राजनारायण पुण्यतिथि विषेश
पुरानी कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। इसे अकेले जिस व्यक्ति ने झुठला दिया उसका नाम था-राजनारायण, जिन्हें उनके मित्र और प्रशंसक ‘‘नेता जी’’ संबोधन देते थे। स्वतंत्रता के बाद से केन्द्र में निर्बाध चली आ रही कांग्रेस की सत्ता की उन्होंने पहले चूलें हिदा दी और फिर उसे केन्द्र से बेदखल कराने में भी प्रमुख भूमिका निभाई। गांधी जी के बाद आजाद भारत में शायद वहीं ऐसे सत्याग्रही थे, जो बार-बार जेल जाते रहे। वे जन्मजात विद्रोही थे। सुरक्षित सीमाओं के भीतर भी वही अकेले घुसकर हड़कम्प मचा सकते थे।
अक्खड़, फक्कड़, बेलौस ऐसा ही कुछ उनका संश्लिष्ट व्यक्तित्व था। नरम-गरम, मित्र के मित्र किन्तु मित्र को शत्रु बना देने पर भी शत्रुता का भाव नहीं रखना, ऐसा उनका स्वभाव था। जहां अन्याय होता दिखें वहां विरोध का झंडा उठा लेना, जिस बात को सही समझा उसके लिए मान अपमान या आलोचना की चिन्ता किए बिना अड़ जाना उनके चरित्र की विशेषता थी। विरोध कैसे और कहां करना है, इसकी शैली और स्थान का चयन वे स्वयं करते थे। अपनी बात जोरदार ढंग से रखते थे। जिस पर विश्वास किया उसके प्रति निष्ठावान राजनारायण का जब विश्वास टूटा या मोहभंग हुआ तो वे उसके निर्मम विरोधी बन जाते थे। वे छात्रजीवन में कांग्रेस से जुड़े थे।
1942 के आंदोलन में उन्होंने अपने मित्र श्री प्रभुनारायण के साथ क्रांतिकारी भूमिका निभाई। फिर कांग्रेस का विरोध किया तो उत्तर प्रदेश और केन्द्र में उसे सत्ताच्युत करके भी दिखा दिया। चौधरी चरण सिंह और मोरार जी देसाई से मोहभंग हुआ तो उनको नाको चने चबवाने में कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस बात पर कि वे नायक थे या खलनायक, राजनीति के नए पुरोधा थे या विदूषक, उनके जीते जी काफी कुछ कहा लिखा जाता था।
मृत्यु के उपरान्त भी उनका मूल्यांकन सकारात्मक ढंग से नहीं हो पाया है। यथास्थिति से उन्हें खीझ होती थी और नई मूर्ति गढ़ने और पसंद न आने पर उसे तोड़ डालने में जरा भी झिझक नहीं होती थीं। उनको विरोध शैली, जीवन शैली और भाषण शैली सब अपने समय के राजनेताओं से अलग थी। किन्तु उनका विरोध के लिए विरोध नहीं होता था उसके पीछे जनहित व राष्ट्रहित के भाव और पुरानी तथा आयातित ब्रिटिश संसदीय परम्पराओं से निजात पाने की इच्छा भी थी।
बहुत कम लोग यह जानते थे कि विरोधी दल के नेता की हैसियत से लोकलेखा समिति का अध्यक्ष पद विरोध पक्ष के नेता को देने की प्रथा उन्होंने शुरू कराई। विधानसभा का उपाध्यक्ष पद विरोधी दल को मिले और स्पीकर की रूलिंग के प्रति सदस्य अपनी असहमति व्यक्त कर सकता है। इसको भी उन्होंने ही मान्यता दिलाई थी। राज्यसभा में उन्होंने बहस में तमाम राष्ट्रीय मुद्दे उठाकर जीवंत बनाया। लेकिन लोगों को राजनारायण जी का सदन के वेल में चले जाना, स्पीकर की बात न मानना, मार्शल द्वारा विधान सभा के अन्दर से बाहर उठाकर ले जाना यही सब याद आता है।
दरअसल, जब कांग्रेस के बहुमत के चलते उनकी बात नहीं सुनी जाती थी तो जनहित के मुद्दे को धार देने के लिए वे सभी नियम कायदे और अनुशासन का बंधन तोड़ देने को विवश हो जाते थे। वे अभिजात्य या यथास्थिति वाली संसदीय परम्पराएं तोड़ने में हिचकते नहीं थे। यह राजनारायण जी ही थे जिन्होंने मंत्रियों के सार्वजनिक व्यवहार की निन्दा की नई परम्परा शुरू की क्योंकि पूरे मंत्रिमण्डल के विरूद्ध तो अविश्वास प्रस्ताव का प्राविधान है।
