प्रकृति की पाठ पढ़ाता हमें हमारा गांव आओ अब गांव लौट चले। कुछ दिन तो और ठहर लें जिन्दगी,बुजुर्गों के छांव में नहीं जाना मुझे यहाँ से, मन बस गया मेरा अपने गांव में।
शहरों को स्मार्ट बनाने से बेहर हैं गांवों को स्मार्ट बनाया जाए लेकिन यह शब्द सुनने में और भाषणों में ही अच्छे लगते हैं धरातल पर कभी नहीं उतरते। जहां प्रकृति का हैं छाव वहीं हैं अपना गांव।जहां कुदरत की अपनी छांव है,जिसे अपना कह सकूं वही अपना गांव है! हम और आप आज बेशक इस आधुनिकता के युग में कूलर पंखे और एसी के युग में खुद को रईस जादों की होड़ में भलें सुमार करते हो मगर गांव की शीतलता और बांग बगीचों के नीचे चारपाई डालकर बैठने का मुधुरिमय सुख कहीं नहीं प्राप्त कर सकतें हैं । ये सारे अनुभव तभी आप को अनुभूति होगें जब आप गांव, गिराव,खेत खलिहान में खुद को पायेगें ।
भीषण गर्मी में भी सुखमय आनन्द आपको गांव की शुद्ध हवा के साथ हरें पेडों की शीतलता खुद व खुद खीचती ले जायेगी । लेकिन जिस प्रकार से खुद को आधुनिकता की होड़ में रखकर जी रहें रहें हैं यहीं वजह हैं कि हम तमाम झंझावात बिमारियों का शिकार भी हो रहें हैं । हम खुद को मार्डन बनाने के चक्कर में गांव की तरफ रुख नहीं कर रहें हैं लेकिन अभी हाल ही में फैलने वाली महामारी कोविड ने सभी को शहरों से गांव की तरफ आने पर मजबूर कर दिया। सीधे शब्दों में कहें तो गाँव की सुंदरता बहुत अच्छी होती है। वहां पर बहुत सारे ऐसे पेड़ पौधे होते हैं जो हमें शुद्ध हवा और पर्याप्त आक्सीजन देते हैं । गांव में रहने वाले लोग सीधा-साधा जीवन व्यतीत करते हैं और वहां के लोग मेहनत की तारीफ हर कोई करता हैं।
गांव में लोग अपनी ईमानदारी से काम करते हैं। गांव में भारतीय संस्कृति और पुराने रीति रिवाजों की परंपरा देखने को मिलते हैं वहीं अपनापन भी आत्मयीता का रिस्ता निभाता हैं। गांव की परंपरा सदियों से चलती आ रही है। वहां के लोगों में अपनापन और सामाजिक एकता पाई जाती हैं। गांव का मुख्य व्यवसाय किसानी ही हैं। पहलें तो गाँवों में घर मिट्टी के बनते थें और उनमें शीतलता भी बढिया रहती हैं न गर्मी का आभास होता था न ठंडी का एहसास आज तो मिट्टी के घरों को ईट की घरों की तरफ तब्दील कर दिया गया हैं लेकिन जदाकदा कुछ जगहों पर आज भी देखने को मिलते हैं । गांव में लोगों के रहन सहन के साथ आज शिक्षा के क्षेत्र में भी अग्रणी हैं।अधिकतर गाँव में आज भी शिक्षा सही से उपलब्ध नहीं हो पाई है तमाम शोषित पिछडे़ एंव दलित तबके के परिवार हायर शिक्षा से वंचित हो जाते हैं ।
वहीं हम यदि गांवों के आवोहवा की तरफ देखे तो पर्यावरण चीख-चीख कर सभी को यह संदेश दे रहा है कि मुझे स्वच्छ रखो। मैं स्वच्छ रहूंगा तो तुम भी निरोग, स्वस्थ व सुखी रहोगे। बावजूद इसके उस संदेश की उपेक्षा कर स्वयं अपने जीवन के साथ हम खिलवाड़ कर रहे है। स्वच्छ पर्यावरण के प्रतीक वृक्षों व वनों के अंधाधुंध दोहन के साथ ही वातावरण को प्रदूषित करने वाले यह तमाम कार्य करते जा रहे है यहीं वजह हैं कि आज हम गांव में भी शुद्ध हवा की तलाश में जाते तो हैं मगर कुछ गांवों में बदलाव की तरफ रुख नहीं करते हैं । गाँव का विकास तभी संभव हैं जब हम गाँव के विकास एंव उनत्ति के बारें में सोचेंगे। जिसमें गांव के विकास के लिए अस्पताल, शौचालय, विद्यालय का निर्माण जरुरी हैं भलें आज सरकार कच्चे मकानों में रहने वाले के लिए पक्के मकानों की व्यवस्था कर रही हो। गाँव के किसान के लिए खेत में लगने वाले उन्नति शील बीज, दवाइयां मुफ्त में उपलब्धि करा रही हो।
किसानों तथा अन्य लोगों के ऋण की व्यवस्था भी की जा रही हो। कृषि के विकास के लिए सहकारी समिति से ऋण दिया जाता हो। किसानों को बीज और खाद भी सहकारी समिति ही देती हो। गाँव में सभी को साक्षर बनाने के लिए शिक्षा की भी व्यवस्था की गई हो।लेकिन शहरों को स्मार्ट बनाने की वकायद ने गांवों को स्मार्ट बनाने की तरफ रुख नहीं कर रहें हैं ।शहर से ज्यादा गाँव में स्वछता का ध्यान दिया जाता है यही कारण है गाँव में रहने वाले लोग लम्बे समय तक स्वस्थ रहते है। सुना है वह करोड़ों में बंगला खरीदा है शहर के अंदर लेकिन आंगन दिखाने आज भी वह अपने बच्चों को गांव लेकर आता है।
गर्मियों का समय चल रहा हैं और खास तौर पर आम का समय हैं सालों बाद ननिहाल में आम की डालियों पर बैठा तो बचपन याद आया , बाग में लगे पेडों की डालियों पर चिडिय़ा की तरह फुदकता रहा कभी इस डाली कभी उस डाली पर दौड़ा रहा ,गिरने का कोई डर तक ना था, आज हाथ पांव कांपने लगते हैं बड़े होने पर अब देखता हूँ इन पेडों को देखकर मुझे लगा कितना कुछ तो पीछे छूट गया है वो अल्हडता ,वो बीफिक्री अब नहीं रही अब तो हरें भरें पेडों के नीचें गर्मियों का आनंद ले रहें हैं यहीं हैं मेरा गांव देहात शायद मेरा वजूद मेरे गांव की मिट्टी से जुड़ा हैं इसीलिए मैं गांव गिराव खेत खलिहान की बात करता हूँ और लिखता भी हूँ ।