ अफ़सोस न करें, इंसानियत को ज़िंदा करें। सात सन्नाटे, एक संसार
– डॉ.सत्यवान सौरभ