[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस समाचार को सुने”] सम्पूर्ण भारत में आप भ्रमण करिये तो पायेंगे कि यहां के तीर्थ स्थलों में कई मन्दिर निर्मित हैं। इन मन्दिरों में कई देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। जिन्हें देखकर हमारा मस्तक पूज्य भाव व श्रद्धा से -हजयुक जाता है। तब हम वास्तव में उन जड़ प्रतिमाओं के प्रति नहीं, अपितु उन प्रतिमाओं की कलारूप में अभिव्यक्त दैवी भावों,शक्तियों और सामर्थ्यों के प्रति अपनी श्रद्धा के पुष्प अर्पित करते हैं। जड़ प्रतिमाएं मानव भाव का कलात्मक मूर्तरूप हैं। गुप्त तात्पर्य प्रत्येक जड़ प्रतिमा में अंकित दैवी भाव ही है। किसी में शक्ति, साहस, पौरूष का मूर्तिमान स्वरूप है तो किसी मूर्ति मेंसत्य,सौन्दर्य तथा शिवत्व का। इन मूर्तियों का गुप्त अर्थ संकेतात्मक है। प्रत्येक हिन्दू देवी-देवता की प्रतिमा नैतिक, आध्यात्मिक विशद दृष्टि से निर्मित है। उसमें ऋषि-मुनियों ने गू-सजय़ विचारों का समावेश किया है।समय बदल रहा है।
जीवन मूल्य बदल रहे हैं। एक समय था जब प्रत्येक हिन्दू हमारी प्रत्येक प्रतिमा का आन्तरिक अर्थ और गुप्त संकेत सम-हजयकर उन आध्यात्मिक दैवी गुणों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करता था। प्रतिमा पूजन उसे सदा उन नैतिक, आध्यात्मिक सत्यों का स्मरण करया करता था, जिनसे मानव जीवन आदर्श रूप बनता है। उदाहरण के लिये हम तीन देवियों में अभिव्यक्त मूल भावों को ले सकते हैं। हमारी अष्टभुजा दुर्गा सिंह पर विराजमान हैं। जो व्यक्ति अपने सामने दुर्गा की मूर्ति रखता है, वह शुद्ध रूप से शारीरिक शक्ति और सामर्थ्य का पुजारी है। दुर्गा की 8 भुजायें एक व्यक्ति में 4 व्यक्तियों की शक्ति, साहस सामर्थ्य, बल प्रकट करती हैं। वे सिंह जैसे बल, पौरूष और साहसमय वाहन पर विराजमान हैं।सब पशुओं के राजा पर जिस देवी का अधिकार है, उसका उपासक गुप्त रूप से ये ही सद्गुण एकत्र करेगा। जब-ंउचयजब वह दुर्गा का चित्र देखेगा, उसके मन में इन्ही का मानस चित्र उपस्थित होकर उन्नत भावों और गुणों को चरित्र में स्थान देगा।
देवी सरस्वती के 4 हांथ हैं। अर्थात उनमें 2 व्यक्तियों का बल है। पर उनके हाथों में वीणा संगीतकला की अद्भुत शक्ति प्रकट करती है। पुस्तक समस्त ज्ञान-विज्ञान, नीति, धर्म, शास्त्रों के ज्ञान का प्रतीक है। एक हाथ में माला ज्ञान का धर्म के साथ समन्वय करती है। जो व्यक्ति सरस्वती का उपासक है, वह वास्तव में ज्ञान-ंउचयविज्ञान कला-विशेषतः साहित्य, कविता, संगीत, वाद्य आदि का उपासक है। सरस्वती प्रकृति के रमणीय प्रांगण में विचरण करती है। मत्त मयूरों, लहलहाते सर, नि-हजर्यर हंस आदि कलात्मक परिस्थितियों से उनका निकट सम्पर्क है।वस्तुतः जो व्यक्ति सरस्वती को अपना आदर्श बनाता है, वह ज्ञान और कला से अपनी निकटता प्रकट करता है।
