

अभिव्यक्त की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है। संविधान निर्माताओं ने सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार बनाया है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह अधिकार असीम नहीं है। इसकी सीमा है। संविधान के अनुच्छेद 19 में यह अधिकार स्पष्ट है। कहा गया है, ”सभी नागरिकों को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार होगा।” वहीं इसी अनुच्छेद के खण्ड 2 में इस अधिकार की मर्यादा बताई गई है। आगे कहा गया है कि, ”भारत की संप्रभुता, अखण्डता, सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंध, लोकव्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय अवमान के सम्बंध में विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर फर्क नहीं पड़ेगा।” बीते कुछ समय से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस अधिकार का दुरुपयोग बढ़ रहा है। इस पर पर राष्ट्रीय बेचैनी है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में स्पष्ट किया है कि विचार अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है। विचार अभिव्यक्ति की मर्यादा
दरअसल सोशल मीडिया में सक्रिय एक बड़े वर्ग द्वारा आभासी आक्रमण दंगा भड़काने वाले पोस्ट डाले जा रहे हैं। अश्लील चित्र और अवैध संबंधों का महिमामण्डन किया जा रहा है। ऐसे में सोशल मीडिया जैसे विशाल मंच के दुरुपयोग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। देश चिंतित है। सांप्रदायिक संघर्ष भड़काने वाली झूठी सूचनाएं भी राष्ट्रीय एकता और आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरनाक बताई जा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने विकलांग व्यक्तियों पर आपत्तिजनक टिप्पणियों को गंभीरता से लिया है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने अटॉर्नी जनरल से सोशल मीडिया के दिशा निर्देश तैयार करने की अपेक्षा की है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निरंकुश दुरुपयोग राष्ट्र के लिए अच्छा नहीं है। एक अन्य मुकदमे में सर्वोच्च न्यायपीठ ने कहा है कि, ”अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मूल्यवान है। आखिरकार देश के नागरिक स्वयं अपना नियमन क्यों नहीं कर सकते?”
भारत विश्व प्रतिष्ठित देश है। हम भारत के लोग अपने परिजनों/देशवासियों से शब्द संयम की न्यूनतम अपेक्षा तो कर ही सकते हैं। यह बात सही है कि विचार अभिव्यक्ति आवश्यक है, लेकिन इससे भी ज्यादा यह बात आवश्यक है कि अभिव्यक्ति का सौंदर्य और उसका प्रवाह अश्लील अभद्र और आक्रामक न हो। संप्रति सोशल मीडिया में सदाचार और अभद्र आचरण को भी जाति वर्ग में बांटने का प्रचार चल रहा है। आखिरकार विचार अभिव्यक्ति का अर्थ क्या है..? अस्तित्व सत्य है, अस्तित्व सुंदर है और शिव भी है। हमारे उद्भव का स्रोत अस्तित्व है। अस्तित्व प्रतिपल अभिव्यक्त हो रहा है। सत्य, शिव और सुंदर को प्रकट करना और राष्ट्र को आनंद आपूरित करना अभिव्यक्ति का उद्देश्य है।

संगीत, कला, काव्य और साहित्य सहित सभी सृजन विचार स्वातंत्र्य में ही खिलते हैं। आधुनिक विश्व के सभी देशों में इनका सम्मान है। लेकिन भारत और शेष विश्व में इनके उद्देश्यों में मौलिक अंतर है। भारतीय संगीत, कला, काव्य और साहित्य का लक्ष्य लोकमंगल है। यहां जो लोकमंगल नहीं साधता वह साहित्य नहीं हो सकता। यहां श्रीकृष्ण भी बांसुरी वादक हैं और शिव नटराज। ऋग्वेद में अग्नि देवता व बृहस्पति को भी कवि बताया गया है। यहां विचार अभिव्यक्ति का लक्ष्य किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाना नहीं था। भारतीय भाषाओं के सबसे लोकप्रिय कवि तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखी थी। यहां पहले से ही इस्लामी शासन था लेकिन उनकी रामकथा में इस्लाम या तत्कालीन शासकों पर कोई टिप्पणी नहीं है।
