गिनती की बात

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गिनती की बात
गिनती की बात

प्रियंका सौरभ

जो गिने गए, वे कुछ थे, गिनती की बात

जो न गिने गए, वे सब थे।

गिनती से बाहर जो छूट गए,

उनका दर्द, उनकी भूख अब तक जीवित है।

कहते हो — “जाति मत देखो”,

पर पद, परंपरा, पंचायत में

हर पग पर जाति ही तो देखी जाती है।

कहते हो — “जातिविहीन समाज बनाना है”,

मगर गुप्त सूचियों में, कुर्सियों की ऊँचाई में,

नाम, उपनाम, वंश, सब बचे रह जाते हैं।

गिनती कोई अपमान नहीं,

यह तो बस वह शीशा है,

जिसमें समाज अपना चेहरा देख सके।

कितने वंचित हैं, कितने बहिष्कृत,

कितने अब भी स्कूल की देहरी तक नहीं पहुँचे —

यह जानना शर्म की बात नहीं,

यह जानना जिम्मेदारी है।

गिनती से पहले जो अदृश्य थे,

गिनती के बाद वे नागरिक होंगे।

आँकड़ों में ही तो बसती है उम्मीद,

तथ्य ही तो तोड़ते हैं भ्रम की ज़ंजीरें।

अगर आरक्षण जाति पर आधारित है,

तो आँकड़े क्यों नहीं?

अगर शासन जातीय समीकरणों से चलता है,

तो गिनती से परहेज़ कैसा?

डर किस बात का है, साहिब?

कि कहीं सच न सामने आ जाए?

कि कहीं बहुसंख्य समाज अपनी हिस्सेदारी माँग न ले?

कि जिन्हें अधिक मिला, उन्हें थोड़ी जगह समेटनी पड़े?

यह गिनती कोई विभाजन नहीं लाएगी,

यह तो वह आईना होगी

जो सत्ता के गलियारों को स्पष्ट दिखा देगी —

कि जिन्हें तुम ‘बहुजन’ कहते हो,

वे अब बहुशब्द नहीं,

बहुबल भी हैं।

गिन लो हमें,

हमारी संख्या को मत डराओ,

हम कोई परछाईं नहीं,

हम इस लोकतंत्र की असली रौशनी हैं।

हम वह पंक्ति हैं

जिसे सदियों से पीछे रोका गया —

अब हम आगे बढ़ना चाहते हैं,

बस एक बार हमें भी

पूरा गिन लिया जाए। गिनती की बात