देवी उपासना के उल्लासधर्मा उत्सव चल रहे हैं। यह प्रकृति की आराधना है। प्रकृति मां है। हम सब इसी के अंश हैं, इसी में पलते हैं। प्रकृति गर्भ से अरबों जीव आ चुके। प्रतिपल आ रहे हैं। सतत् अविरल। पुनर्नवा। फूल, फल वनस्पति, प्राणी। प्रश्न उठते हैं कि बार-बार क्यों होता है ऐसा सृजन…? वैसी ही नन्ही चिड़िया, गाय का निर्दोष बछड़ा। निष्कलुष, अनासक्त, लोभ मुक्त शिशु। जीवन अद्वितीय है। मां का ही प्रसाद है। प्रकृति सृजनरत है। यह संभवतः कोई गीत रच रही है – अनंत काल से। अपूर्ण गीत को फिर-फिर संशोधित करती है। छन्दबद्ध करती है। लय देती है। प्रकृति लालित्य रस से भरीपूरी है। सृजन रहस्यपूर्ण है “ऊधो कहि न जाय का कहिए/देखत अति विचित्र रचना यह समुझि मनै मन रहिए। यह जीर्ण शीर्ण को निरस्त करती है बार-बार। फिर नूतन प्रवाह और बार-बार सृजन।
प्रकृति माता है। हम सबको सींचती है प्रतिपल। वनस्पतियां आकर्षित करती हैं। वे हमारी प्राण ऊर्जा की पूरक हैं। कीट पतिंग विविध परिधान में घूमते हैं। प्रकृति दशों दिशाओं से अनुग्रह की वर्षा करती है। हमारा अनुगृहीत भाव स्वाभाविक है। यहां समूची प्रकृति के प्रति धन्यवाद भाव है। वह हमारी माता है। दिव्यता के कारण देवी है। जननी होने के कारण माता है। यह जीवन प्रकृति का ही उपहार है। प्रकृति का पोषण, संवर्द्धन मां की ही सेवा है। व्रत आदि आस्था के विषय हैं। मुख्य बात है – प्रकृति में मां देखने की अनुभूति। यह अनुभूति ‘सर्वभूतेषु मातृरूपेण’ प्रतीति है।
प्रकृति स्वयंभू है, सदा से है। सभी रूप प्रकृति के ही रूप हैं। प्रकृति को मां देखते ही हमारी जीवनदृष्टि बदल जाती है। हम अपनी सुविधा के लिए उन्हें अनेक नाम देते हैं। दुर्गा, काली, सरस्वती, शाकम्भरी, महामेधा, कल्याणी, वैष्णवी, पार्वती आदि आदि। नाम स्मरण आंतरिक बोध में भी सहायक हैं। मूलभाव है – मां। या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता, नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमो नमः। प्रकृति को दिव्य मां देखना अंधविश्वास का प्रश्न नहीं। प्रकृति अखण्ड इकाई है। इस अखण्ड इकाई का नाम क्या रखें? नाम रखते ही रूप का ध्यान आता है। रूप की सीमा है। प्रकृति अनंत है। असीम और अव्याख्येय। इसे मां कहने में आह्लाद है।
प्रकृति स्वयंभू है, सनातन है, शाश्वत है, मनुष्य स्वयं इस विहंगम प्रकृति का अंग है। प्रकृति सम्मत विकास ही मानव संस्कृति है। हमने शायद इस शाश्वत सत्य को भुला दिया है, जिसके परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पर्यावरण और प्रकृति के ह्रास से सामाजिक विकृतियां जन्म लेती हैं।
सम्प्रति भारत का मन भावप्रवण है। भावप्रवण चित्त में ही शिवसंकल्प उगते हैं। दुनिया का सारा सुन्दर भावप्रवण लोगों ने गढ़ा है। सुन्दर काव्य या सुन्दर ऊक्त-सूक्त। कला सहित सारे सृजन। प्रकृति प्रत्यक्ष भाव बोध में माता है। माता देवी है। देवी माता है। देवी उपासना मां और संतान के अविभाज्य और अनिवर्चनीय प्रेम का चरम है। दुर्गा सप्तशती में भी यही अनुभूति है। यह मां सर्वभूतेषु उपस्थित है। मां मां है। मां न स्त्री है और न पुरूष। वह देवी है, दिव्य है, देवता है। प्रणम्य है। मां उपासना वैदिक काल से भी प्राचीन है। ऋग्वेद में पृथ्वी माता हैं ही। इडा, सरस्वती और मही भी माता हैं, ये तीन देवियां कही गयी हैं – इडा, सरस्वती, मही तिस्रो देवीर्मयो भुव।” (1.13.9) एक मंत्र (3.4.8) में ”भारती को भारतीभिः कहकर बुलाया गया है-आ भारती भारतीभिः।”