संविधान निर्माता सजग थे। उन्होंने विचार अभिव्यक्ति का स्वातंत्र्य दिया, साथ ही मर्यादा के बंधन भी लगाए। संविधान सभा (1.12.1948) में प्रो0 के0टी0 शाह ने बंधनों का विरोध किया, कहा कि “यहां मुख्य प्राविधान के बजाय अपवादों पर अधिक जोर दिया गया है, वास्तव में दांए हाथ से जो कुछ दिया गया है उसे तीन, चार बार बांए हाथों से छीन लिया गया है।” शाह ने समाचार पत्रों को अधिकार देने की मांग की। कहा “संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र में समाचार पत्रों की स्वाधीनता को प्रमुख स्थान दिया गया है। हमारे मसौदाकारों ने इसे क्यों छोड़ा?” दामोदर स्वरूप सेठ ने भी कहा कि “इस अनुच्छेद में जिन अधिकारों को दिया गया है उनका उसी अनुच्छेद की धारा से खण्डन हो जाता है।” अनेक तर्क हुए लेकिन अंततः बंधनों पर ही सहमति हुई। समाचार पत्रों को इसी अधिकार में सम्मिलित माना गया। मर्यादाओं की सूची में ‘अपराध प्रेरण, शिष्टाचार, सदाचार, न्यायालय अवमान; आदि शब्द रखे गए थे। लेकिन चीनी हमले के समय वामपंथी समूहों ने राष्ट्रीय संप्रभुता को भी चुनौती दी। तब ‘भारत की संप्रभुता और अखण्डता’ को प्रभावित करने वाली अभिव्यक्ति पर मर्यादा की बात 1963 के 16वें संविधान संशोधन में जोड़ी गयी।
राष्ट्र का संवर्द्धन हरेक नागरिक का कर्तव्य है। संविधान का अनुच्छेद 51क (42वां संविधान संशोधन) मूल कर्तव्यों का है। प्रख्यात संविधानविद् न्यायमूर्ति डी0डी0 वसु की टिप्पणी पठनीय है कि “मूल कर्तव्य न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। इनका उल्लंघन भी दण्डनीय नहीं है लेकिन न्यायालय ऐसे व्यक्ति की प्रेरणा पर मूल अधिकार का प्रवर्तन करने से इंकार कर सकता है जिसने संवैधानिक कर्तव्यों में से किसी एक का उल्लंघन किया है।” इस सूची में संविधान का पालन, संवैधानिक संस्थाओं, राष्ट्रध्वज व राष्ट्रगान का आदर, राष्ट्र की संप्रभुता, एकता, अखण्डता का सम्मान, समानता व भाईचारा बढ़ाने, सांस्कृतिक परम्परा का सम्मान और परिरक्षण आदि 11 संवैधानिक कर्तव्य व्यों का पालन किए जाने की अपेक्षा की गई है। लेकिन अनेक लोग विचार अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करते समय संवैधानिक कर्तव्यों का ध्यान नहीं रखते। भारत संघ बनाम नवीन जिन्दल मामले (2004) में न्यायालय ने राष्ट्रध्वज के लहराने को भी विचार अभिव्यक्ति मानकर अनुच्छेद 19(1) की परिधि में मौलिक अधिकार बताया था।
वाक् स्वातंत्र्य का अधिकार बड़ा है। शब्द सत्ता बड़ी है-शब्द संयम में प्रीति होती है, रस होता है। शब्द दुरूपयोग में उत्तेजना है, भावना और आस्था पर आक्रमण हैं। विश्वविख्यात कलाकार एम0एफ0 हुसैन ने सरस्वती व सीता के अश्लील चित्र बनाए थे। इसे विचार अभिव्यक्ति कहेंगे या विकार अभिव्यक्ति? सोशल मीडिया में आपत्तिजनक सामग्री की आंधी है। शब्द संयम में ही सौन्दर्य प्रकट होता है और शब्द अनुशासनहीनता में अश्लीलता। सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में मौन रहने को भी अनु0 19(1क) के अधीन विचार अभिव्यक्ति का अधिकार बताया था। राजनीति शब्दों का ही खेल है। लेकिन राजनैतिक शब्दकोष से शालीनता के तत्व गायब हैं। यहां आरोप-प्रत्यारोप हैं। संसद और विधानमण्डल में बोले गए शब्दों पर न्यायालय कार्यवाही नहीं कर सकते। इसलिए संसदीय शब्द अराजकता अपनी सीमा पार कर गई है। वाक् स्वातंत्र्य के अधिकार का सदुपयोग सामाजिक परिवर्तन में होना चाहिए। वाद-विवाद में मधुमय सम्वाद की प्राचीन संस्कृति को बढ़ाना चाहिए। समाज के छोटे से हिस्से की भी भावनाओं को आहत करने वाले शब्दों का प्रयोग अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग है। इसी तरह बात बे बात किसी विचार, संगीत, कला, काव्य या फिल्म को लेकर हल्ला बोलना भी स्वतंत्र समाज के लिए बहुत घातक है। राष्ट्र राज्य अपना कर्तव्य निभाए और नागरिक अपना। विचार अभिव्यक्ति की मर्यादा