देवी लक्ष्मी के 4 हांथ हैं। हाथों में कमल का पुष्प, धन, आभूषण, मुद्रायें, स्वर्ण आदि हैं। दोनों ओर हांथी चंवर कर रहे हैं। सुन्दर वस्त्रों तथा अलंकारों से विभूषित की गयी है। उनके चारों ओर एश्वर्य का विमुग्धकारी वातावरण उपस्थित है। लक्ष्मी का गरिमामय चित्र हमारे मानस नेत्रों के सम्मुख धन-ंउचयसम्पदा, वैभव की उपयोगिता तथा हमारी इन
वस्तुओं के प्रति चपल लालसा अभिव्यक्त करता है।
भगवान राम का चित्र मर्यादा, शील, व्यवहार, आचरण, शक्ति, धैर्य, एकपत्नी व्रत, सात्विक प्रेम, कर्तव्य पालन, शरणागत रक्षा और शक्ति का उज्जवल प्रतीक है। उनमें अनन्त शक्ति के साथ धीरता गम्भीरता और कोमलता की पूजा है। एक भार्या की मर्यादा का समाज में महत्व, माधुर्य और सुख के आदर्श की पूजा है। भरत में आदर्श भ्रातभक्ति,स्नेह, लोकभीरूता, आत्मग्लानि, त्याग, निर्तलता तथा सजय़ता की पूजा है। राजा दशरथ में सत्यवादिता सजय़ प्रतिज्ञा स्नेह की पराकाष्ठा आदि गुण और स्त्री के वश में होने का दुर्गुण मूर्तिमान किया गया है। इन महापुरूषों के चित्रों अथवा प्रतिमाओं में हम दैवी भावों का ही कलात्मक मूर्तरूप चित्रित देखते हैं।योगेश्वर भगवान कृष्ण में हम शक्ति, शौर्य, निति कुशलता, सौन्दर्य,समाजसेवा, दुष्टदमन का आदर्श देखते हैं। बालक श्रीकृष्ण ने व्रज के ग्वालों में प्रेम,सेवा,संगठन, शक्ति और सदाचार, पराक्रम के दिव्य गुण उत्पन्न किये थे। देश की आध्यात्मिक, शारीरिक और आत्मिक उन्नति के लिये वे गोपाल बने। भारत में राष्ट्रसंघ की स्थापना, नीति से शत्रु को परास्त करना, दीनता और मोह से हानि, त्याग की महत्ता प्रकट की। निष्काम कर्मयोग की महत्ता। साहस और शक्ति, नीति, ज्ञान, मधुरता, सौन्दर्य, सरसता, वीरता, धर्म, राजनिति, एश्वर्य, यश, श्री, वैराग्य और मोक्ष आदि दिव्य गुणों की पूजा हम उनकी मूर्ति में किया करते हैं।
भक्त हनुमानजी हमारे यहां शक्ति, सेवा,आत्मसमर्पण और निरलसता के सात्विक प्रतीक हैं। एक आदर्श सेवक में जो गुण होने अनिवार्य हैं, वे सब उनमें एकत्र कर दिये गये हैं। बजरंगबली हनुमान अतुलनीय शक्ति और साहस के प्रतीक हैं। श्रीगणेशजी में शुभ शक्ति का वास है। प्रत्येक कार्य के आरम्भ में गणेशजी का आह्वाहन हमारी दिव्य शक्तियों को उत्तेजना देता है। इन देवी-देवताओं की पूजा के 2 पक्ष हैं। वस्तुपक्ष व भावपक्ष। कई प्रकार की मूर्तियों के प्रतीकों को देखकर मन में उनके अनुकूल विचारों की उत्पत्ति होती है। समस्त जड़ मूर्तियां भावों से आवृत्त हैं। उन्हें सदा आंखों के सामने रखने से उनके अनुमूल शुभ-ंउचयसात्विक सद्गुणों का विकास होता है और मनुष्य अपना आदर्श भूल नहीं पाता। मूर्तियों के निरन्तर दर्शन, आरती, कीर्तन, भजन, पूजन आदि धार्मिक कृत्यों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि मन में सद्गुणों की गंगा का प्रवाह अक्षुण्ण बना रहता है।