मां हरेक क्षण स्तुत्य है। दुख और विषाद में मां आश्वस्तिदायी है तो प्रसन्नता और आह्लाद में भी मां की उपस्थिति जरूरी है। इसलिए ‘भारती’ को नेह-न्योता है। भारतीभिः भरतजनों की इष्टदेवी हैं। ऋग्वेद में ऊषा भी देवी हैं। एक सूक्त (1.124) में “ये ऊषा देवी नियम पालन करती हैं। नियमित रूप से आती हैं।” (वही मन्त्र 2) ऊषा, “सबको प्रकाश आनंद देती हैं। अपने पराए का भेद नहीं करतीं।“ (वही, 6) सबको समान दृष्टि से देखती हैं। ऋग्वेद में जागरण की महत्ता है। इसलिए “सम्पूर्ण प्राणियों में सर्वप्रथम ऊषा ही जागती हैं।” (1.123.2) प्रार्थना है कि “हमारी बुद्धि सत्कर्मो की ओर प्रेरित करे।” (वही, 6) ऊषा सतत् प्रवाह है। आती हैं, जाती हैं फिर फिर आती हैं। जैसी आज आई हैं, वैसे ही आगे भी आएंगी।” ऋग्वेद में मन की शासक देवी का नाम ‘मनीषा’ है। मनीषा और प्रज्ञा पर्यायवाची हैं। प्रकृति स्वयंभू है…
ऋषि आवाहन करते हैं “प्र शुकैतु देवी मनीषा”। (7.34.1) ऋग्वेद में श्रद्धा भी एक देवी हैं, “श्रद्धा प्रातर्हवामहे, श्रद्धा मध्यंदिन परि, श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः” – हम प्रातः काल श्रद्धा का आवाहन करते हैं, मध्यान्ह मेें श्रद्धा का आवाहन करते हैं, सूर्यास्त काल में श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। हे श्रद्धा हम सबको श्रद्धा से परिपूर्ण करें। (10.151.5) श्रद्धा प्रकृति की विभूतियों में शिखर है-श्रद्धां भगस्तय मूर्धनि। (10.151.1) ऋग्वेद में जल को भी मां देखा गया है। वे ‘जल माताएं’ आपः मातरम् हैं और देवियां हैं। मां ही जन्म देती है। मां नहीं तो सृष्टि विकास नहीं। ऋग्वैदिक ऋषियों की अनुभूति में संसार के प्रत्येक तत्व को जन्म देने वाली यही आपः माताएं हैं-विश्वस्य स्थातुर्जगतो जनित्रीः (6.50.7) ऋग्वेद के बहुत बड़े देवता है अग्नि। इन्हें भी आपः माताओं ने जन्म दिया है: तमापो अग्निं जनयन्त मातरः (10.91.6) ऋग्वेद में वाणी की देवी वाग्देवी (10.125) हैं। वाणी की शक्ति अपरिमित है। वाग्देवी (ऋग्वेद वाक्सूक्त 10.125) कहती हैं-“मैं रूद्रगणों वसुगणों के साथ भ्रमण करती हूँ। मित्र, वरूण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ। मेरा स्वरूप विभिन्न रूपों में विद्यमान है। श्रवण, मनन, दर्शन क्षमता का कारण मैं ही हूँ। मैं समस्त लोकों की सर्जक हूँ आदि। वे ‘राष्ट्री संगमनी वसूनां – राष्ट्रवासियों और उनके सम्पूर्ण वैभव को संगठित करने वाली शक्ति – राष्ट्री है’। (10.125.3) हम सबने भारत को भी भारत माता जाना।
मां सर्वोत्तम अनुभूति है, प्रकृति की आदि अनादि अनुभूति। जीवन के हरेक स्पंदन में मां है। हम विराट का अंश है। मां भी विराट का अंश है। विराट अपने अंश हममें प्रकट करता है। मां को माध्यम बनाता है। हम 9 माह गर्भ में रहते हैं। मां की सांस हमारी सांस बनी रहती है। मां जागती रहती है, हम सो सकते हैं। वह सोई हो, तो भी हम जागते रह सकते हैं। गर्भ में हम ईष्र्या राग द्वैष से मुक्त रहते हैं। भोजन, पानी और पोषण की चिन्ता से भी मुक्त। मां का गर्भ सर्वाेत्तम सुरक्षा, सर्वोत्तम आनंद आश्रय और विकास के अवसर देता है। हम गर्भ से बाहर आते हैं, संसार में। उस समय मां असह्य और दुर्निवार व्यथा में होती है लेकिन हमारे संभवन को संभव बनाती है। वह हमारे होने, विकसित होने और सक्षम होने में अपनी भूमिका निभाती है।
श्रीकृष्ण या श्रीराम को ईश्वर का अवतार कहा जाता है। वे भी मां के माध्यम से ही यहां आए। अस्तित्व को मां रूप में देखना आनंददायी है। हम पृथ्वी पुत्र हैं। पृथ्वी मां है। ऋग्वेद माता की गहन अनुभूति से भरापूरा है। ऋषि आनंद उल्लास और आश्वस्ति के हरेक प्रतीक में मां देखते हैं। पृथ्वी माता है। कहते हैं “माता पृथ्वी धारक है। पर्वतों को धारण करती है, मेघों को प्रेरित करती है। वर्षा के जल से अपने अंतस् ओज से वनस्पतियां धारण करती है।” ऋग्वेद में रात्रि भी एक देवी हैं “वे अविनाशी – अमत्र्या हैं, वे आकाश पुत्री हैं, पहले अंतरिक्ष को और बाद में निचले-ऊचे क्षेत्रों को आच्छादित करती है। उनके आगमन पर हम सब गौ, अश्वादि और पशु पक्षी भी विश्राम करते हैं।” (10.127) दुर्गा सप्तशती में निद्रा भी माता और देवी है। देवरूप माँ की उपासना अतिप्राचीन है।