राजनारायण, महात्मा गांधी और महामना पं0 मदन मोहन मालवीय से शुरू में बहुत प्रभावित थे। बाद में जब डा0 राम मनोहर लोहिया के सम्पर्क में आए तो उनके ही होकर रह गए। डा0 लोहिया के प्रति उनकी निष्ठा जीवन भर अडिग रही। डा0 साहब के जीवनकाल में ही राजनारायण को उनके चिंतन के ‘‘कर्म’’ पक्ष का प्रतीक मान लिया गया था। कहते हैं डा0 लोहिया के सिद्धान्तों के व्याख्याता मधुलिमये थे और उनकी संघर्षशीलता के प्रतीक राजनारायण बन गये थे। डा0 लोहिया की हर बात राजनारायण के लिए वेदवाक्य थी। डा0 लोहिया ने देश को गैर कांग्रेसवाद का जो मंत्र दिया था उसे साधने और पूरा करने का काम राजनारायण ने किया।
1967 में उत्तर प्रदेश में संविद सरकार की स्थापना कांग्रेस को सत्ताच्युत करके हुई थी। 1971 में जब इंदिरा गांधी का सूरज तप रहा था तब उनके मुकाबले राजनारायण ने ताल ठोंकी। राजनारायण ने उनके चुनाव की वैधता को चुनौती दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने उनकी याचिका पर 12 जून, 1975 को निर्णय देते हुए श्रीमती गांधी को सत्ता के दुरूपयोग का दोषी पाते हुए उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। श्रीमती गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द हो गई। जब राजनारायण जी चुनाव याचिका दाखिल करने जा रहे थे तो उनके लगभग सभी मित्रों ने इसे व्यर्थ का प्रयास बताया था। किन्तु राजनारायण ने अकेले ही सत्ता केन्द्र को चुनौती दे दी थी।
बाद के घटनाक्रम में इस्तीफा न देकर देश में 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा के साथ श्रीमती इंदिरा गांधी ने जय प्रकाश नारायण, मोरार जी देसाई सहित सभी प्रमुख नेताओं को जेल में डाल दिया। देशभर में 30,000 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गये। मीसा सहित कई दमनकारी कानूनों ने जनता का आजादी छीन ली। लिखने बोलने का आजादी पर सेंसर लगा दिया गया। इसी दौर में संजय गांधी का उदय हुआ और गैर अवैधानिक सत्ता केन्द्र के कामों ने जनता में अंदर ही अंदर रोषभवना पैदा कर दी। दिसम्बर, 76 में श्रीमती गांधी ने लोकसभा के चुनाव कराने की घोषणा की।
उन्हें विश्वास दिलाया गया था कि देश में उनके पक्ष में हवा बह रही है। जेपी, मोरारजी, चरण सिंह आदि नेता बाहर आ गये थे। जेपी ने आपातकाल की यातना भोगे नेताओं को एक मंच पर लाने की पहल की। जनता पार्टी बनी। तब तक जगजीवनराम और हेमवती नन्दन बहुगुणा भी कांग्रेस छोड़कर इसमें शामिल हो गए। 1977 में राजनारायण फिर रायबरेली में इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रत्याशी बने। अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस उत्तर भारत में बुरी तरह पराजित हुई, स्वयं श्रीमती गांधी और संजय गांधी भी चुनाव हार गए। राजनारायण का हर जगह हीरों जैसा स्वागत हुआ।
डा0 लोहिया का निधन 12 अक्टूबर, 1967 को हो गया। राजनारायण नेतृत्व विहीन हो गए। उन्होंने इसके बाद मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह का दामन थामा किन्तु वे उनके प्रति ऐसी आस्था एवं निष्ठा नहीं रख सके जैसी डा0 लोहिया के प्रति थी। फिर इन दोनों ने भी राजनारायण की सेवाओं का वह प्रतिदान नहीं दिया जिसकी उन्हें अपेक्षा थी। उन्हें स्वास्थ्य मंत्री पर से मोरारजी ने हटाया गया तो चौधरी साहब उनके बगैर पुनः मंत्रिमण्डल में वापस हो गये थे। धीरे-धीरे हताशा और आक्रोश के वे शिकार होते गए। अपनी गढ़ी मूर्तियां तोड़ते तोड़ते वे स्वयं टूट गए। उनके पुराने साथी उनसे अलग हो गए।
समाजवादी आंदोलन क्षतविक्षत होकर विखर गया था। उसे फिर जोडने की उनकी अंतिम अभिलाषा भी अधूरी रह गई जिस अस्पताल में (दिल्ली का विलिंगटन अस्पताल, जिसका नामकरण उन्हांेने डा0 राम मनोहर लोहिया अस्पताल कर दिया था) उनके प्रेरणा पुरूष डा0 लोहिया ने अंतिम सांस ली थी। वहीं राजनारायण की भी इहलीला समाप्त हो गई। 31 दिसम्बर, 1986 को एक तूफानी जीवन पूरी तरह शांत हो गया। नए वर्ष के पहले दिन 01 जनवरी को उनको वाराणसी ने अंतिम विदा दे दी।