मन को शुभ भावों का सत्संग प्राप्त होता है। गन्दे विचार नहीं आ पाते। प्रतिदिन आरती-पूजन का विधान इसीलिये रखा गया है कि हम प्रातः स्वयं अपने मन की गंदगी को साफकर उसमें शुभ सामर्थ्य की प्रतिष्ठा कर लिया करें। हमारा समस्त पूजन मानसिक है। अर्थात इससे भावात्मक स्वच्छता, सात्विक गुणों की वृद्धि, शुभ सतसंग, विरोधी दुष्ट विचारों का दमन, ईर्ष्या, वासना, क्रोध आदि का परिष्कार होकर दैवी सत्ता से सानिध्य प्राप्त होता है। हम सास्तविक लक्ष्य की ओर अग्रसर होते रहते हैं। दैवी गुणों का अनंत अविराम प्रवाह मानसिक कलुष को दूर करता रहता है। यदि किसी दिन राक्षसी वृत्ति के विकार से वशीभूत हो हम गिर भी जाये तो मानस-ंउचयपूजन आत्मग्लानि उत्पनन कर फिर दैवी प्रकाश प्रदान करता है। पूजा हमारे मानसिक संस्थान को स्वच्छ करने का एक सात्विक चिरपरिक्षित साधन है। ये न सम-िहजयये कि ये मूर्ति पूजा करने वाली किन्हीं बाहरी प्रस्तर-मूर्तियों को प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहे हैंे। ये तो स्वयं अपने ही मन को शुभ सात्विक दैवी भावेां से परिपूर्ण कर रहे हैं।
मानसिक विकारों को दूर कर अपने व्यक्तित्व के देवत्व का विकास कर रहे हैं। देवमूर्तियों का बाहरी आधार लेकर ये एक प्रकार का मानसिक व्यायाम अर्थात अपने दिव्य अंश पर एकाग्रता मात्र कर रहे हैं। अपने आन्तरिक जगत को दिव्य प्रकाश से आलोकित कर रहे हैं। इनका पूजन मानसिक पूजन है। ईश्वर के गुणगान कर, भजन-कीर्तन, वादन, जप, ध्यान, समाधि से हम दैवी स्वर में अपना स्वर मिला देते हैं। ये क्रियायें हमारी आत्मा की दैवी आत्मा से एकता बनाये रखने के साधन हैं। तुलसी की विनय पत्रिका, मीरा के भजन, सूरदार के पद भक्त हृदयों की आत्मशुद्धि के साधन हैं। भक्तों की इनसे आत्यन्तिक आत्मशुद्धि हुयी। वे दैवी तत्व से एकस्वर-एकरस हो सके।एैसा न समझा जयये कि जो भोग (मिष्ठान्न, फल, भोजन आदि) देवमूर्तियों को लगाया जाता है, उसे वे मूर्ति चखती हैं अथवा उनका स्वाद लेती हैं। पर उनके सम्मुख रखकर हम अपने भोजन में सात्विकता,देवत्व,स्वच्छता,आरोग्य,शक्ति,समृद्धि आदि दैवी तत्वों का समावेश कर लेते हैं। भोजन या भोज के साथ-साथ इन दैवी भावों का भी खाने से हमें आरोग्य और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। हमारे व्यक्तित्व का देवत्व ही कल्याणकारी है। हमारा पूजन उसी के विकास का एक सरल संकेतात्मक साधन है। [/responsivevoice]